रांची: हेमंत सरकार के 100 दिन पूरे हो चुके हैं. इतने दिनों में हेमंत सरकार ने कई बड़े फैसले लिए हैं, लेकिन चाईबासा नरसंहार, लोहरदगा में दंगा, कथित भूख से मौत और स्थानीय नीति जैसे कुछ मुद्दों को लेकर विवाद की स्थिति भी उत्पन्न हो गई है.
चाईबासा नरसंहार
19 जनवरी 2020 को पश्चिमी सिंहभूम जिले के गुदड़ी ब्लॉक के बुरुगुलिकेरा में 7 लोगों की सामूहिक हत्या बाद पूरे प्रदेश में सनसनी फैल गई. हत्या के पीछे पत्थलगड़ी विवाद बताया जाने लगा. पत्थलगड़ी समर्थक और विरोधियों के बीच विवाद के कारण ये हत्या हुई ऐसा कहा जाने लगा, जिसके बाद राजनीति भी जमकर हुई. बीजेपी की टीम को घटनास्थल पर जाने से रोका गया. विरोधी इस घटना को हेमंत सरकार के फैसले से भी जोड़ने लगे. सत्ता पक्ष और विपक्ष सभी दलों के नेताओं ने इस घटना की पार्टी स्तर से जांच की और रिपोर्ट भी पार्टी के विचारधारा के मुताबिक ही निकला. हालांकि सरकार की ओर इस मामले में जांच चल रही है और कई लोग गिरफ्तार भी हुए.
गौरतबल है कि इससे पहले हेमंत सरकार ने कैबिनेट की पहली बैठक में ही 29 दिसंबर 2019 को पत्थलगड़ी आंदोलन के दौरान जिन पर मुकदमा हुआ या फिर जिन्हें गिरफ्तार किया गया, उनपर से केस वापस लेने और उन्हें रिहा करने का फैसला लिया था. इस फैसले के तहत 172 लोगों पर से राजद्रोह के मुकदमे को वापस लिया था, जिसे लेकर विपक्ष ने जोरदार हंगामा किया था.
क्या है पत्थलगड़ी विवाद
वैसे तो पत्थलगड़ी आदिवासियों की पुरानी परंपरा है, लेकिन पिछले कुछ सालों से झारखंड के कई इलाकों में पत्थलगड़ी के नाम पर आंदोलन किया जा रहा है. पिछली सरकार के दौरान सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के बाद राज्य के खूंटी, सरायकेला और पश्चिमी सिंहभूम जिले के कई इलाकों में आदिवासी समाज के लोगों ने अपने क्षेत्रों में पत्थलगड़ी करके सरकार के नुमाइंदों को इलाके में प्रवेश बंद करने का ऐलान कर दिया. कई जगहों पर पुलिस और प्रशासन के लोगों को बंधक भी बना लिया गया.
खूंटी में सामूहिक दुष्कर्म
खूंटी में एक साथ कई लड़कियों के साथ दुष्कर्म की घटना भी सामने आई जिसमें भी पत्थलगड़ी समर्थक के नाम होने की बात कही गई, साथ ही तत्कालीन सांसद करिया मुंडा के बॉडीगार्ड से भी उनके हथियार छीन लिया गया. इस घटना में भी पत्थलगड़ी समर्थकों के हाथ होने की बात सामने आई. पिछली सरकार के कार्यकाल में पत्थलगड़ी की घटनाओं में कई लोगों को गिरफ्तार किया गया और कई के खिलाफ मुकदमा दर्ज भी किया गया. तत्कालीन सरकार के इस रवैये से आदिवासियों का बड़ा वर्ग नाराज हो गया.
लोहरदगा विवाद
सीएए को लेकर पिछले कई दिनों से देश भर में आंदोलन चर रहा है. कहीं पर लोग इसके विरोध में आंदोलन कर रहे हैं तो कहीं पर इसके पक्ष में आंदोलन कर रहे हैं. लोहरदगा में इसे लेकर एक पक्ष रैली निकाल रहा था उसी दौरान दूसरे पक्ष ने उनपर हमला कर दिया, जिसके बाद मामला बहुत तनापूर्ण हो गया. हालात को काबू करने में पुलिस के पसीने छूट गए. कई दिनों तक जिले में कर्फ्यू लगाना पड़ा. इस घटना में एक व्यक्ति की मौत भी हो गई. लोहरदगा की घटना को लेकर विपक्ष की ओर से सरकार पर कई आरोप लगाए गए.
स्थानीय नीति
झारखंड में स्थानीय नीति का मामला हमेशा से हावी रहा है. यह मामला 2003 से ही चलता आ रहा है. पूर्व की रघुवर दास सरकार ने 18 अप्रैल 2016 को इसपर फैसला लेते हुए 1985 को आधार मानते हुए स्थानीयता को परिभाषित कर दिया था जिसपर काफी विवाद हुआ था. 2019 विधानसभा चुनाव के दौरान जेएमएम ने कई बार स्थानीय नीति को फिर से परिभाषित करने का वादा किया था. सरकार बनने के बाद जेएमएम सुप्रीम शिबू सोरेन इसे लेकर सार्वजनिक तौर पर बदलाव की बात स्वीकार कर चुके हैं, हेमंत भी कई मौके पर स्थानीय नीति को फिर से परिभाषित करने की बात कही है. जेएमएम 1932 के खतियान को आधार बनाकर स्थानीय नीति बनाने की बात कर रहा है. 1932 के खतियान को ध्यान में रखकर स्थानीय नीति बनाने पर ना सिर्फ बीजेपी, आजसू बल्कि सरकार में शामिल कांग्रेस को भी परेशानी होगी. आपको बता दें कि स्थानीय नीति को लेकर झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी को सत्ता गंवानी पड़ी थी.
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भूख से मौत पर राजनीति
भूख से मौत को लेकर राज्य में पिछले कई सालों से राजनीति जारी है. जेएमएम और कांग्रेस जब विपक्ष में थी तो कथित भूख से मौत को लेकर जमकर राजनीतिक रोटियां सेंकी, लेकिन जब सत्ता में आई तो विधानसभा में एक सवाल के जवाब में कहा कि राज्य में भूख से एक भी मौत नहीं हुई है. जेएमएम सरकार के इस जवाब से उसकी बहुत किरकिरी हुई. क्योंकि चुनाव प्रचार के दौरान हेमंत सोरेन भूख से मौत का जिक्र बड़े ही आक्रामकता से करते रहे. पिछले दिनों भी बोकारो में कथित भूख से मौत का मामला सामने आया जिसे लेकर विधानसभा में भी विपक्ष ने सरकार को घेरा. झारखंड में वर्ष 2016 से अबतक 23 लोगों की कथित भूख से मौत हो गई है, जिसमें 14 आदिवासी 6 दलित और 3 ओबीसी है.
43 लाख आदिवासी गरीब
झारखंड खनिज सम्पदाओं से धनी राज्य है. बावजूद इसके राज्य के कुल आबादी के 37 प्रतिशत लोग आज भी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने को मजबूर हैं. राज्य में जितनी भी सरकारें आई सबने विकास की गंगा बहाने और गरीबी मिटाने का वादा किया. झारखंड में 86 लाख आदिवासी समुदाय के लोग रहते हैं, जिसमें 43 लाख आज भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करते हैं. बिहार से झारखंड के अलग होने के बाद यहां का सत्ता सर्वाधिक बार आदिवासी नेताओं के हाथ मे ही रहा है, लेकिन इन गरीब आदिवासियों का उद्धार नहीं हो पाया है.
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सत्ता में आने से पहले सभी दल गरीबी हटाने की बात करते हैं, लेकिन अबतक किसी भी सरकार ने गरीबों के लिए बनाई गई योजनाओं को धरातल पर नही उतार पाई है, जिसके कारण राज्य में भुखमरी एक बड़ी समस्या बनी हुई है. इसका एक मुख्य कारण राज्य में शिक्षा का भी अभाव रहा है जिसके कारण गरीबों को योजनाओं के बारे में जानकारी नही मिल पाती है. हेमंत सरकार ने भी अपने कार्यकाल के 100 दिन पूरे कर लिए, लेकिन गरीबी और भुखमरी मिटाने के लिए अबतक कोई ठोस कदम नहीं उठाए हैं, जो एक चिंता का विषय है.