रांचीः कोरोना के प्रकोप से कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं है. शिक्षा व्यवस्था पर तो इसका व्यापक प्रभाव पड़ा है. देशभर के सभी शिक्षण संस्थानों के साथ-साथ झारखंड के भी हजारों स्कूल-कॉलेज बंद पड़े हैं. ऐसे में ऑनलाइन पठन-पाठन के नाम पर राज्य के निजी स्कूलों में क्लासेस लिए जा रहे हैं. सरकारी स्कूलों के साथ-साथ निजी स्कूलों में भी ऑनलाइन पठन-पाठन सफल साबित नहीं हो रहा है. जिससे लाखों विद्यार्थी इस शैक्षणिक वर्ष में पढ़ाई से वंचित हो गए हैं.
कोरोना काल का शिक्षा व्यवस्था पर व्यापक असर
कोरोना काल के दौरान निजी स्कूल पठन-पाठन को लेकर बच्चों तक शत-प्रतिशत स्टडी मैटेरियल पहुंचाने का दावा जरूर कर रहे हैं. लेकिन बच्चे पढ़ नहीं पा रहे हैं. यहां ऐसे भी स्कूल है जो क्लासेस संचालित नहीं कर रहे हैं और अभिभावकों से फीस की मांग कर रहे हैं. ऐसे में अभिभावक फीस देने में असमर्थ हैं. एक आंकड़े के मुताबिक निजी स्कूलों की ओर से 60% बच्चों तक ही ऑनलाइन पठन-पाठन पहुंच रहा है. जिसका लाभ सभी बच्चों को नहीं मिल रहा है. झारखंड में निजी स्कूलों की बात करें तो ICSE और CBSE के अलावा JAC बोर्ड से मान्यता प्राप्त लगभग 19 से 20 हजार के बीच छोटे-बड़े निजी स्कूल संचालित हैं. औसतन इनमें पढ़ने वाले अनुमानित बच्चों की संख्या 80 लाख से 90 लाख के बीच बताया जा रहा है. हालांकि ऐसे कई छोटे निजी स्कूल भी हैं जो बिना मान्यता के ही 8वीं तक की पढ़ाई करवाते हैं. इनमें प्ले स्कूल भी शामिल है. ऐसे स्कूलों की संख्या का अनुमान लगाना भी मुश्किल है. क्योंकि सरकारी तौर पर इसके लिए कोई आंकड़े है ही नहीं. ऐसे 40 फीसदी बच्चे हैं जो ऑनलाइन पठन-पाठन से पूरी तरह वंचित है. नेटवर्क की समस्या के अलावा निजी स्कूलों के बच्चों के अभिभावकों के पास भी स्मार्ट फोन नहीं होने से वह ऑनलाइन क्लासेस नहीं करवा पा रहे हैं और स्कूल प्रबंधकों की ओर से उनसे फीस मांगी जा रही है. इस वजह से कई ऐसे अभिभावक है जो अब तक 6 से 8 महीने की फीस नहीं दे पाए हैं. ऐसे बच्चों का पठन-पाठन पूरी तरह से बंद है और यह बच्चे पढ़ाई से वंचित हो रहे हैं.
झारखंड के निजी स्कूलों की फीस स्ट्रक्चर है हाई
झारखंड के निजी स्कूलों की फीस स्ट्रक्चर की बात करें तो अधिकतर बड़े निजी स्कूलों के फीस स्ट्रक्चर काफी हाई हैं. प्रतिमाह 2 से 3 हजार तक प्रति बच्चे फीस अधिकतर स्कूलों में लिए जाते हैं. कोरोना काल के दौरान देशभर में किए गए सर्वे के अनुसार 70% अभिभावक नौकरी से वंचित हो गए हैं. इसमें झारखंड के अभिभावकों की स्थिति भी ठीक नहीं है और ऐसे ही अभिभावक फीस देने में असमर्थ हैं. लगातार अभिभावकों की ओर से अभी भी फीस माफी को लेकर गुहार लगाए जा रहे हैं. लेकिन इस ओर ना तो शिक्षा विभाग का ध्यान है और ना ही किसी तरीके का पहल ही हो रही है. अभिभावक संघ के अध्यक्ष अजय राय ने इस परेशानी को लेकर एक सुझाव भी दिया है. ताकि ऐसे अभिभावकों को थोड़ी राहत मिले और बच्चों का पठन-पाठन प्रभावित ना हो सके.
आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों का पठन-पाठन पूरी तरह बाधित
वहीं आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के बच्चों की पढ़ाई का सपना भी इस कोरोना काल में चकनाचूर होता दिख रहा है. राइट टू एजुकेशन के तहत प्राइवेट स्कूलों में संचालित ऐसे बच्चों का नामांकन भी सही तरीके से नहीं हो रहा है. इस मामले में सबसे बुरा हाल पूरे राज्य में रांची का है. यहां के प्राइवेट स्कूलों में वर्ष 2019-20 में ही राइट टू एजुकेशन के तहत एडमिशन के लिए प्राप्त आवेदनों में से 89 फीसदी आवेदन रिजेक्ट हो चुके हैं. जबकि इस सत्र में लगभग 75 प्रतिशत सीटें ऐसे बच्चों के लिए अब तक खाली रह गई है और इन सीटों को भरने के लिए ना तो विभाग की ओर से पहल की जा रही है और ना ही स्कूल प्रबंधन की इस ओर कोई ध्यान दिया गया है. RTE के तहत यह प्रावधान है कि प्राइवेट स्कूलों को एक निश्चित संख्या में अपने स्कूलों में आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों का नामांकन लेना है. लेकिन सामने आ रहे आंकड़े चौंकाने वाले हैं, सिर्फ रांची जिला में शैक्षणिक सत्र 2019-20 में आरटीई के तहत कुल 1679 आवेदन मिले थे. इनमें से मात्र 188 छात्रों को ही अब तक एडमिशन मिला है. रांची जिला में राइट टू एजुकेशन के तहत 713 सीटों में 525 सीटें खाली है. ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि आर्थिक रुप से कमजोर तबके के बच्चों के लिए इन स्कूलों में किस तरह खिलवाड़ किया जा रहा है. शिक्षा विभाग के पास तो इसकी पूरी जानकारी भी नहीं है कि आरटीई के तहत अब तक कितने एडमिशन विभिन्न प्राइवेट स्कूलों की ओर से लिए गए हैं. पूरे राज्य के आंकड़े की बात करें तो आरटीई के तहत एडमिशन के लिए 3578 आवेदन लिए गए हैं और इसमें से मात्र 1471 छात्रों को ही एडमिशन दिया गया है. शहर के निजी स्कूलों में पढ़ने वाले प्रवासी कामगारों के बच्चों के नामांकन के मामले में भी निजी स्कूल फिसड्डी ही है. जबकि दावा कुछ और किया गया था. कहा गया था कि ऐसे बच्चों का शत-प्रतिशत नामांकन निजी स्कूलों में होगा. लेकिन इस मामले में निजी स्कूल जीरो है. किसी भी प्रवासी मजदूर का एडमिशन शहर के स्कूलों में नहीं हो सका है और उनके बच्चे पढ़ाई से पूरी तरह से वंचित है.
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स्कूल प्रबंधकों की अपनी मजबूरी
स्कूल प्रबंधकों के पास भी अपनी मजबूरी है. उनका कहना है कि अगर वह फीस नहीं लेंगे तो उनके कर्मचारी शिक्षकों का घर कैसे चलेगा. शिक्षक ऑनलाइन क्लासेस ले रहे हैं और उनको प्रतिमाह सैलरी भी देना है जो कि बेहद जरूरी है. बिना सैलरी के उनका जीविका कैसे चलेगी. इसे लेकर भी चिंता करना समाज के लिए जरूरी है. लेकिन सही मायनों में स्कूलों की ओर से अपने कर्मचारियों और शिक्षकों को वेतन का पूरा पैसा प्रतिमाह नहीं दिया जा रहा है इसमें कटौती की जा रही है इसके बावजूद स्कूल प्रबंधक अपनी रोना रोता रहा है. बड़ी संख्या में अभिभावक स्कूल फीस देने से हिचक रहे हैं और ऐसे अभिभावकों को समझाने में स्कूल प्रबंधक भी नाकाम साबित हो रहा है. कुछ ऐसे भी निजी स्कूल है अभिभावकों की परेशानी समझ रहे हैं और उनके लिए वैकल्पिक व्यवस्था भी कर रही है. आर्थिक रूप से कमजोर अभिभावकों के आवेदन मिलने पर उन्हें इंस्टॉलमेंट के साथ-साथ कुछ हद तक फीस भी माफ कर रहे हैं. लेकिन विशेष परिस्थिति पर ही अवस्था अभिभावकों के लिए लागू है.
सरकार और शिक्षा विभाग को देना होगा ध्यान
एक तरफ जहां अभिभावक बच्चों का पठन-पाठन किसी भी हालत में जारी रखना चाहते हैं तो दूसरी ओर उनके समक्ष कई परेशानियां भी है. अभिभावक फीस भरने में असमर्थ हैं तो आर्थिक रूप से कमजोर अभिभावक निजी स्कूलों की ओर से ऑनलाइन पठन-पाठन के लिए जो व्यवस्था की गई है. उस व्यवस्था के तहत चल नहीं पा रहे हैं. ऐसे में इस कोरोना काल में राज्य के लाखों ऐसे विद्यार्थी हैं जो पठन-पाठन से लगातार वंचित हो रहे हैं. इस ओर सरकार के साथ-साथ विभिन्न निजी स्कूल प्रबंधकों को भी ध्यान देने की जरूरत है.