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दुख से भरी होती है किन्नरों की दास्तान, आजादी के 70 साल बाद भी नहीं मिल सका वाजिब हक

किन्नर समुदाय का अस्तित्व ईसा पूर्व नौवीं शताब्दी से है. शास्त्र और पुराणों में भी किन्नरों के बारे में चर्चा की गई है. खुशी के पल में इनका घर आना शुभ माना जाता है. लेकिन वास्तव में इनकी जिंदगी मुश्किलों से भरी होती है.

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हक के लिए मोहताज है ये किन्नर
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Published : Feb 17, 2021, 11:24 AM IST

Updated : Feb 17, 2021, 2:18 PM IST

जमशेदपुर: जब किन्नरों की बात करते हैं तो आपके मन में विवाह, गृह प्रवेश, बच्चा होने के रश्मों के बाद पुरुषों के जैसे लगने वाले और महिलाओं की तरह कपड़े पहनने वाले शख्स की तस्वीर उभरती है. घर में किसी आयोजन के मौके पर इनका एक समूह ढोल नगाड़े लेकर दस्तक देता है. खुशी के पल में इनका घर आना शुभ माना जाता है. इसी समूह को समाज में किन्नर कहा जाता है. किन्नरों के ऐसे काम के साथ ही इनकी जिंदगी दुख के धागे में लिपटी होती है.

देंखें पूरी खबर

इसे भी पढ़ें- पलामू: मनरेगा आयुक्त ने पथरा गांव का किया भ्रमण, की ग्रामीणों की सराहना


किन्नरों की परेशानी

किन्नर समुदाय का अस्तित्व ईसा पूर्व नौवीं शताब्दी से है. शास्त्र और पुराणों में भी किन्नरों के बारे में उल्लेख किया गया है. किन्नरों को आजादी के सात दशक के बाद भी अपनी पहचान के लिए मोहताज होना पड़ता है. बर्मा माइंस के जेम्को बस्ती स्थित महानंद कॉलोनी की रहने वाली संजना बताती है कि दस वर्ष की उम्र से ही अपने घर को छोड़कर किन्नरों के साथ रहने जमशेदपुर आ गई थी, संजना दसवीं पास है और उनके पिता सरकारी मुलाजिम थे.

शहर में किराये का घर लेने के लिए इन्हें काफी मशक्कत करनी पड़ती है. आस-पड़ोस और बस्ती के रहने वाले लोग किन्नरों पर अभद्र टिप्पणी करते हैं. सभ्य समाज के लोग भी इनसे बात करने और इनकी शारीरिक बनावट पर मजाक उड़ाते हैं. कई वर्षों तक पहचान पत्र के नहीं बनाए जाने के कारण बाजार से सिम कार्ड नहीं दिया जाता था. किराये पर रहने के लिए कोई पहचान पत्र नहीं होता था. सर पर छत नहीं होने के कारण कभी किसी होटल के नीचे, तो कभी सुनसान सड़कों पर रातें गुजारनी पड़ती थी.


किन्नरों की परंपरा

किन्नरों की परंपरा के अनुरूप गुरु माता-दादी होती है. जो इन्हें रोजगार देने में मदद करती है. गुरु के आशीर्वाद लेने पर चेला को भी बहु भी कहा जाता है. एक मंदिर में जाकर पूरे रस्मों रिवाज के साथ इसे पूरा किया जाता है. बधाई देने वाले किन्नरों का एक समूह होता है. जिन्हें अपने समाज की मर्यादा के मुताबिक इसे बनाए रखना जरूरी होता है.


देह बेचने को मजबूर

टेल्को कॉलोनी की रहने वाली एक किन्नर बताती हैं कि वो ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर चुकी है. रूरल डेवेलपमेंट का कोर्स कर वो बिष्टुपुर स्थित टाटा स्टील में काम करती थी. सेफ्टी ऑफिसर के पद पर वो काम करती थी. दो साल के बाद कंपनी ने उसे हटा दिया. वो कहती है कि ऑफिस में काम करने के दौरान कुछ ऐसे लोग होते थे जो मेरी चाल और आदत पर फब्तियां कसते थे. कार्यालय में मुझे गलत निगाहों से देखा जाता था. काम से निकालने के बाद अब देह व्यापार के सिवा दूसरा कोई रास्ता भी नहीं है.

किन्नरों की समस्याएं

किन्नर अपनी समस्याओं के बारे में बताती हैं कि सरकार और सरकारी अधिकारी भी हमसे दूर होते जा रहे हैं. कुछ दिन पहले डालसा की तरफ से आधार कार्ड बनाने का काम किया गया है, लेकिन अभी भी राशन कार्ड, पहचान पत्र, जैसी बुनियादी सुविधाएं कोसों दूर हैं. राशन, खाने के लिए अनाज की सुविधा भी सरकार की ओर से नहीं दी जाती है.

रोजगार नहीं मिलने की पीड़ा

भालूबासा की रहने वाली कंचन किन्नर कहती हैं कि किसी भी दफ्तर में नौकरी मांगने पर वहां के सीनियर अधिकारी, कार्यलय के कर्मचारी दूर भागते हैं. कई बार कोशिश करने के बाद भी निराशा ही हाथ लगती है.

जमशेदपुर: जब किन्नरों की बात करते हैं तो आपके मन में विवाह, गृह प्रवेश, बच्चा होने के रश्मों के बाद पुरुषों के जैसे लगने वाले और महिलाओं की तरह कपड़े पहनने वाले शख्स की तस्वीर उभरती है. घर में किसी आयोजन के मौके पर इनका एक समूह ढोल नगाड़े लेकर दस्तक देता है. खुशी के पल में इनका घर आना शुभ माना जाता है. इसी समूह को समाज में किन्नर कहा जाता है. किन्नरों के ऐसे काम के साथ ही इनकी जिंदगी दुख के धागे में लिपटी होती है.

देंखें पूरी खबर

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किन्नरों की परेशानी

किन्नर समुदाय का अस्तित्व ईसा पूर्व नौवीं शताब्दी से है. शास्त्र और पुराणों में भी किन्नरों के बारे में उल्लेख किया गया है. किन्नरों को आजादी के सात दशक के बाद भी अपनी पहचान के लिए मोहताज होना पड़ता है. बर्मा माइंस के जेम्को बस्ती स्थित महानंद कॉलोनी की रहने वाली संजना बताती है कि दस वर्ष की उम्र से ही अपने घर को छोड़कर किन्नरों के साथ रहने जमशेदपुर आ गई थी, संजना दसवीं पास है और उनके पिता सरकारी मुलाजिम थे.

शहर में किराये का घर लेने के लिए इन्हें काफी मशक्कत करनी पड़ती है. आस-पड़ोस और बस्ती के रहने वाले लोग किन्नरों पर अभद्र टिप्पणी करते हैं. सभ्य समाज के लोग भी इनसे बात करने और इनकी शारीरिक बनावट पर मजाक उड़ाते हैं. कई वर्षों तक पहचान पत्र के नहीं बनाए जाने के कारण बाजार से सिम कार्ड नहीं दिया जाता था. किराये पर रहने के लिए कोई पहचान पत्र नहीं होता था. सर पर छत नहीं होने के कारण कभी किसी होटल के नीचे, तो कभी सुनसान सड़कों पर रातें गुजारनी पड़ती थी.


किन्नरों की परंपरा

किन्नरों की परंपरा के अनुरूप गुरु माता-दादी होती है. जो इन्हें रोजगार देने में मदद करती है. गुरु के आशीर्वाद लेने पर चेला को भी बहु भी कहा जाता है. एक मंदिर में जाकर पूरे रस्मों रिवाज के साथ इसे पूरा किया जाता है. बधाई देने वाले किन्नरों का एक समूह होता है. जिन्हें अपने समाज की मर्यादा के मुताबिक इसे बनाए रखना जरूरी होता है.


देह बेचने को मजबूर

टेल्को कॉलोनी की रहने वाली एक किन्नर बताती हैं कि वो ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर चुकी है. रूरल डेवेलपमेंट का कोर्स कर वो बिष्टुपुर स्थित टाटा स्टील में काम करती थी. सेफ्टी ऑफिसर के पद पर वो काम करती थी. दो साल के बाद कंपनी ने उसे हटा दिया. वो कहती है कि ऑफिस में काम करने के दौरान कुछ ऐसे लोग होते थे जो मेरी चाल और आदत पर फब्तियां कसते थे. कार्यालय में मुझे गलत निगाहों से देखा जाता था. काम से निकालने के बाद अब देह व्यापार के सिवा दूसरा कोई रास्ता भी नहीं है.

किन्नरों की समस्याएं

किन्नर अपनी समस्याओं के बारे में बताती हैं कि सरकार और सरकारी अधिकारी भी हमसे दूर होते जा रहे हैं. कुछ दिन पहले डालसा की तरफ से आधार कार्ड बनाने का काम किया गया है, लेकिन अभी भी राशन कार्ड, पहचान पत्र, जैसी बुनियादी सुविधाएं कोसों दूर हैं. राशन, खाने के लिए अनाज की सुविधा भी सरकार की ओर से नहीं दी जाती है.

रोजगार नहीं मिलने की पीड़ा

भालूबासा की रहने वाली कंचन किन्नर कहती हैं कि किसी भी दफ्तर में नौकरी मांगने पर वहां के सीनियर अधिकारी, कार्यलय के कर्मचारी दूर भागते हैं. कई बार कोशिश करने के बाद भी निराशा ही हाथ लगती है.

Last Updated : Feb 17, 2021, 2:18 PM IST
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