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2022 सत्ता की जंग में फेडरल फ्रंट के फाइटर फिस्स..?

यूपी चुनाव 2022 के सातवें चरण के मतदान के साथ राज्यों में 2022 में सत्ता की जंग अगले चरण में पहुंच गई, अब इसका परिणाम ही आना बाकी है. इस बीच राज्यों के क्षत्रपों की महत्वाकांक्षा और सत्ता की चाबी अपने हाथ में रखने की रस्साकशी मजबूत भगवा पार्टी के खिलाफ फेडरल फ्रंट बनाने के आड़े आ गई. इस पर पढ़िए ईटीवी भारत झारखंड के स्टेट हेड भूपेंद्र दुबे का विश्लेषण.

political alliance in india
फेडरल फ्रंट
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Published : Mar 7, 2022, 8:52 PM IST

Updated : Mar 7, 2022, 10:56 PM IST

हैदराबादः देश में 2022 में हो चुके पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में सभी राजनीतिक दलों ने पूरे दमखम के साथ जाने का मन बनाया तो कुछ राजनीतिक दलों की यह मंशा थी कि बीजेपी को रोकने के लिए एक मजबूत फ्रंट तैयार किया जाय. हालांकि तैयारी हर तरफ से हुई लेकिन राजनीतिक महत्वाकांक्षा और राज्य से बाहर नहीं निकल पाए राजनीतिक दल और उनकी ना हो पाई एकजुटता ने इस पर पानी फेर दिया. इसके बाद देश की राजनीति में जो कुछ बचा उसमें सियासत इस बात की शुरू हो गई कि नरेंद्र मोदी की मुखालफत वाला विपक्ष एक फेडरल फ्रंट के रूप में आना तो चाहता है लेकिन वह किस मोर्चे पर एकजुट होगा. इसकी कोई एक लाइन फेडरल फ्रंट के जितने फाइटर हैं वह खींची ही नहीं पाए और यही वजह है कि 2022 में पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में बीजेपी बनाम वह सभी राजनीतिक दल हो गए जो उस राज्य में सत्ता के बड़े दावेदार हैं या फिर राज्य में बीजेपी के विपक्षी हैं.

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2022 में देश के 5 राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में सभी राजनीतिक दल खम ठोक रहे थे, तैयारी इस बात की थी कि जहां भी चुनाव हो रहे हैं पार्टी को मजबूती से खड़ा होना है और इसमें किसी एक पार्टी की बात नहीं थी. बात चाहे नरेंद्र मोदी वाली बीजेपी की हो या फिर ममता बनर्जी वाली तृणमूल कांग्रेस की, मांझी वाली हम की हो या फिर मुकेश साहनी की वीआईपी की, तेजस्वी की राजद की बात हो या हेमंत की झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ ही उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना और अरविंद केजरीवाल की आप. सभी राजनीतिक दलों ने पांच राज्यों में अपनी पूरी हनक और धमक दिखाने की कोशिश की लेकिन 5 राज्यों के मतदान समाप्त हो जाने के बाद अलग-अलग मंच और अलग-अलग मुद्दे को लेकर खड़े राजनीतिक दल फेडरल फ्रंट के किसी एकजुटता को दिशा नहीं दे पाए और यही वजह है कि सभी राज्यों में बीजेपी बनाम एक-एक राजनीतिक दल होकर रह गए

इतिहास गवाह है कि दिल्ली की गद्दी पर वही बैठता है, जिसके लिए बिहार और उत्तर प्रदेश से राजनीतिक सफर आसान हो जाए. नरेंद्र मोदी दिल्ली की गद्दी पर काबिज हैं तो इसकी एक वजह यह है कि बिहार, उत्तर प्रदेश में उनकी हनक और धमक दोनों मजबूत है. दिल्ली में नरेंद्र मोदी को गद्दी पर बैठाने के लिए उत्तर प्रदेश और बिहार ने भरपूर समर्थन दिया. हालांकि उत्तर प्रदेश के चुनाव की जब बारी आई तो नरेंद्र मोदी के साथ चल रहे राजनीतिक दल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को बढ़ाने के लिए चुनावी मैदान में कूदने की कवायद शुरू कर दी, लेकिन बात बहुत आगे बढ़ नहीं पाई.

ये भी पढ़ें-अपने ही सरकार पर विधायक सीता सोरेन ने उठाया सवाल, 1932 के खतियान के आधार पर स्थानीय नीति लागू करने की मांग

यूपी में एनडीएः नीतीश कुमार की पार्टी उत्तर प्रदेश के चुनाव में तो गई लेकिन नीतीश कुमार चुनाव प्रचार करने नहीं गए. यह माना जा रहा था कि नीतीश कुमार की जिन योजनाओं को केंद्र सरकार ने अपने पाले में डाला है, उसमें चाहे हर घर नल का जल का मामला हो या फिर बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ के पहले वाला सिद्धांत, जिसमें साइकिल पोशाक योजना नीतीश कुमार ने शुरू की थी या फिर पूरे देश के पटल पर बिहार से हुई शराबबंदी को नीतीश कुमार भंजाते दिख रहे हैं, वह उत्तर प्रदेश की राजनीति में किसी मंच से नहीं दिखा.

एनडीए के दूसरे सहयोगी हिंदुस्तान अवाम मोर्चा के जीतन राम मांझी भी जाना चाह रहे थे लेकिन यूपी चुनाव में उनकी कोई हालत दिखी नहीं. हां मुकेश साहनी जरूर चुनावी मैदान में हैं लेकिन बहुत बड़ा असर डालने की स्थिति में नहीं है. बहरहाल बिहार से जिसे उत्तर प्रदेश आना था वह एनडीए के खाते का ही था. इसलिए इस पर बहस भी बहुत ज्यादा नहीं हुई.

इधर, तेजस्वी वाली राष्ट्रीय जनता दल उत्तर प्रदेश में इसलिए भी नहीं गई कि राजनीतिक रिश्तेदारी का फर्ज निभाना था. यह समझौता पहले ही हो गया था कि तेजस्वी वाली राष्ट्रीय जनता दल उत्तर प्रदेश के चुनाव में नहीं जाएगी. समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव और उस परिवार से जुड़े लालू यादव के रिश्ते, जिसमें अक्टूबर 2021 में एक पारिवारिक कार्यक्रम में तेजस्वी यादव सैफई गए थे. वहां उन्होंने साफ कर दिया था उत्तर प्रदेश चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल चुनाव नहीं लड़ेगी. लेकिन प्रचार करने राष्ट्रीय जनता दल समाजवादी पार्टी के साथ जरूर खड़ी रहेगी. लेकिन तेजस्वी यादव ना तो चुनाव में दिखे और नहीं चुनाव प्रचार में. यह अलग बात है कि तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव के साथ मीटिंग का एक दौर जरूर चला है जो 2029 के लिए बनने वाले एक नए समीकरण की तरफ इशारा कर रहा है.

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ममता बनर्जी की कोशिशः 2021 के पश्चिम बंगाल के चुनाव में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी, हेमंत सोरेन की झारखंड मुक्ति मोर्चा तेजस्वी यादव की राष्ट्रीय जनता दल और केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ममता बनर्जी के पक्ष में खड़े हो गए थे. पश्चिम बंगाल आने और ममता के पक्ष में अपना चुनाव प्रचार करने की बात कही थी, हालांकि ममता बनर्जी ने सभी राजनीतिक दलों को धन्यवाद देते हुए कह दिया था कि आप लोग हमारे साथ खड़े हुए इसके लिए बहुत-बहुत बधाई. लेकिन उत्तर प्रदेश के चुनाव में ममता बनर्जी दो बार आईं और दोनों बाद समाजवादी पार्टी ने उसे बुलाया था. मामला साफ है कि हर राजनीतिक दल यह बताने की कोशिश कर रहा है. इन नरेंद्र मोदी की राजनीति के आगे खड़ा होने के लिए जिस बड़े नेतृत्व की जरूरत है, वह उसका नाम है और वही नरेंद्र मोदी की मुखालफत का सबसे बड़ा काम कर सकता है.

अखिलेश यादव के लिए चुनाव प्रचार में आने की चर्चा शुरुआत में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की भी था लेकिन अंतिम समय तक उनका कार्यक्रम उत्तर प्रदेश के किसी प्रचार में लगा ही नहीं. मामला साफ था कि अखिलेश यादव ने जो लिस्ट जारी की, उसमें कहीं हेमंत सोरेन थे ही नहीं. उसके पीछे की वजह कही जा रही थी कि झारखंड में चलने वाली सरकार हेमंत सोरेन कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल की है. ऐसे में तेजस्वी यादव हेमंत सोरेन को इस बात के लिए मना ले जाएंगे कि अखिलेश यादव के पक्ष में प्रचार करना चाहिए लेकिन विपक्ष वाली सियासत भी यहां खड़ी थी. अगर अखिलेश यादव के लिए प्रचार करने के लिए हेमंत सोरेन जाते तो झारखंड में चल रही हेमंत सोरेन की सरकार जो कांग्रेस के सहयोग से है संभवत खतरे में आ जाती और यही वजह है कि हेमंत सोरेन प्रचार में नहीं जा सके.

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क्या है यूपी में आप का हालः सोनभद्र में किसानों के साथ हुई बात या फिर उन्नाव गैंगरेप या फिर उत्तर प्रदेश की राजनीति में जिस तरीके से आम आदमी पार्टी ने अपनी हनक दिखाई थी. माना जा रहा था कि आम आदमी पार्टी उत्तर प्रदेश में एक मजबूत आधार लेकर खड़ी होगी. आप नेता संजय सिंह सड़क से लेकर सदन तक लड़ते दिखे थे लेकिन चुनाव में जब आम आदमी पार्टी के वजूद की बात आई तो आम आदमी के मुखिया अरविंद केजरीवाल उत्तर प्रदेश के चुनाव में दिखे ही नहीं और उनका प्रचार पंजाब में सिमटकर रह गया. उत्तर प्रदेश में बहुत उनका प्रचार नहीं दिखा. इससे पहले वे उत्तर प्रदेश में अपनी राजनीतिक हैसियत दिखाने के लिए 2014 में बनारस से लोकसभा चुनाव नरेंद्र मोदी की मुखालफत में लड़ गए थे. यह अलग बात है कि मुश्किलें बहुत सारी उनको झेलनी पड़ी, जनता का जनमत मिला ही नहीं. हौसला भले उनका था कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में जाएंगे लेकिन चुनाव लड़ने की स्थिति में आम आदमी पार्टी आ ही नहीं पाई.

ओवैसी की बात की जाए तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उन्होंने काफी मेहनत की. उन्होंने कोशिश की कि उत्तर प्रदेश में अपने राजनीतिक दल को मजबूत किया जाए और एक खास वोट बैंक के भरोसे सियासत में कड़ी टक्कर दी जाए. लेकिन उत्तर प्रदेश ने जिस तरीके का जवाब ओवैसी को दिया, उसमें उन्हें साफ हो गया कि सिर्फ धार्मिक आधार का कार्ड, यहां खेल पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है और खास तौर से अल्पसंख्यक कार्ड उत्तर प्रदेश में चलेगा ही नहीं.

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शिवसेना का दांवः शिवसेना भी उत्तर प्रदेश में 1 सीट पर चुनाव लड़ने के लिए उतरी तो आदित्य ठाकरे चुनाव प्रचार के लिए आए हालांकि पिछले कई सालों से शिवसेना का कोई बड़ा वजूद उत्तर प्रदेश में न रहा, न बिहार में न तो पंजाब में. गोवा में कुछ अलग हाल भले हो लेकिन यहां फिलहाल बहुत ज्यादा कुछ दिखता नहीं है. हां शिवसेना के जब मुखिया बाला साहब ठाकरे हुआ करते थे तो फैजाबाद जिले के अकबरपुर विधानसभा सीट से कभी पवन पांडे ने शिवसेना की सीट से जीत दर्ज की थी लेकिन उसके बाद उत्तर प्रदेश में शिवसेना का खाता भी नहीं खुला. इस बार आदित्य ठाकरे ने एक राजनीतिक समीकरण खड़ा करने की कोशिश जरूर की है लेकिन वह मजबूत कितना हो पाएगा यह कहना मुश्किल है.

2022 में पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में सभी राजनीतिक दल इस आधार को लेकर उतर रहे थे कि उत्तर प्रदेश में जाति सियासत की जुगलबंदी है. उसमें उनकी पार्टी का कुछ न कुछ फायदा हो जाएगा लेकिन जातीय आधार पर चुनाव लड़ने वाले राजनीतिक दलों का हश्र बड़ा खराब होगा, अब यह सभी राजनीतिक दलों को पता चल ही गया है और उनकी समझ उन्हें यह सोचने के लिए भी मजबूर कर रही है कि मंडल कमीशन के बाद भरे क्षेत्रीय दल बहुत मजबूत हुए थे लेकिन 2014 के बाद इन राजनीतिक दलों को अपने राजनीतिक वजूद को बचाने के लिए मुद्दे और विकास की सियासत के तरफ तो लौट आना ही पड़ा. क्योंकि जिस ओबीसी वोट बैंक पर कब्जे की बात होती थी और इस वोट बैंक के सहारे हुकूमत की चाबी ऐसे राजनीतिक दलों के पास आ जाती थी, वह अब उनके हाथ से दूर जाती दिख रही है. पूरे भारत में ओबीसी वोट बैंक पर बीजेपी ने बढ़त के साथ कब्जा जमा लिया है और यह हर बार के चुनाव में अब साबित होने लगा है.

ये भी पढ़ें-झारखंड में स्थानीय नीति की मांग को लेकर सदन के बाहर आजसू का प्रदर्शन, कहा- जनता की आवाज दबा रही सरकार

ओबीसी वोट की दावेदारीः ओबीसी वोट बैंक पर बीजेपी की बात करें तो पूरे देश में 2019 के लोक नीति के आंकड़े और सीएसडीएस के राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन को अगर आधार मान लिया जाए तो बिहार में भाजपा को ओबीसी का 26 फीसदी वोट मिला था जबकि राष्ट्रीय जनता दल को 11 और जनता दल (यू) को 25 फीसदी वोट मिले थे. बात उत्तर प्रदेश की करें तो 61 फीसदी वोट ओबीसी का बीजेपी को मिला था जबकि समाजवादी पार्टी को महज 14 फीसदी वोट, बहुजन समाज पार्टी को 15 फीसदी वोट मिले थे. पश्चिम बंगाल में 68 फीसदी वोट ओबीसी का बीजेपी को मिला था जबकि टीएमसी को 27 फीसदी वोट मिले थे. बात तेलंगाना की करें तो 23 फीसदी ओबीसी का वोट बीजेपी को मिला था जबकि टीआरएस को 42 फीसदी वोट मिले थे.

आंध्र प्रदेश में बीजेपी के आंकड़े नहीं मिल पाए लेकिन टीडीपी को 46.68 फीसदी वोट और वाईएसआर कांग्रेस को 34.68 फीसदी वोट ओबीसी के मिले थे, वहीं कर्नाटक की बात करें तो बीजेपी को कुल वोट का 50 फीसदी ओबीसी वोट मिला था जबकि जेडीएस को महज 13 फीसदी वोट मिले थे. ओडिशा में 40 फीसदी वोट ओबीसी का बीजेपी को मिला था जबकि बीजू जनता दल को से 40 फ़ीसदी वोट ही मिले थे.

कुल मिलाकर राष्ट्रीय फलक पर बीजेपी के बढ़ते कदम को देख लिया जाए तो ओबीसी वोट बैंक पर बीजेपी ने दखल किया है और यही क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के वोट बैंक पर सबसे बड़ी चोट है. अब 2022 के चुनाव परिणामों में बीजेपी के हिस्से में पांच राज्यों में क्या आता है यह तो आगे बात होगी क्योंकि पूरे देश में बीजेपी अकेले सभी राजनीतिक दलों के विरोध के साथ लड़ रही है, लेकिन बीजेपी के विरोध के लिए सभी राजनीतिक दल एक मंच पर नहीं आ पाए या 2022 के पांच राज्यों के चुनाव में भी साबित हो गया.

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मोदी के खिलाफ कौनः फेडरल फंड की जिस तैयारी को लेकर के 2015 में नरेंद्र मोदी की मुखालफत में नीतीश कुमार निकले थे. वह 2017 तक आते-आते दम तोड़ गई और नीतीश कुमार फिर एनडीए के खाते में आ गए. ममता बनर्जी ने भी अपने तरीके से नरेंद्र मोदी और उनकी बीजेपी की मुखालफत के लिए फ्रंट की बात जरूर की थी लेकिन उसमें बहुत बात बनी नहीं. तेलंगाना से केसीआर ने शुरुआत की है और उत्तर प्रदेश के छठे चरण के बाद झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन बिहार के तेजस्वी यादव उत्तर प्रदेश के अखिलेश यादव महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे शरद पवार शरद यादव से भी मुलाकात की है और उन तमाम लोगों से चर्चा जरूर शुरू हुई कि देश में राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी की मुखालफत के लिए एक मंच होना चाहिए लेकिन झारखंड में आकर के केसीआर ने यहां नकार दिया.

बीजेपी को मिली राहतः फेडरल फ्रंट जिसकी चर्चा शुरू हुई थी उसे केसीआर ने नकार दिया और कहा कि थर्ड फ्रंट और फोर्थ फ्रंट जैसा कुछ नहीं बन रहा है, वैसे केसीआर ने यह जरूर कहा कि एक चर्चा जरूर हो रही है कि बीजेपी को रोकने के लिए एक मजबूत विपक्ष देश के स्तर पर खड़ा हो. अब यह बीजेपी के लिए राहत की बात जरूर है कि पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में विपक्ष एकजुट नहीं हो पाया. 2022 में और जहां चुनाव होने हैं, वहां की एकजुटता भी सवालों में है. अब 2023 में 3 राज्य राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं. ऐसे में अगर किसी रूप में कोई फ्रंट सामने आता है तो बीजेपी के लिए तैयारी और मजबूत इसलिए भी करनी होगी कि 2022 और 2023 के बाद 2024 में इस दंगल में उसे उतरना है. अब बीजेपी इस बात के मंथन में है कि बीजेपी और मुखालफत के लिए कोई फ्रंट होगा या फिर बीजेपी बनाम राज्य की राजनीति होगी. हालांकि बीजेपी के आगे की सियासत के लिए साफ हो गया है कि 2022 में भी जो भी फेडरल फ्रंट के सिपाही थे एक मंच पर एक साथ खड़े नहीं हो पाए. जो बीजेपी की आगे की रणनीति के लिए बहुत बड़ी सियासी राहत है.

हैदराबादः देश में 2022 में हो चुके पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में सभी राजनीतिक दलों ने पूरे दमखम के साथ जाने का मन बनाया तो कुछ राजनीतिक दलों की यह मंशा थी कि बीजेपी को रोकने के लिए एक मजबूत फ्रंट तैयार किया जाय. हालांकि तैयारी हर तरफ से हुई लेकिन राजनीतिक महत्वाकांक्षा और राज्य से बाहर नहीं निकल पाए राजनीतिक दल और उनकी ना हो पाई एकजुटता ने इस पर पानी फेर दिया. इसके बाद देश की राजनीति में जो कुछ बचा उसमें सियासत इस बात की शुरू हो गई कि नरेंद्र मोदी की मुखालफत वाला विपक्ष एक फेडरल फ्रंट के रूप में आना तो चाहता है लेकिन वह किस मोर्चे पर एकजुट होगा. इसकी कोई एक लाइन फेडरल फ्रंट के जितने फाइटर हैं वह खींची ही नहीं पाए और यही वजह है कि 2022 में पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में बीजेपी बनाम वह सभी राजनीतिक दल हो गए जो उस राज्य में सत्ता के बड़े दावेदार हैं या फिर राज्य में बीजेपी के विपक्षी हैं.

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2022 में देश के 5 राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में सभी राजनीतिक दल खम ठोक रहे थे, तैयारी इस बात की थी कि जहां भी चुनाव हो रहे हैं पार्टी को मजबूती से खड़ा होना है और इसमें किसी एक पार्टी की बात नहीं थी. बात चाहे नरेंद्र मोदी वाली बीजेपी की हो या फिर ममता बनर्जी वाली तृणमूल कांग्रेस की, मांझी वाली हम की हो या फिर मुकेश साहनी की वीआईपी की, तेजस्वी की राजद की बात हो या हेमंत की झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ ही उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना और अरविंद केजरीवाल की आप. सभी राजनीतिक दलों ने पांच राज्यों में अपनी पूरी हनक और धमक दिखाने की कोशिश की लेकिन 5 राज्यों के मतदान समाप्त हो जाने के बाद अलग-अलग मंच और अलग-अलग मुद्दे को लेकर खड़े राजनीतिक दल फेडरल फ्रंट के किसी एकजुटता को दिशा नहीं दे पाए और यही वजह है कि सभी राज्यों में बीजेपी बनाम एक-एक राजनीतिक दल होकर रह गए

इतिहास गवाह है कि दिल्ली की गद्दी पर वही बैठता है, जिसके लिए बिहार और उत्तर प्रदेश से राजनीतिक सफर आसान हो जाए. नरेंद्र मोदी दिल्ली की गद्दी पर काबिज हैं तो इसकी एक वजह यह है कि बिहार, उत्तर प्रदेश में उनकी हनक और धमक दोनों मजबूत है. दिल्ली में नरेंद्र मोदी को गद्दी पर बैठाने के लिए उत्तर प्रदेश और बिहार ने भरपूर समर्थन दिया. हालांकि उत्तर प्रदेश के चुनाव की जब बारी आई तो नरेंद्र मोदी के साथ चल रहे राजनीतिक दल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को बढ़ाने के लिए चुनावी मैदान में कूदने की कवायद शुरू कर दी, लेकिन बात बहुत आगे बढ़ नहीं पाई.

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यूपी में एनडीएः नीतीश कुमार की पार्टी उत्तर प्रदेश के चुनाव में तो गई लेकिन नीतीश कुमार चुनाव प्रचार करने नहीं गए. यह माना जा रहा था कि नीतीश कुमार की जिन योजनाओं को केंद्र सरकार ने अपने पाले में डाला है, उसमें चाहे हर घर नल का जल का मामला हो या फिर बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ के पहले वाला सिद्धांत, जिसमें साइकिल पोशाक योजना नीतीश कुमार ने शुरू की थी या फिर पूरे देश के पटल पर बिहार से हुई शराबबंदी को नीतीश कुमार भंजाते दिख रहे हैं, वह उत्तर प्रदेश की राजनीति में किसी मंच से नहीं दिखा.

एनडीए के दूसरे सहयोगी हिंदुस्तान अवाम मोर्चा के जीतन राम मांझी भी जाना चाह रहे थे लेकिन यूपी चुनाव में उनकी कोई हालत दिखी नहीं. हां मुकेश साहनी जरूर चुनावी मैदान में हैं लेकिन बहुत बड़ा असर डालने की स्थिति में नहीं है. बहरहाल बिहार से जिसे उत्तर प्रदेश आना था वह एनडीए के खाते का ही था. इसलिए इस पर बहस भी बहुत ज्यादा नहीं हुई.

इधर, तेजस्वी वाली राष्ट्रीय जनता दल उत्तर प्रदेश में इसलिए भी नहीं गई कि राजनीतिक रिश्तेदारी का फर्ज निभाना था. यह समझौता पहले ही हो गया था कि तेजस्वी वाली राष्ट्रीय जनता दल उत्तर प्रदेश के चुनाव में नहीं जाएगी. समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव और उस परिवार से जुड़े लालू यादव के रिश्ते, जिसमें अक्टूबर 2021 में एक पारिवारिक कार्यक्रम में तेजस्वी यादव सैफई गए थे. वहां उन्होंने साफ कर दिया था उत्तर प्रदेश चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल चुनाव नहीं लड़ेगी. लेकिन प्रचार करने राष्ट्रीय जनता दल समाजवादी पार्टी के साथ जरूर खड़ी रहेगी. लेकिन तेजस्वी यादव ना तो चुनाव में दिखे और नहीं चुनाव प्रचार में. यह अलग बात है कि तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव के साथ मीटिंग का एक दौर जरूर चला है जो 2029 के लिए बनने वाले एक नए समीकरण की तरफ इशारा कर रहा है.

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ममता बनर्जी की कोशिशः 2021 के पश्चिम बंगाल के चुनाव में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी, हेमंत सोरेन की झारखंड मुक्ति मोर्चा तेजस्वी यादव की राष्ट्रीय जनता दल और केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ममता बनर्जी के पक्ष में खड़े हो गए थे. पश्चिम बंगाल आने और ममता के पक्ष में अपना चुनाव प्रचार करने की बात कही थी, हालांकि ममता बनर्जी ने सभी राजनीतिक दलों को धन्यवाद देते हुए कह दिया था कि आप लोग हमारे साथ खड़े हुए इसके लिए बहुत-बहुत बधाई. लेकिन उत्तर प्रदेश के चुनाव में ममता बनर्जी दो बार आईं और दोनों बाद समाजवादी पार्टी ने उसे बुलाया था. मामला साफ है कि हर राजनीतिक दल यह बताने की कोशिश कर रहा है. इन नरेंद्र मोदी की राजनीति के आगे खड़ा होने के लिए जिस बड़े नेतृत्व की जरूरत है, वह उसका नाम है और वही नरेंद्र मोदी की मुखालफत का सबसे बड़ा काम कर सकता है.

अखिलेश यादव के लिए चुनाव प्रचार में आने की चर्चा शुरुआत में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की भी था लेकिन अंतिम समय तक उनका कार्यक्रम उत्तर प्रदेश के किसी प्रचार में लगा ही नहीं. मामला साफ था कि अखिलेश यादव ने जो लिस्ट जारी की, उसमें कहीं हेमंत सोरेन थे ही नहीं. उसके पीछे की वजह कही जा रही थी कि झारखंड में चलने वाली सरकार हेमंत सोरेन कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल की है. ऐसे में तेजस्वी यादव हेमंत सोरेन को इस बात के लिए मना ले जाएंगे कि अखिलेश यादव के पक्ष में प्रचार करना चाहिए लेकिन विपक्ष वाली सियासत भी यहां खड़ी थी. अगर अखिलेश यादव के लिए प्रचार करने के लिए हेमंत सोरेन जाते तो झारखंड में चल रही हेमंत सोरेन की सरकार जो कांग्रेस के सहयोग से है संभवत खतरे में आ जाती और यही वजह है कि हेमंत सोरेन प्रचार में नहीं जा सके.

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क्या है यूपी में आप का हालः सोनभद्र में किसानों के साथ हुई बात या फिर उन्नाव गैंगरेप या फिर उत्तर प्रदेश की राजनीति में जिस तरीके से आम आदमी पार्टी ने अपनी हनक दिखाई थी. माना जा रहा था कि आम आदमी पार्टी उत्तर प्रदेश में एक मजबूत आधार लेकर खड़ी होगी. आप नेता संजय सिंह सड़क से लेकर सदन तक लड़ते दिखे थे लेकिन चुनाव में जब आम आदमी पार्टी के वजूद की बात आई तो आम आदमी के मुखिया अरविंद केजरीवाल उत्तर प्रदेश के चुनाव में दिखे ही नहीं और उनका प्रचार पंजाब में सिमटकर रह गया. उत्तर प्रदेश में बहुत उनका प्रचार नहीं दिखा. इससे पहले वे उत्तर प्रदेश में अपनी राजनीतिक हैसियत दिखाने के लिए 2014 में बनारस से लोकसभा चुनाव नरेंद्र मोदी की मुखालफत में लड़ गए थे. यह अलग बात है कि मुश्किलें बहुत सारी उनको झेलनी पड़ी, जनता का जनमत मिला ही नहीं. हौसला भले उनका था कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में जाएंगे लेकिन चुनाव लड़ने की स्थिति में आम आदमी पार्टी आ ही नहीं पाई.

ओवैसी की बात की जाए तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उन्होंने काफी मेहनत की. उन्होंने कोशिश की कि उत्तर प्रदेश में अपने राजनीतिक दल को मजबूत किया जाए और एक खास वोट बैंक के भरोसे सियासत में कड़ी टक्कर दी जाए. लेकिन उत्तर प्रदेश ने जिस तरीके का जवाब ओवैसी को दिया, उसमें उन्हें साफ हो गया कि सिर्फ धार्मिक आधार का कार्ड, यहां खेल पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है और खास तौर से अल्पसंख्यक कार्ड उत्तर प्रदेश में चलेगा ही नहीं.

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शिवसेना का दांवः शिवसेना भी उत्तर प्रदेश में 1 सीट पर चुनाव लड़ने के लिए उतरी तो आदित्य ठाकरे चुनाव प्रचार के लिए आए हालांकि पिछले कई सालों से शिवसेना का कोई बड़ा वजूद उत्तर प्रदेश में न रहा, न बिहार में न तो पंजाब में. गोवा में कुछ अलग हाल भले हो लेकिन यहां फिलहाल बहुत ज्यादा कुछ दिखता नहीं है. हां शिवसेना के जब मुखिया बाला साहब ठाकरे हुआ करते थे तो फैजाबाद जिले के अकबरपुर विधानसभा सीट से कभी पवन पांडे ने शिवसेना की सीट से जीत दर्ज की थी लेकिन उसके बाद उत्तर प्रदेश में शिवसेना का खाता भी नहीं खुला. इस बार आदित्य ठाकरे ने एक राजनीतिक समीकरण खड़ा करने की कोशिश जरूर की है लेकिन वह मजबूत कितना हो पाएगा यह कहना मुश्किल है.

2022 में पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में सभी राजनीतिक दल इस आधार को लेकर उतर रहे थे कि उत्तर प्रदेश में जाति सियासत की जुगलबंदी है. उसमें उनकी पार्टी का कुछ न कुछ फायदा हो जाएगा लेकिन जातीय आधार पर चुनाव लड़ने वाले राजनीतिक दलों का हश्र बड़ा खराब होगा, अब यह सभी राजनीतिक दलों को पता चल ही गया है और उनकी समझ उन्हें यह सोचने के लिए भी मजबूर कर रही है कि मंडल कमीशन के बाद भरे क्षेत्रीय दल बहुत मजबूत हुए थे लेकिन 2014 के बाद इन राजनीतिक दलों को अपने राजनीतिक वजूद को बचाने के लिए मुद्दे और विकास की सियासत के तरफ तो लौट आना ही पड़ा. क्योंकि जिस ओबीसी वोट बैंक पर कब्जे की बात होती थी और इस वोट बैंक के सहारे हुकूमत की चाबी ऐसे राजनीतिक दलों के पास आ जाती थी, वह अब उनके हाथ से दूर जाती दिख रही है. पूरे भारत में ओबीसी वोट बैंक पर बीजेपी ने बढ़त के साथ कब्जा जमा लिया है और यह हर बार के चुनाव में अब साबित होने लगा है.

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ओबीसी वोट की दावेदारीः ओबीसी वोट बैंक पर बीजेपी की बात करें तो पूरे देश में 2019 के लोक नीति के आंकड़े और सीएसडीएस के राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन को अगर आधार मान लिया जाए तो बिहार में भाजपा को ओबीसी का 26 फीसदी वोट मिला था जबकि राष्ट्रीय जनता दल को 11 और जनता दल (यू) को 25 फीसदी वोट मिले थे. बात उत्तर प्रदेश की करें तो 61 फीसदी वोट ओबीसी का बीजेपी को मिला था जबकि समाजवादी पार्टी को महज 14 फीसदी वोट, बहुजन समाज पार्टी को 15 फीसदी वोट मिले थे. पश्चिम बंगाल में 68 फीसदी वोट ओबीसी का बीजेपी को मिला था जबकि टीएमसी को 27 फीसदी वोट मिले थे. बात तेलंगाना की करें तो 23 फीसदी ओबीसी का वोट बीजेपी को मिला था जबकि टीआरएस को 42 फीसदी वोट मिले थे.

आंध्र प्रदेश में बीजेपी के आंकड़े नहीं मिल पाए लेकिन टीडीपी को 46.68 फीसदी वोट और वाईएसआर कांग्रेस को 34.68 फीसदी वोट ओबीसी के मिले थे, वहीं कर्नाटक की बात करें तो बीजेपी को कुल वोट का 50 फीसदी ओबीसी वोट मिला था जबकि जेडीएस को महज 13 फीसदी वोट मिले थे. ओडिशा में 40 फीसदी वोट ओबीसी का बीजेपी को मिला था जबकि बीजू जनता दल को से 40 फ़ीसदी वोट ही मिले थे.

कुल मिलाकर राष्ट्रीय फलक पर बीजेपी के बढ़ते कदम को देख लिया जाए तो ओबीसी वोट बैंक पर बीजेपी ने दखल किया है और यही क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के वोट बैंक पर सबसे बड़ी चोट है. अब 2022 के चुनाव परिणामों में बीजेपी के हिस्से में पांच राज्यों में क्या आता है यह तो आगे बात होगी क्योंकि पूरे देश में बीजेपी अकेले सभी राजनीतिक दलों के विरोध के साथ लड़ रही है, लेकिन बीजेपी के विरोध के लिए सभी राजनीतिक दल एक मंच पर नहीं आ पाए या 2022 के पांच राज्यों के चुनाव में भी साबित हो गया.

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मोदी के खिलाफ कौनः फेडरल फंड की जिस तैयारी को लेकर के 2015 में नरेंद्र मोदी की मुखालफत में नीतीश कुमार निकले थे. वह 2017 तक आते-आते दम तोड़ गई और नीतीश कुमार फिर एनडीए के खाते में आ गए. ममता बनर्जी ने भी अपने तरीके से नरेंद्र मोदी और उनकी बीजेपी की मुखालफत के लिए फ्रंट की बात जरूर की थी लेकिन उसमें बहुत बात बनी नहीं. तेलंगाना से केसीआर ने शुरुआत की है और उत्तर प्रदेश के छठे चरण के बाद झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन बिहार के तेजस्वी यादव उत्तर प्रदेश के अखिलेश यादव महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे शरद पवार शरद यादव से भी मुलाकात की है और उन तमाम लोगों से चर्चा जरूर शुरू हुई कि देश में राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी की मुखालफत के लिए एक मंच होना चाहिए लेकिन झारखंड में आकर के केसीआर ने यहां नकार दिया.

बीजेपी को मिली राहतः फेडरल फ्रंट जिसकी चर्चा शुरू हुई थी उसे केसीआर ने नकार दिया और कहा कि थर्ड फ्रंट और फोर्थ फ्रंट जैसा कुछ नहीं बन रहा है, वैसे केसीआर ने यह जरूर कहा कि एक चर्चा जरूर हो रही है कि बीजेपी को रोकने के लिए एक मजबूत विपक्ष देश के स्तर पर खड़ा हो. अब यह बीजेपी के लिए राहत की बात जरूर है कि पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में विपक्ष एकजुट नहीं हो पाया. 2022 में और जहां चुनाव होने हैं, वहां की एकजुटता भी सवालों में है. अब 2023 में 3 राज्य राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं. ऐसे में अगर किसी रूप में कोई फ्रंट सामने आता है तो बीजेपी के लिए तैयारी और मजबूत इसलिए भी करनी होगी कि 2022 और 2023 के बाद 2024 में इस दंगल में उसे उतरना है. अब बीजेपी इस बात के मंथन में है कि बीजेपी और मुखालफत के लिए कोई फ्रंट होगा या फिर बीजेपी बनाम राज्य की राजनीति होगी. हालांकि बीजेपी के आगे की सियासत के लिए साफ हो गया है कि 2022 में भी जो भी फेडरल फ्रंट के सिपाही थे एक मंच पर एक साथ खड़े नहीं हो पाए. जो बीजेपी की आगे की रणनीति के लिए बहुत बड़ी सियासी राहत है.

Last Updated : Mar 7, 2022, 10:56 PM IST
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