रांची: बिहार की सत्ता से एनडीए बाहर हो गई है. नीतीश कुमार (Nitish Kumar) अब महागठबंधन के नेता बन गये हैं. पूर्व में भी महागठबंधन के साथ उन्होंने सरकार बनाई थी लेकिन कुछ माह बाद ही एनडीए में वापस आ गये थे. इस दौरान उनको कई शब्दों से नवाजा गया. इन बातों को अब पूरा देश जान चुका है. अब बात हो रही है कि क्या नीतीश कुमार इतने बड़े कुनबे को चला पाएंगे. यह भी चर्चा हो रही है कि क्या नीतीश कुमार ने 2024 को देखते हुए बड़ी चाल चली है. क्या उनकी नजर विपक्षी नेता के रूप में पीएम की कुर्सी पर है. इन सवालों के विश्लेषण किए जा रहे हैं. लेकिन झारखंड के लोग यह जानना चाह रहे हैं कि इस बदलाव का उनके राज्य में क्या प्रभाव पड़ेगा.
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इन सवालों को समझने के लिए सबसे पहले झारखंड में जदयू की ताकत को टटोलना होगा. साल 2000 में राज्य बनने के वक्त झारखंड में जदयू (JDU) के तीन विधायक थे. डुमरी से लालचंद महतो, लातेहार से वैद्यनाथ राम और डालटनगंज से इंदर सिंह नामधारी जीते थे. राज्य बनने के बाद पहली बार 2005 में हुए झारखंड विधानसभा चुनाव में जदयू ने छह सीटों पर कब्जा जमाया था. उस वक्त देवघर से कामेश्वर नाथ दास, मांडू से खीरू महतो, बाघमारा से जलेश्वर महतो, तमाड़ से रमेश सिंह मुंडा, डालटनगंज से इंदर सिंह नामधारी और छत्तरपुर से राधाकृष्ण किशोर की जीत हुई थी. लेकिन 2009 के चुनाव में जदयू का ग्राफ नीचे चला गया. पार्टी को सिर्फ दो सीटें मिलीं. छत्तरपुर से सुधा चौधरी और तमाड़ से राजा पीटर जीते. लेकिन 2014 के बाद झारखंड विधानसभा से जदयू गायब हो गई. हालाकि संगठन को ताकत देने के लिए कई प्रयोग किए गये. लेकिन पार्टी की कमजोर पकड़ की वजह से तमाम पुराने नेता दूसरी पार्टियों में जाते रहे. लेकिन इसी साल राज्यसभा चुनाव के कुछ माह पहले नीतीश कुमार ने जदयू से जुड़े रहे मांडू के पूर्व विधायक खीरू महतो को न सिर्फ झारखंड की कमान सौंपी बल्कि अपने सबसे खास रहे आरसीपी सिंह का टिकट काटकर उन्हें राज्यसभा पहुंचा दिया.
बिहार की राजनीति का झारखंड में असर (Impact of Bihar politics in Jharkhand): जानकार कहते हैं कि नीतीश कुमार ने जिस तरह बिहार की राजनीति को 360 डिग्री पर घुमा दिया है, उसकी तैयारी उन्होंने काफी पहले से करनी शुरू कर दी थी. यही वजह है कि झारखंड में संगठन को मजबूत करने के लिए उन्होंने खीरू महतो को ताकत दी. अब सवाल है कि बिहार में हुए बदलाव का यहां क्या असर पड़ सकता है. जानकारों का कहना है कि कुर्मी और महतो समाज पर जदयू की जबरदस्त पकड़ है. साथ ही बिहार में पासवान को छोड़कर महादलित वर्ग पर भी जदयू की अच्छी पकड़ है. अब इसका असर झारखंड के कुर्मी और महतो के साथ-साथ महादलित वोट पर पड़ सकता है. फिलहाल झारखंड में कुर्मी और महतो वोट पर आजसू की पकड़ मानी जाती है. लेकिन 2019 में एनडीए से हटकर चुनाव लड़ने के कारण आजसू को सिर्फ सिल्ली और गोमिया में जीत मिली थी. लिहाजा, आने वाले वक्त में महागठबंधन के तहत झारखंड में जदयू को स्थान मिलना तय माना जा रहा है. क्योंकि झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं. अगर झारखंड के महागठबंधन में जदयू की एंट्री होती है तो इसका सीधा नुकसान एनडीए को उठाना पड़ सकता है. लेकिन यह फार्मूला आसान भी नहीं दिखता. क्योंकि झारखंड में जिन सीटों पर पूर्व में जदयू की जीत होती रही है उनमें से देवघर, छत्तरपुर और लातेहार में राजद की भी दावेदारी रही है. इस वक्त लातेहार सीट झामुमो के पास है. वहीं मांडू सीट पर झामुमो की पूर्व में जीत होती रही है. अब सवाल यह है कि भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए महागठबंधन की कौन सी पार्टियां कितना त्याग करने को तैयार होती हैं.