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परंपरा निभाने पुणे से झारखंड पहुंचे बहुरूपिये, रामगढ़ में गली-गली गा रहे राम और श्याम के भजन

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Published : Mar 12, 2022, 9:50 PM IST

Updated : Mar 13, 2022, 6:30 AM IST

देश में कई कलाएं लुप्त होने के कगार पर हैं. इन्हीं में से एक है बहुरूपिया कला. आकर्षक पौराणिक किरदारों जैसी वेश-भूषा में संगीत की धुन पर गा कर और नाट्य प्रस्तुति से लोगों का मनोरंजन करने वाले ये बहुरूपिये कम ही दिखते हैं. होली से पहले दादा के जमाने से चली आ रही परंपरा निभाने पुणे से पहुंचे बहुरूपियों ने बताया कैसे लुप्त हो रही है यह कला. पढ़ें पूरी रिपोर्ट

रामायण
रामगढ़ में पुणे से पहुंचे बहुरूपिये

रामगढ़ः आज कम ही लोगों ने सुना होगा कि देश में पहले बहुरूपियों के पौराणिक, ऐतिहासिक किरदारों पर नाट्य प्रस्तुति देकर भजन गाने की परंपरा थी. ये बहुरूपिये पौराणिक किरदारों जैसी वेश-भूषा में गली-गली घूमते थे और होली-दिवाली जैसे त्योहारों में भगवान राम और कृष्ण के भजन व अन्य गीत गाते थे, साथ ही नाट्य प्रस्तुति देते थे . लेकिन अब यह परंपरा लुप्त होती जा रही है. बहुरूपियों को उचित सम्मान न मिलने से अब ये दूसरे पेशे से जीविकोपार्जन कर रहे हैं. इधर बाप-दादा की रवायत के लिए निभाने पुणे से झारखंड पहुंचे बहुरूपिये इन दिनों रामगढ़ में लोगों को अपनी रवायत को लेकर जगाने की कोशिश कर रहे हैं. वे गली-गली भगवान राम और श्याम के भजन गा रहे हैं.

ये भी पढ़ें-अभिनेत्री रसिका दुग्गल पहुंचीं सरायकेला, कुदरसाई शिव मंदिर परिसर में की डॉक्यूमेंट्री फिल्म की शूटिंग

पुणे से रामगढ़ पहुंचे चंद्रू, दुर्गेश और मारुति ने बताया कि एक समय हमारे समाज में बहरूपिया कला मनोरंजन के केंद्र में थी. बहरूपिये शहर से लेकर गांव तक अपनी कला दिखाते, नाट्य प्रस्तुति देते थे और लोगों का मन मोह लेते थे. इससे लोगों का ध्यान भी अपनी पौराणिक कथाओं की ओर जाता था. लेकिन अब इस कला को अधिक सम्मान नहीं मिल रहा है. इंटरनेट और डिजिटल के जमाने के कारण उनके काम पर असर पड़ा है. इससे इसके भरोसे जीविकोपार्जन मुश्किल है. इससे अभी तो वे होली, दिवाली जैसे त्योहारों पर ही इस कला को जीवित रखने के लिए बहुरूपिया बनकर भजन गाते हैं. लेकिन परंपरा को संजोये रखना मुश्किल हो रहा है.

देखें पूरी खबर
बहरूपिया बनकर झारखंड के विभिन्न शहरों से घूमते-घूमते रामगढ़ पहुंचे कलाकारों ने कहा कि यह कला, लोक संस्कृति की विरासत देन है. लेकिन इसका दायरा सिमट रहा है और आने वाली पीढ़ी इसे अपनाने को तैयार नहीं है. कलाकारों ने बताया कि हम लोगों की कला से खुश होकर कई लोग आर्थिक मदद के साथ-साथ सराहना भी करते हैं. लेकिन आने वाली पीढ़ी अब हमारी परंपरा को आगे ले जाने में इंटरेस्टेड नहीं है. हम लोगों का भी कपड़े का व्यवसाय है.

राजस्थान की विशेष कलाः यह कला पूरे राजस्थान में प्रचलित है. बहुरूपिया चरित्र के अनुसार अपना रूप बदलने में कुशल होते हैं. शृंगार और वेशभूषा की सहायता से ये वैसे ही पात्र लगने लग जाते हैं जिसका किरदार निभाते हैं. कई बार तो असल और नकल में भेद कर पाना भी मुश्किल होता है. इस मनोरंजक नाट्य कला के कलाकारों के किसी गांव में आ जाने पर ये बहुत दिनों तक बालकों, वृद्धों सहित नर-नारियों का मनोरंजन करते हैं. ये आमतौर पर शादी-ब्याह या मेलों-उत्सव आदि के अवसर पर गांव में पहुंचते हैं और देवी – देवताओं, ऐतिहासिक पुरुषों का रूप धारण करते हैं.

रामगढ़ः आज कम ही लोगों ने सुना होगा कि देश में पहले बहुरूपियों के पौराणिक, ऐतिहासिक किरदारों पर नाट्य प्रस्तुति देकर भजन गाने की परंपरा थी. ये बहुरूपिये पौराणिक किरदारों जैसी वेश-भूषा में गली-गली घूमते थे और होली-दिवाली जैसे त्योहारों में भगवान राम और कृष्ण के भजन व अन्य गीत गाते थे, साथ ही नाट्य प्रस्तुति देते थे . लेकिन अब यह परंपरा लुप्त होती जा रही है. बहुरूपियों को उचित सम्मान न मिलने से अब ये दूसरे पेशे से जीविकोपार्जन कर रहे हैं. इधर बाप-दादा की रवायत के लिए निभाने पुणे से झारखंड पहुंचे बहुरूपिये इन दिनों रामगढ़ में लोगों को अपनी रवायत को लेकर जगाने की कोशिश कर रहे हैं. वे गली-गली भगवान राम और श्याम के भजन गा रहे हैं.

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पुणे से रामगढ़ पहुंचे चंद्रू, दुर्गेश और मारुति ने बताया कि एक समय हमारे समाज में बहरूपिया कला मनोरंजन के केंद्र में थी. बहरूपिये शहर से लेकर गांव तक अपनी कला दिखाते, नाट्य प्रस्तुति देते थे और लोगों का मन मोह लेते थे. इससे लोगों का ध्यान भी अपनी पौराणिक कथाओं की ओर जाता था. लेकिन अब इस कला को अधिक सम्मान नहीं मिल रहा है. इंटरनेट और डिजिटल के जमाने के कारण उनके काम पर असर पड़ा है. इससे इसके भरोसे जीविकोपार्जन मुश्किल है. इससे अभी तो वे होली, दिवाली जैसे त्योहारों पर ही इस कला को जीवित रखने के लिए बहुरूपिया बनकर भजन गाते हैं. लेकिन परंपरा को संजोये रखना मुश्किल हो रहा है.

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बहरूपिया बनकर झारखंड के विभिन्न शहरों से घूमते-घूमते रामगढ़ पहुंचे कलाकारों ने कहा कि यह कला, लोक संस्कृति की विरासत देन है. लेकिन इसका दायरा सिमट रहा है और आने वाली पीढ़ी इसे अपनाने को तैयार नहीं है. कलाकारों ने बताया कि हम लोगों की कला से खुश होकर कई लोग आर्थिक मदद के साथ-साथ सराहना भी करते हैं. लेकिन आने वाली पीढ़ी अब हमारी परंपरा को आगे ले जाने में इंटरेस्टेड नहीं है. हम लोगों का भी कपड़े का व्यवसाय है.

राजस्थान की विशेष कलाः यह कला पूरे राजस्थान में प्रचलित है. बहुरूपिया चरित्र के अनुसार अपना रूप बदलने में कुशल होते हैं. शृंगार और वेशभूषा की सहायता से ये वैसे ही पात्र लगने लग जाते हैं जिसका किरदार निभाते हैं. कई बार तो असल और नकल में भेद कर पाना भी मुश्किल होता है. इस मनोरंजक नाट्य कला के कलाकारों के किसी गांव में आ जाने पर ये बहुत दिनों तक बालकों, वृद्धों सहित नर-नारियों का मनोरंजन करते हैं. ये आमतौर पर शादी-ब्याह या मेलों-उत्सव आदि के अवसर पर गांव में पहुंचते हैं और देवी – देवताओं, ऐतिहासिक पुरुषों का रूप धारण करते हैं.

Last Updated : Mar 13, 2022, 6:30 AM IST
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