गोड्डाः जिला मुख्यालय से करीब 33 किलोमीटर दूर सुंदर पहाड़ी प्रखंड में बसा है बड़ा कल्हाजार गांव. इस गांव के जर्रे-जर्रे में बैजल सोरेन की अमर प्रेम कहानी बसी है. इस गांव की गलियों में अब भी उनकी बांसुरी की धुन का अहसास कर सकते हैं. ये कहानी साल 19वीं सदी की है, जब बैजल सोरेन ने संताल परगना में साहूकारों के खिलाफ क्रांति का बिगुल फूंक दिया था. बैजल ने एक तंबोली साहूकार की हत्या कर दी थी. इसके बाद ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें गिरफ्तार कर मुर्सिदाबाद की सिउड़ी जेल भेज दिया. अदालत ने बैजल बाबा सोरेन को मौत की सजा सुनाई लेकिन बैजल अपनी धुन में मस्तमौला नाचते गाते रहते थे. बैजल की इस अदा पर ब्रिटिश जेलर की बेटी का दिल आ गया और वो शादी की जिद पर अड़ गई.
साहूकार की हत्या
दरअसल 1855 में बिहार और बंगाल के लोगों ने जमीनदारों, महाजनों और अंग्रेज कर्मचारियों के अत्याचार के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था. इसी दौर में गोड्डा जिले के सुंदर पहाड़ी प्रखंड के कल्हाजोर गांव के एक युवक बैजल सोरेन भी महाजनी प्रथा के शोषण का शिकार होकर बागी बन चुके थे. बैजल सोरेन ने एक तंबोली साहूकार से कुछ रुपए उधर लिए थे, जिसका सूद कई बार चुकाने के बाद भी कर्ज खत्म नहीं हो रहा था. साहूकार ने यहां तक कह दिया कि जिस तरह गाय-बछड़े की संख्या बढ़ रही है उसी तरह उनके पैसे बढ़ रहे हैं. फिर क्या था, गायों को दिखाने के बहाने बैजल साहूकार को लेकर पहाड़ पर गया और वही उसका सर धड़ से अलग कर दिया.
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बांसुरी पर फिदा अंग्रेजी मेम
साहूकार की हत्या के बाद बैजल कल्हाजोर की पहाड़ियों में छिप गए. बैजल संगीत के बिना नहीं रह सकते थे. पहाड़ों में संगीत के एक कार्यक्रम के दौरान वे भी वहां पहुंचे तो पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. बैजल को बंगाल की सिउड़ी जेल ले जाया गया. बैजल पैदल ही जाने को तैयार हो गए और अपनी बांसुरी व तानपुरे के साथ नाचते-गाते जेल तक का सफर पूरा किया. जेल में भी वे संगीत से दूर नहीं रहें. इसी बांसुरी की धुन ब्रिटिश जेलर की बेटी के कानों तक पहुंची और वो उसकी दीवानी हो गयी.
प्रेम ने टाली फांसी
सांवला रंग, घुंघराले बाल और सुंदर कांड काठी के बैजल जितना सुंदर बांसुरी बजाते थे, उतना ही अच्छा नाच-गा भी लेता थे. कहा जाता है कि फांसी वाले दिन अंतिम इच्छा में बैजल ने सारंगी बजाने की बात कही. बैजल की सारंगी की धुन पर अंग्रेज फांसी का समय भूल गए और फांसी टल गई. वहीं जानकारों के अनुसार बेटी के प्यार की जिद के आगे जेलर ने हार मान ली थी और वे बैजल को इंग्लैड लेकर चले गए थे. बैजल का एक परिवार यहीं सुंदरपहाड़ी में रह गया, जिसकी चौथी पीढ़ी आज भी उसी छोटे से गांव में मुफलिसी में रह रही है.
बैजल की एक मूर्ति कल्हाजोर में लगाई गई है, जहां साल में एक बार मेला लगता है. बैजल की गाथा को किताबों में भी सहेज कर रखा गया है. बंगाल में लोग बैजल को नायक के रूप में जानते हैं. बैजल की प्रेम कहानी पर साल 2016 में एक फिल्म भी बनाई गई. करीब दो दशक पूर्व बैजल के अंग्रेज वंशज अपनी जड़ों की तलाश करते गोड्डा तक आए थे. बैजल की प्रेम कहानी दुनिया की चकाचौंध में खो गई लेकिन आदिवासी की अदा पर फिदा अंग्रेजी गोरी मेम के चर्चे आज भी सुंदरपहाड़ी के लोगों की जुबान पर हैं.