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World Bamboo Day: कभी बांस के व्यापार का केंद्र था पलामू, कुछ इलाकों में सिमट गए हैं जंगल

18 सितंबर को वर्ल्ड बैंबू डे(World Bamboo Day ) मनाया जाता है. झारखंड का पलामू इलाका कभी बांस व्यापार का प्रमुख केंद्र हुआ करता था. यहां बांस के जंगल बहुतायत थे. लेकिन अब यह कम हो रहे हैं. इसे सहेजने की जरूरत है.

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Published : Sep 18, 2022, 12:34 PM IST

पलामूः देशभर में जल, जंगल, जमीन के लिए चर्चित झारखंड का इलाका कई प्राकृतिक संपदाओं को संजोए हुए हैं. ग्रीन गोल्ड के नाम से चर्चित बांस का जंगल झारखंड के कई इलाकों में है, लेकिन यह वक्त के साथ लगातार कम हो रहे हैं. 2014-15 में देश के प्रधानमंत्री ने बसों को संरक्षित करने और व्यापार को बढ़ावा देने के लिए ग्रीन गोल्ड नामक योजना शुरू की थी. हालांकि इस योजना को झारखंड के इलाके में लागू नहीं किया गया था.

कभी पूरे देश भर में झारखंड का अविभाजित पलामू बांस के व्यापार के लिए चर्चित रहा था(Palamu was center of bamboo trade). पलामू के इलाके से निकालकर बांस देश के कई कागज फैक्ट्रियों तक भेजा जाता था. अंग्रेजों के शासन काल में बांस की ढुलाई के लिए ही रेलवे पटरी बिछाई गई थी. पूरे इलाके में बांस के व्यापार का सबसे बड़ा केंद्र लातेहार का छिपादोहर का इलाका था. जानकार बताते हैं कि 70 के दशक से पहले तक इलाके से प्रतिदिन 500 ट्रक बाहर जाते थे. बांस को रेलवे रैक के माध्यम से बाहर के राज्यों में भेजा जाता था.

देखिए स्पेशल स्टोरी

पीटीआर के गठन के बाद व्यापार पर लगी रोकः 1973-74 में पलामू टाइगर रिजर्व का गठन किया गया था. पलामू टाइगर रिजर्व(palamu tiger reserve) के गठन के बाद बांस के व्यापार पर इलाके में रोक लगा दी गई थी. इससे पहले पलामू टाइगर रिजर्व झारखंड में बड़ा बांस का व्यापार का केंद्र हुआ करता था. बांस के व्यापार पर रोक लगने के बाद कारोबारियों ने अन्य इलाकों का रुख किया. लेकिन बांस की गुणवत्ता और कम मौजूदगी के कारण व्यापार बंद हो गए. नतीजा है कि कई इलाकों से बांस गायब हो गए हैं.

बांस का सबसे बड़ा जंगल अभी भी पलामू टाइगर रिजर्व(palamu tiger reserve) में है. इलाके में करीब बांस के जंगल 6000 हेक्टेयर में फैले हुए (bamboo forest in jharkhand )हैं. हालांकि अविभाजित पलामू में 90 के दशक तक बांस का व्यापार हो रहा था. अविभाजित पलामू के पीटीआर के इलाके को छोड़ दिया जाए तो बांस के जंगल बेहद कम हो गए ( (bamboo forest in jharkhand ))हैं. 1995 तक पलामू से निकले हुए बांस कई कागज फैक्ट्रियों में भेजे जाते थे. किसी जमाने में बिहार का प्रसिद्ध डालमिया पेपर मिल पलामू के ही बांस से उत्पादन करता था. पर्यावरणविद कौशल किशोर जायसवाल बताते हैं कि बांस या वन संपदा उसको बचाने की जरूरत है. ताकि पर्यावरण को बचाया जा सके. उन्होंने कहा कि संपदाओं को बचाने की जिम्मेदारी सिर्फ विभाग पर ही नहीं बल्कि सभी पर है.



हाथी बांसों के सबसे बड़े संरक्षक, पलामू के इलाके में पाया जाता है लाठी बांसः बांस हाथियों का प्रिय भोजन रहा है. पीटीआर के करीब 60 प्रतिशत इलाके में बांस के पेड़ हैं. ये जंगल गारु, मारोमार, बारेसाढ़, छिपादोहर, बेतला, हेनार, तिसिया, मारोमार के जंगल में फैले हुए हैं. इन इलाकों में करीब 120 हाथियों का बसेरा है. वन्यजीव विशेषज्ञ प्रोफेसर डीएस श्रीवास्तव बताते हैं कि हाथी खुद बांसों को संरक्षित करते हैं. उन्होंने बताया कि बांस के नए पौधे (करील) को हाथी नुकसान नहीं पंहुचाते हैं ना ही उसे खाते हैं. हाथी बांस के उसी पेड़ को खाते है जिनकी उम्र तीन वर्ष हो गई हो. प्रोफेसर डीएस श्रीवास्तव बताते हैं कि बांस के जंगल के कारण पीटीआर के हाथी कभी बाहर नहीं जाते हैं उन्हें भरपूर भोजन मिलता है. पलामू टाइगर रिजर्व के इलाके में डेंड्रो केलामस स्ट्रिक्ट्स (लाठी) बांस पाया जाता है.

पलामूः देशभर में जल, जंगल, जमीन के लिए चर्चित झारखंड का इलाका कई प्राकृतिक संपदाओं को संजोए हुए हैं. ग्रीन गोल्ड के नाम से चर्चित बांस का जंगल झारखंड के कई इलाकों में है, लेकिन यह वक्त के साथ लगातार कम हो रहे हैं. 2014-15 में देश के प्रधानमंत्री ने बसों को संरक्षित करने और व्यापार को बढ़ावा देने के लिए ग्रीन गोल्ड नामक योजना शुरू की थी. हालांकि इस योजना को झारखंड के इलाके में लागू नहीं किया गया था.

कभी पूरे देश भर में झारखंड का अविभाजित पलामू बांस के व्यापार के लिए चर्चित रहा था(Palamu was center of bamboo trade). पलामू के इलाके से निकालकर बांस देश के कई कागज फैक्ट्रियों तक भेजा जाता था. अंग्रेजों के शासन काल में बांस की ढुलाई के लिए ही रेलवे पटरी बिछाई गई थी. पूरे इलाके में बांस के व्यापार का सबसे बड़ा केंद्र लातेहार का छिपादोहर का इलाका था. जानकार बताते हैं कि 70 के दशक से पहले तक इलाके से प्रतिदिन 500 ट्रक बाहर जाते थे. बांस को रेलवे रैक के माध्यम से बाहर के राज्यों में भेजा जाता था.

देखिए स्पेशल स्टोरी

पीटीआर के गठन के बाद व्यापार पर लगी रोकः 1973-74 में पलामू टाइगर रिजर्व का गठन किया गया था. पलामू टाइगर रिजर्व(palamu tiger reserve) के गठन के बाद बांस के व्यापार पर इलाके में रोक लगा दी गई थी. इससे पहले पलामू टाइगर रिजर्व झारखंड में बड़ा बांस का व्यापार का केंद्र हुआ करता था. बांस के व्यापार पर रोक लगने के बाद कारोबारियों ने अन्य इलाकों का रुख किया. लेकिन बांस की गुणवत्ता और कम मौजूदगी के कारण व्यापार बंद हो गए. नतीजा है कि कई इलाकों से बांस गायब हो गए हैं.

बांस का सबसे बड़ा जंगल अभी भी पलामू टाइगर रिजर्व(palamu tiger reserve) में है. इलाके में करीब बांस के जंगल 6000 हेक्टेयर में फैले हुए (bamboo forest in jharkhand )हैं. हालांकि अविभाजित पलामू में 90 के दशक तक बांस का व्यापार हो रहा था. अविभाजित पलामू के पीटीआर के इलाके को छोड़ दिया जाए तो बांस के जंगल बेहद कम हो गए ( (bamboo forest in jharkhand ))हैं. 1995 तक पलामू से निकले हुए बांस कई कागज फैक्ट्रियों में भेजे जाते थे. किसी जमाने में बिहार का प्रसिद्ध डालमिया पेपर मिल पलामू के ही बांस से उत्पादन करता था. पर्यावरणविद कौशल किशोर जायसवाल बताते हैं कि बांस या वन संपदा उसको बचाने की जरूरत है. ताकि पर्यावरण को बचाया जा सके. उन्होंने कहा कि संपदाओं को बचाने की जिम्मेदारी सिर्फ विभाग पर ही नहीं बल्कि सभी पर है.



हाथी बांसों के सबसे बड़े संरक्षक, पलामू के इलाके में पाया जाता है लाठी बांसः बांस हाथियों का प्रिय भोजन रहा है. पीटीआर के करीब 60 प्रतिशत इलाके में बांस के पेड़ हैं. ये जंगल गारु, मारोमार, बारेसाढ़, छिपादोहर, बेतला, हेनार, तिसिया, मारोमार के जंगल में फैले हुए हैं. इन इलाकों में करीब 120 हाथियों का बसेरा है. वन्यजीव विशेषज्ञ प्रोफेसर डीएस श्रीवास्तव बताते हैं कि हाथी खुद बांसों को संरक्षित करते हैं. उन्होंने बताया कि बांस के नए पौधे (करील) को हाथी नुकसान नहीं पंहुचाते हैं ना ही उसे खाते हैं. हाथी बांस के उसी पेड़ को खाते है जिनकी उम्र तीन वर्ष हो गई हो. प्रोफेसर डीएस श्रीवास्तव बताते हैं कि बांस के जंगल के कारण पीटीआर के हाथी कभी बाहर नहीं जाते हैं उन्हें भरपूर भोजन मिलता है. पलामू टाइगर रिजर्व के इलाके में डेंड्रो केलामस स्ट्रिक्ट्स (लाठी) बांस पाया जाता है.

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