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लोकगीतों की वह परंपरा जो महिलाओं को देती है खेती की शक्ति, समय के साथ बदल रही प्रथा

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By ETV Bharat Jharkhand Team

Published : Aug 24, 2023, 7:03 AM IST

Updated : Oct 4, 2023, 5:04 PM IST

झारखंड और बिहार के कुछ इलाकों में धान रोपनी के दौरान लोकगीत गाने की परंपरा है. लेकिन आज के दौर में यह धीरे धीरे लुप्त होती जा रही है. इन गीतों का अपना महत्व है.

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पलामू: सावन का महीना चल रहा है. इस महीने में चारों तरफ प्रकृति प्रेम से जुड़े हुए गीत सुनाए और गाए जाते हैं. इसी सावन में एक और लोकगीतों की गूंज सुनाई देती है. यह गूंज है धान रोपनी के गीतों की गूंज. आधुनिकता की दौर में खेती के तरीके जरुर बदले हैं. लेकिन आज भी झारखंड और बिहार के कई ऐसे इलाके हैं, जहां पारंपरिक तरीके से खेती होती है, और धान रोपनी के गीत की गूंज भी सुनाई देती है. धान की रोपनी का प्रकृति से काफी जुड़ाव रहा है. धान की रोपनी और उसके गीत में खेती का बल उसका समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र के साथ भारत की मूल आत्मा का दर्शन दिखता है.

यह भी पढ़ें: मानसून की दगाबाजी से बाहर आई किसानों की पीड़ा, कहा- सरकार ही उनकी बर्बादी की जिम्मेदार

धान रोपनी के गीतों का इतिहास काफी पौराणिक है. कहा जाता है कि जब से धान रोपने की शुरुआत हुई है, तब से इसके गीत गाए जा रहे हैं. धान की रोपनी के गीतों की गूंज धान का कटोरा कहे जाने वाले इलाके में भी सुनाई देती है. यह इलाका झारखंड के पलामू प्रमंडल और बिहार के मगध का इलाका है. हालांकि समय के साथ धान रोपनी में बदलाव हुआ है और इसका दायरा भी सिमटा है लेकिन खेती के समय लोक परम्परा अपनी जीवंतता के दिखा जाती है.

धनरोपनी के गीतों में झलकती है महिलाओं की श्रम शक्ति: धान रोपनी के गीतों को लेकर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में हिंदी विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर कुमार बीरेंद्र बताते हैं कि धान की रोपनी के गीतों का काफी महत्व है. यह एक साथ महिलाओं की श्रम शक्ति, उनकी विरह वेदना समेत कई चीजों का बखान करती है. इसके गीत में समाजशास्त्र के साथ-साथ अर्थशास्त्र का भी जुड़ाव है.

प्रोफेसर कुमार कुमार बीरेंद्र बताते हैं कि एक वक्त था, जब महिलाएं धान की रोपनी के दौरान रेलिया बैरी न, जहजिया बैरी न..पिया के कलकत्ता लेकर जाए रे... गाती थीं. कुछ वर्ष पहले इस गीत में एक नई पंक्ती जुड़ी है और अब गाया जाने लगा है, पइसिया बैरी न..कलकत्ता लेकर जाए रे. कहने का तात्पर्य है कि महिलाएं अब रेल और जहाज की जगह पैसा को अपना दुश्मन मानने लगी हैं. गीतों की यह पंक्ति सामान्य नहीं है. यह विमर्श कारी गीत है. धान रोपनी के गीत गांव के विस्थापन और श्रम के महत्व को बताते हैं.

खेत के मालिक के उपवास रहने की परंपरा: उन्होंने बताया कि धनरोपनी को शुभ माना जाता है. इस दौरान खेत के मालिक के उपवास रहने की परंपरा है, जिसे कोठिला भरना कहा जाता है. धान रोपनी का क्रम सौंदर्य को बताता है. यह सामूहिकता को बताता है कि उससे प्रकृति के सारे तंत्र जुड़े हुए हैं. धान की रोपनी एक तरह से धरती को हरियाली से परिपूर्ण करती है और शुभ कार्य से पहले गीत गाने का प्रचलन रहा है. प्रोफेसर बताते हैं कि वक्त के साथ काफी कुछ बदला है. धान रोपने के लिए मशीनों का इस्तेमाल हो रहा है. कई इलाकों में पुरुष धान रोप रहे हैं. यही वजह है कि इसके गीत की गूंज अब कम सुनाई देने लगी है.

धान के गीतों को लेकर उत्साहित रहती हैं महिलाएं: धान रोपने के दौरान इसके गीतों की गूंज सुनाई देती है. धनरोपनी के गीत महिलाएं एक दूसरे से सीखती हैं. लोक गायिका शालिनी श्रीवास्तव बताती हैं कि धान के रोपनी के गीतों में काफी उत्साह होता है. इसके गीत कई जानकारी देती है. इसमें हंसी, ठिठोली, विरह, वेदना है. इसके गीत महिलाओं के दूसरे के नजदीक भी लाती है. यह परंपरा सदियों से कायम है. पलामू के हुसैनाबाद की महिला सावित्री देवी बताती हैं कि उन्होंने अपनी सास और मां से धनरोपनी के गीत को सीखा था. उन्होंने बताया कि ऐसी मान्यता है कि धान की रोपनी के दौरान गीत गाने से उपज अच्छी होती है. वे बताती हैं कि धीरे धीरे यह परंपरा कमजोर हो रही है और नई उम्र की लड़कियां इस गीत को नहीं सीखना चाहती.

पलामू: सावन का महीना चल रहा है. इस महीने में चारों तरफ प्रकृति प्रेम से जुड़े हुए गीत सुनाए और गाए जाते हैं. इसी सावन में एक और लोकगीतों की गूंज सुनाई देती है. यह गूंज है धान रोपनी के गीतों की गूंज. आधुनिकता की दौर में खेती के तरीके जरुर बदले हैं. लेकिन आज भी झारखंड और बिहार के कई ऐसे इलाके हैं, जहां पारंपरिक तरीके से खेती होती है, और धान रोपनी के गीत की गूंज भी सुनाई देती है. धान की रोपनी का प्रकृति से काफी जुड़ाव रहा है. धान की रोपनी और उसके गीत में खेती का बल उसका समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र के साथ भारत की मूल आत्मा का दर्शन दिखता है.

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धान रोपनी के गीतों का इतिहास काफी पौराणिक है. कहा जाता है कि जब से धान रोपने की शुरुआत हुई है, तब से इसके गीत गाए जा रहे हैं. धान की रोपनी के गीतों की गूंज धान का कटोरा कहे जाने वाले इलाके में भी सुनाई देती है. यह इलाका झारखंड के पलामू प्रमंडल और बिहार के मगध का इलाका है. हालांकि समय के साथ धान रोपनी में बदलाव हुआ है और इसका दायरा भी सिमटा है लेकिन खेती के समय लोक परम्परा अपनी जीवंतता के दिखा जाती है.

धनरोपनी के गीतों में झलकती है महिलाओं की श्रम शक्ति: धान रोपनी के गीतों को लेकर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में हिंदी विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर कुमार बीरेंद्र बताते हैं कि धान की रोपनी के गीतों का काफी महत्व है. यह एक साथ महिलाओं की श्रम शक्ति, उनकी विरह वेदना समेत कई चीजों का बखान करती है. इसके गीत में समाजशास्त्र के साथ-साथ अर्थशास्त्र का भी जुड़ाव है.

प्रोफेसर कुमार कुमार बीरेंद्र बताते हैं कि एक वक्त था, जब महिलाएं धान की रोपनी के दौरान रेलिया बैरी न, जहजिया बैरी न..पिया के कलकत्ता लेकर जाए रे... गाती थीं. कुछ वर्ष पहले इस गीत में एक नई पंक्ती जुड़ी है और अब गाया जाने लगा है, पइसिया बैरी न..कलकत्ता लेकर जाए रे. कहने का तात्पर्य है कि महिलाएं अब रेल और जहाज की जगह पैसा को अपना दुश्मन मानने लगी हैं. गीतों की यह पंक्ति सामान्य नहीं है. यह विमर्श कारी गीत है. धान रोपनी के गीत गांव के विस्थापन और श्रम के महत्व को बताते हैं.

खेत के मालिक के उपवास रहने की परंपरा: उन्होंने बताया कि धनरोपनी को शुभ माना जाता है. इस दौरान खेत के मालिक के उपवास रहने की परंपरा है, जिसे कोठिला भरना कहा जाता है. धान रोपनी का क्रम सौंदर्य को बताता है. यह सामूहिकता को बताता है कि उससे प्रकृति के सारे तंत्र जुड़े हुए हैं. धान की रोपनी एक तरह से धरती को हरियाली से परिपूर्ण करती है और शुभ कार्य से पहले गीत गाने का प्रचलन रहा है. प्रोफेसर बताते हैं कि वक्त के साथ काफी कुछ बदला है. धान रोपने के लिए मशीनों का इस्तेमाल हो रहा है. कई इलाकों में पुरुष धान रोप रहे हैं. यही वजह है कि इसके गीत की गूंज अब कम सुनाई देने लगी है.

धान के गीतों को लेकर उत्साहित रहती हैं महिलाएं: धान रोपने के दौरान इसके गीतों की गूंज सुनाई देती है. धनरोपनी के गीत महिलाएं एक दूसरे से सीखती हैं. लोक गायिका शालिनी श्रीवास्तव बताती हैं कि धान के रोपनी के गीतों में काफी उत्साह होता है. इसके गीत कई जानकारी देती है. इसमें हंसी, ठिठोली, विरह, वेदना है. इसके गीत महिलाओं के दूसरे के नजदीक भी लाती है. यह परंपरा सदियों से कायम है. पलामू के हुसैनाबाद की महिला सावित्री देवी बताती हैं कि उन्होंने अपनी सास और मां से धनरोपनी के गीत को सीखा था. उन्होंने बताया कि ऐसी मान्यता है कि धान की रोपनी के दौरान गीत गाने से उपज अच्छी होती है. वे बताती हैं कि धीरे धीरे यह परंपरा कमजोर हो रही है और नई उम्र की लड़कियां इस गीत को नहीं सीखना चाहती.

Last Updated : Oct 4, 2023, 5:04 PM IST
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