रांचीः झारखंड में राज्यसभा चुनाव के लिए बजी चुनावी दुंदुभि के बाद राजनीतिक दलों खासतौर से कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा के बीच जिस तरह की नूरा कुश्ती चल रही है. उससे एक बात तो साफ है कि राज्यसभा प्रत्याशी के नाम और समझौते को लेकर जिस तरह की राजनीति शुरू हुई है, वह राजदारी की ऐसी कहानी बनती जा रही है जो कांग्रेस के बताने और झारखंड मुक्ति मोर्चा के छुपाने के बीच की राजसभा हो गई है.
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झारखंड में कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा के गठबंधन की सरकार चल रही है. झारखंड मुक्ति मोर्चा लगातार इस बात को कहती रही है कि मुख्यमंत्री और बड़ी पार्टी होने के नाते निर्णय झारखंड मुक्ति मोर्चा द्वारा ही लिया जाएगा, बिना किसी बैठक और चर्चा के राज्यसभा चुनाव में भी यही फैसला झारखंड मुक्ति मोर्चा की तरफ से ले लिया गया. क्योंकि झारखंड मुक्ति मोर्चा बड़ी पार्टी है और उसके पास विधानसभा में संख्या भी ज्यादा है, राज्यसभा की खाली हो रही सीट पर उसका हक है.
हालांकि इसको लेकर कांग्रेस ने विरोध भी जताया था और कहा था कि गठबंधन के वक्त चीजें तय हुई थीं कि राज्यसभा सीट किसके खाते में जाएगी. इसको लेकर दिल्ली में बैठक होगी, यह सभी जनता के सामने बातें रख दी गईं थीं लेकिन यह तो वह बातें थीं जो राज्यसभा के लिए जनता के सामने रखी गईं थीं लेकिन वह बातें नहीं बताई गईं जो दोनों राजनीतिक दलों की ऐसी राजदारी वाली सभा में थी कि वह बातें राज वाली सभा बनकर रह गईं.
जेएमएम का दांवः 26 मई को झारखंड मुक्ति मोर्चा की तरफ से साफ कर दिया गया था कि झारखंड मुक्ति मोर्चा बड़ी पार्टी है. इसलिए खाली हो रही राज्यसभा सीट पर उसका अधिकार होना चाहिए हालांकि कांग्रेस ने इसका विरोध किया था और कांग्रेस ने कहा था यह सीट कांग्रेस के खाते में जानी चाहिए. गठबंधन धर्म की बात को सभी लोग मानते रहे लेकिन झारखंड की राजनीति में बयानों की नूरा कुश्ती चलती रही.
मामला यहीं नहीं रूका चर्चा यहां तक शुरू हो गई कि निर्वाचन आयोग ने 31 मई को झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को सशरीर उपस्थित होकर ऑफिस आफ प्रॉफिट मामले में जवाब देना है तो उसी के बाद सोनिया से मुलाकात करके राज्यसभा सीट पर फैसले को अंतिम रूप दिया जाएगा लेकिन निर्वाचन आयोग की तरफ से हेमंत सोरेन को 14 जून तक का समय मिल गया तो चर्चा शुरू हो गई कि राज्यसभा सीट पर जल्दी निर्णय हो जाना जरूरी है.
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दबाव से कैसे उबरे हेमंतः 28 मई को हुई झारखंड मुक्ति मोर्चा की राज्य कार्यकारिणी की बैठक में यह निर्णय तो नहीं लिया गया कि झारखंड मुक्ति मोर्चा ही राज्यसभा का उम्मीदवार देगी, लेकिन झारखंड मुक्ति मोर्चा की तरफ से यह बात जरूर साफ कर दी गई था कि राज्यसभा के लिए उम्मीदवार झारखंड मुक्ति मोर्चा का ही होना चाहिए.
अब इस राजदारी पर से पर्दा तब तक नहीं उठता, जब तक दिल्ली में अंतिम निर्णय नहीं हो जाता और इस बात को लेकर के सभी राजनीतिक दल इंतजार कर रहे थे कि झारखंड मुक्ति मोर्चा की तरफ से क्या निर्णय लिया जाता है क्योंकि राजनीतिक गलियारे में चर्चा इस बात की भी थी कि जिस तरीके के राजनीतिक हालात वर्तमान समय में झारखंड में चल रहे हैं. वैसे में झारखंड मुक्ति मोर्चा कांग्रेस के उच्च दबाव में तो जरूर होगी और संभवतः दबाव वाले इसी कार्ड को कांग्रेस खेलना भी चाह रही थी.
29 मई को हेमंत सोरेन दिल्ली गए सोनिया गांधी से उनकी मुलाकात में बात भी हुई लेकिन यह चीजें सामने नहीं आ पाईं कि अंतिम निर्णय क्या हुआ और 30 मई को हेमंत सोरेन ने झारखंड मुक्ति मोर्चा के प्रत्याशी के तौर पर राज्यसभा का उम्मीदवार घोषित कर दिया. अब महुआ माजी 31 मई को अपना नामांकन करेंगी.
क्या होगा परिणामः 30 मई को झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकारी अध्यक्ष और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने जब झारखंड मुक्ति मोर्चा के उम्मीदवार के नाम का ऐलान किया तो उस समय गठबंधन का कोई भी नेता वहां मौजूद नहीं था. बगैर कांग्रेस नेताओं की उपस्थिति में ही झारखंड मुक्ति मोर्चा ने अपने उम्मीदवार के नाम का ऐलान कर दिया जबकि दिल्ली मे यह तय हुआ था कि गठबंधन के उम्मीदवार के नाम का ऐलान गठबंधन के वरिष्ठ नेताओं की उपस्थिति में होगा.
यहां तक की कहानी तो साफ-साफ है लेकिन जो कहानी अभी साफ नहीं हो पा रही है, वह यह कि दिल्ली में जो बातें हुईं झारखंड में लागू क्यों नहीं हो रहीं हैं और झारखंड में जो चीजें लागू हो रहीं हैं, वह कांग्रेस आलाकमान मंजूर क्यों नहीं कर रहा है और दिल्ली-झारखंड में विभेद के तौर पर खड़ा होता जा रहा है उसका परिणाम क्या होगा.
गठबंधन में गांठ न लग जायः झारखंड मुक्ति मोर्चा के नाम के ऐलान के बाद 30 मई को देर शाम सोनिया गांधी ने झारखंड के प्रदेश प्रभारी अविनाश पांडेय को आवास पर बुलाया था और उनसे इस बात को लेकर चर्चा भी हुई कि झारखंड में जो राजनीतिक हालात हैं उस पर किस तरह का निर्णय लिया जाना चाहिए. लेकिन अभी भी वेट एंड वॉच की पोजीशन बनी हुई है लेकिन बड़ा सवाल यही है कि जिस राज को लेकर राजनीति हो रही है.
अगर गठबंधन के दोनों दल मामले को सुलझा नहीं लिए तो विवादों में चल रही राजनीतिक समझौते वाले धागे में ऐसी गांठ लगा देंगी जो शायद झारखंड की राजनीति में कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा के हिसाब से अलग-अलग दिशा ले ले. अब देखने वाली बात यह है कि जिस राजदारी की सभा दोनों राजनीतिक दलों में चल रही है उसका परिणाम क्या होता है और राज्यसभा चुनाव के बाद दिशा कैसी होती है.