हजारीबागः कुम्हार शब्द का जन्म संस्कृत भाषा के कुंभकार से हुआ है, जिसका अर्थ है मिट्टी का बर्तन बनाने वाला. जब हम मिट्टी के बर्तन बनाने वाले की बात करते हैं तो सामने चेहरा पुरुषों का आता है, जो चाक चलाकर मिट्टी के बर्तन बनाते हैं. लेकिन आज आपको हम एक ऐसे परिवार से मिलवाने जा रहे हैं. जिसके घर की मां, बेटी और नतनी सभी मिलकर मिट्टी के बर्तन बनाते हैं.
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आज महिलाएं वैसा काम भी कर रही हैं जो पुरुष किया करते थे. हजारीबाग के कटकमदाग प्रखंड के हाथामेढी गांव में एक परिवार के सभी महिला सदस्य मिलकर मिट्टी का बर्तन बनाती हैं. आमतौर पर मिट्टी का सामान पर्व त्यौहार के दौरान ही कुम्हार बनाते हैं. लेकिन यह परिवार सालों भर मिट्टी का बर्तन, दीप समेत अन्य सामान बनाता है. महिलाएं बताती हैं कि उनकी घर की स्थिति बेहद खराब थी. घर के लोग मजदूरी किया करते थे. ऐसे में उन्होंने सोचा क्यों ना मिट्टी के बर्तन बनाई जाए. ऐसे में घर की सभी महिलाएं मिलकर मिट्टी के बर्तन बनाती हैं. अब ये बर्तन के लिए सालों भर का बाजार भी उपल्बध है. यही नहीं हजारीबाग से बाहर भी व्यापारी सामान ले जाते हैं.
महिलाएं हाथ से ही नहीं मशीन के मदद से भी डिजाइनर दीया बना रही है और उस दिए की कीमत बाजार में काफी अच्छा मिल रहा है. अक्सर देखा जाता है त्यौहार के समय पुरुष ही चाक चलाकर मिट्टी के बर्तन बनाते हैं. लेकिन इस परिवार की महिलाओं ने रूढ़िवादिता को तोड़ते हुए खुद से मिट्टी का सामान बना रही हैं. ऐसे में समाज के लोग भी इन महिलाओं को प्रोत्साहित कर रहे हैं. घर की महिलाएं अपने हुनर को तीसरी पीढ़ी तक ले जाना चाहती हैं. घर की महिलाएं कहती है कि हम लोगों ने मिट्टी का सामान बनाने का तरीका सीखा अपनी बेटी को सिखाया अब वो इस कला को नई पीढ़ी को सिखा रही हैं. 17 वर्षीय मनीषा कुमारी बताती हैं कि वो अपनी नानी घर कभी-कभार आती हैं और उनसे मिट्टी का सामान बनाने सीखती हैं. मनीषा का कहना है कि आगामी भविष्य में वो इसे अपने करियर के रूप में आगे बढ़ाने की इच्छुक हैं.
इस घर की बेटी बताती हैं कि हम लोग जब से सखी मंडल से जुड़े हैं उनको इसका लाभ मिल रहा है. घर के आंगन मे मोहल्ले की महिलाएं बैठती हैं और अपना कार्य योजना बनाती है. हम लोग आपस में कुछ पैसा भी जमा करते हैं और जब जिसको जरूरत होता है वह पैसा वहां से कर्ज के रूप में ले लेता है. झारखंड स्टेट लाइवलीहुड प्रमोशन सोसाइटी भी उनकी मदद करती है. महिला बताती है कि सरकार के द्वारा जो राशि हम लोगों के सखी मंडल को मिलता है उस पैसे को कहां और कैसे खर्च करना है यह सभी महिलाएं ही निश्चित करती हैं. ऐसे में उन्हे 25 हजार की मदद मिली, जिससे उन्होंने अपने व्यवसाय में लगाया और आज उनकी आर्थिक स्थिति पहले से सुधरी है.
झारखंड स्टेट लाइवलीहुड प्रमोशन सोसाइटी (Jharkhand State Livelihood Promotion Society) के फील्ड ऑफिसर बताते हैं हम लोग सखी मंडल बनवाते हैं. 3 महीने के बाद उन्हें मदद दिलाते हैं. सखी मंडल को अनुदान राशि भी मिलती है. इसके बाद उन्हें बैंक से हम लोग लिंक करवा देते हैं. बैंक से लोन लेकर अपना व्यवसाय को बढ़ा सकती हैं. इसके अलावा बैंक का ब्याज भी कम लगता है. सखी मंडल महिलाओं के लिए बेहतर विकल्प बनकर सामने आया है. जिसकी मदद से वो अपने पैरों पर खड़ी हो सकती हैं.