लोहरदगा: दो वक्त की रोटी के लिए कमाना तो पड़ता ही है. परिवार को चलाना आसान नहीं है. शादी-ब्याह, बीमारी, बच्चों की पढ़ाई, दैनिक खर्च और जरूरत के अन्य सामानों के अलावे सपनों को पूरा करने के लिए भी पैसा चाहिए. यह पैसा आसानी से नहीं मिलता. कड़ी मेहनत करनी पड़ती है, परंतु मेहनत करने के बाद भी जब पैसा कमाने का कोई साधन ना हो तो, आदमी परदेस जाकर रास्ता तलाशने की कोशिश करता है. लोहरदगा के एक पंचायत की कुछ ऐसी ही कहानी है. यहां ग्रामीणों को मजबूरी में घर छोड़कर जाना पड़ता है. जानिए इस रिपोर्ट में क्या है पूरा मामला.
पूरा गांव ही कर जाता है पलायनः लोहरदगा जिले के कुडू प्रखंड के सुदूरवर्ती सलगी पंचायत की कुछ कहानी ऐसी है कि यहां मानो किस्मत फूटी पड़ी है. पूरा गांव ही रोजगार की तलाश में पलायन कर जाता है. घरों में ताले लटक जाते हैं. गिने-चुने घरों में कुछ एक वृद्ध महिलाएं ही नजर आती हैं. परेशानी ऐसी की जैसे यह कोई अभिशाप हो.
लोहरदगा जिले के सुदूरवर्ती कुडू प्रखंड के सलगी पंचायत में ग्रामीणों के पास स्थानीय तौर पर कोई काम नहीं है. पहाड़ी क्षेत्र होने की वजह से यहां खेतीबाड़ी भी नहीं है. ऐसे में ग्रामीण रोजगार की तलाश में हर साल पलायन कर जाते हैं. पूरे परिवार के साथ पलायन करना इनकी मजबूरी है. कोई दिल्ली जाता है तो कोई मिर्जापुर, कोई राजस्थान जाता है तो कोई असम. जिंदगी जीने के लिए इन्हें अपने बच्चों की पढ़ाई तक को भूलना पड़ता है. मजबूरी में पलायन करना इनकी मजबूरी है. पूरा का पूरा गांव खाली हो जाता है. ऐसा लगता है कि जैसे गांव में कोई हो ही नहीं. पलायन की ऐसी तस्वीर देखकर लगता है कि सरकार का रोजगार देने का दावा पूरी तरह से खोखला है.
मनरेगा से नहीं भर पाता पेटः पंचायत में मनरेगा के तहत कई योजनाओं का क्रियान्वयन किया जा रहा है. इसके बावजूद मजदूरों का पेट मनरेगा भर नहीं पा रहा. वजह साफ है कि मनरेगा में 100 दिन का रोजगार एक जॉब कार्ड में साल भर में देना है. अब सिर्फ 100 दिन काम करके पूरे परिवार को पालना किसी एक व्यक्ति के लिए कहां तक संभव है.
इस पंचायत में कुल 1077 सक्रिय मजदूर हैं. पंचायत में कुल 1601 योजना का क्रियान्वयन चालू वित्तीय वर्ष में किया गया है. इसके तहत 28300 मानव दिवस का सृजन किया जा चुका है. देखने वाली बात यह भी है कि पंचायत में कुल 440562 रुपये की मजदूरी आज भी बकाया है. समय पर ना मजदूरी मिलती है, ना पूरी तरह से काम. ऐसे में ग्रामीण पलायन न करें तो भला क्या करें. पलायन तो इनकी किस्मत में लिखा जा चुका है. सरकारी भी स्थानीय तौर पर रोजगार के नाम पर बस ठगने का काम कर रही है.