ETV Bharat / state

जमशेदपुर में अंधविश्वासः आदिवासी समाज की ऐसी परंपरा, जिसमें बच्चों को दिया जाता है खौफनाक दर्द - jharkhand tribal society

जमशेदपुर में आदिवासी समाज में खौफनाक परंपरा प्रचलित है. मकर संक्रांति के दूसरे दिन जिसे जनजातीय लोग अखंड मुहुर्त कहते हैं, उसमें बच्चों संग इस खौफनाक परंपरा को निभाया जाता है. पढ़ें पूरी रिपोर्ट

tribal society in Jamshedpur
जमशेदपुर में अंधविश्वास
author img

By

Published : Jan 15, 2022, 2:19 PM IST

Updated : Jan 15, 2022, 2:33 PM IST

जमशेदपुरः आज हम डिजिटल इंडिया के युग में जी रहे हैं. लेकिन झारखंड समेत देश के तमाम इलाके में एक बड़ी आबादी अंधविश्वास के साये में जी रही है. झारखंड के जनजातीय समाज में एक ऐसी खौफनाक परंपरा प्रचलित है, जिसे देखकर किसी भी दिल वाले का दिल दहल जाए, जो दर्द और खौफ की कहानियां समेटे हुए है. तुर्रा यह कि यह अंधविश्वास मासूम बच्चों संग किया जा रहा है. इस परंपरा पर रोक लगाने को लेकर राज्य सरकार की ओर से ग्रामीण क्षेत्रों में जागरुकता अभियान चलाने के दावे किए जाते हैं, मगर हमारी रिपोर्ट इसकी पोल खोल रही है और आपके सामने मासूमों के दर्द की ऐसी दास्तान कहने जा रही है, जिससे किसी पत्थर दिल या अंधविश्वासी निर्दयी का ही कलेजा न पसीजेगा. पेश है मासूमों की चीख की पूरी दास्तान.

यह भी पढ़ेंःMakar Sankranti 2022: जानिए वो पुरानी पद्धति, जिससे मकर संक्रांति में मिठास अब भी है कायम?

खनिज संपदा से परिपूर्ण झारखंड में कई ऐसी परंपराएं हैं, जो सदियों से बिना वैज्ञानिक वजह पूछे निभाई जा रहीं हैं. उन्ही परंपराओं में से एक है चिड़ीदाग. पोटका विधानसभा के बोदरा टोला में शनिवार को ग्रामीण महिलाएं हाड़ कंपाती ठंड में अपने बच्चे को गोद में लिए एक पुरोहित के घर पहुंची थी. यहां पुरोहित ने जनजातीय परंपरा के अनुसार एक बच्चे को गर्म लोहे की सींक से दाग दिया. ग्रामीण इसी परंपरा को चिड़ी दाग कहते हैं. ग्रामीण कहते हैं कि इससे बच्चे के पेट की बीमारी दूर हो जाती है.

देखें स्पेशल स्टोरी

मकर संक्रांति के दूसरे दिन होता है चिड़ीदाग का आयोजनः आदिवासी समाज के लोग मकर संक्रांति त्योहार के दूसरे दिन को अखंड मुहुर्त कहते हैं. वर्षों से चली आ रही इस परंपरा के अनुसार मकर संक्रांति में कई तरह के व्यंजन खाने के बाद पेट दर्द न हो. इसको लेकर चिड़ी दाग दिया जाता है. अखंड मुहूर्त के दिन सूर्योदय से पहले गांव का पुरोहित अपने घर के आंगन में अपने ग्राम देवता की पूजा करता है. इस दौरान लकड़ी और गोइठा की आग में तांबे या लोहे की पतली सींक को गर्म करता है.

ऐसे होता है चिड़ीदागः ग्रामीण महिलाएं अपने बच्चे को लेकर पुरोहित के पास आती हैं और पुरोहित उनका नाम और गांव का पता पूछ कर ध्यान लगाकर पूजा करता है. इसके बाद सरसों तेल से जमीन पर दाग देता है और फिर बच्चे के पेट की नाभी के चारों तरफ तेल लगाकर गर्म लोहे की सींक से दागता है. इस दौरान बच्चे की चीख निकलती रहती है. लेकिन पुरानी परंपरा के सामने मां का दर्द भी अनसुना रह जाता है. बच्चे को दागने के बाद पुरोहित उसके सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद देता है और मां अपने रोते बच्चे को चुप कराते हुए घर चली जाती है.

क्यों होता है चिड़ीदागः पुरोहित छोटू सरदार बताते हैं कि उनके दादा परदादा के जमाने से चिड़ी दाग की परंपरा चली आ रही है. यह हमारी सबसे पुरानी परंपरा है. पेट की नस बढ़ जाती है या फिर पेट में दर्द रहता है तो वह चिड़ी दाग से ठीक हो जाती है. उन्होंने कहा कि कमर दर्द के लिए भी चिड़ी दाग दिया जाता है. 21 दिन के बच्चे से लेकर बड़े को चिढ़ी दाग दिया जाता है. ग्रामीण महिलाएं कहती हैं कि उनके परिजन पहले से चिड़ी दाग को मानते आए हैं. इस परंपरा को हमलोग आगे बढ़ा रहे हैं.

चिकित्सक ने परंपरा पर उठाए सवालः गांव की परंपरा पर कई सवाल खड़े होते हैं. मेडिकल साइंस को चुनौती देने वाली यह परंपरा अंधविश्वास पर टिकी है. वहीं आदिवासी समाज के बुद्धिजीवी राम सिंह मुर्मू कहते हैं कि यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है. अब इस परंपरा को खत्म करने की जरूरत है. आज मेडिकल साइंस काफी डेवलप हो चुकी है, जो गांव तक नहीं पहुंची है. वहीं, सदर अस्पताल के वरीय डॉक्टर एबीके बाखला कहते हैं कि समाज मे जागरुकता का अभाव है. अशिक्षा के कारण इन प्रथा को लोग मानते थे. लेकिन अब साइंस काफी आगे बढ़ गई है और चिड़ी दाग से पेट की बीमारी दूर होने वाली बात सरासर गलत है. इसे अंधविश्वास कह सकते हैं.

जमशेदपुरः आज हम डिजिटल इंडिया के युग में जी रहे हैं. लेकिन झारखंड समेत देश के तमाम इलाके में एक बड़ी आबादी अंधविश्वास के साये में जी रही है. झारखंड के जनजातीय समाज में एक ऐसी खौफनाक परंपरा प्रचलित है, जिसे देखकर किसी भी दिल वाले का दिल दहल जाए, जो दर्द और खौफ की कहानियां समेटे हुए है. तुर्रा यह कि यह अंधविश्वास मासूम बच्चों संग किया जा रहा है. इस परंपरा पर रोक लगाने को लेकर राज्य सरकार की ओर से ग्रामीण क्षेत्रों में जागरुकता अभियान चलाने के दावे किए जाते हैं, मगर हमारी रिपोर्ट इसकी पोल खोल रही है और आपके सामने मासूमों के दर्द की ऐसी दास्तान कहने जा रही है, जिससे किसी पत्थर दिल या अंधविश्वासी निर्दयी का ही कलेजा न पसीजेगा. पेश है मासूमों की चीख की पूरी दास्तान.

यह भी पढ़ेंःMakar Sankranti 2022: जानिए वो पुरानी पद्धति, जिससे मकर संक्रांति में मिठास अब भी है कायम?

खनिज संपदा से परिपूर्ण झारखंड में कई ऐसी परंपराएं हैं, जो सदियों से बिना वैज्ञानिक वजह पूछे निभाई जा रहीं हैं. उन्ही परंपराओं में से एक है चिड़ीदाग. पोटका विधानसभा के बोदरा टोला में शनिवार को ग्रामीण महिलाएं हाड़ कंपाती ठंड में अपने बच्चे को गोद में लिए एक पुरोहित के घर पहुंची थी. यहां पुरोहित ने जनजातीय परंपरा के अनुसार एक बच्चे को गर्म लोहे की सींक से दाग दिया. ग्रामीण इसी परंपरा को चिड़ी दाग कहते हैं. ग्रामीण कहते हैं कि इससे बच्चे के पेट की बीमारी दूर हो जाती है.

देखें स्पेशल स्टोरी

मकर संक्रांति के दूसरे दिन होता है चिड़ीदाग का आयोजनः आदिवासी समाज के लोग मकर संक्रांति त्योहार के दूसरे दिन को अखंड मुहुर्त कहते हैं. वर्षों से चली आ रही इस परंपरा के अनुसार मकर संक्रांति में कई तरह के व्यंजन खाने के बाद पेट दर्द न हो. इसको लेकर चिड़ी दाग दिया जाता है. अखंड मुहूर्त के दिन सूर्योदय से पहले गांव का पुरोहित अपने घर के आंगन में अपने ग्राम देवता की पूजा करता है. इस दौरान लकड़ी और गोइठा की आग में तांबे या लोहे की पतली सींक को गर्म करता है.

ऐसे होता है चिड़ीदागः ग्रामीण महिलाएं अपने बच्चे को लेकर पुरोहित के पास आती हैं और पुरोहित उनका नाम और गांव का पता पूछ कर ध्यान लगाकर पूजा करता है. इसके बाद सरसों तेल से जमीन पर दाग देता है और फिर बच्चे के पेट की नाभी के चारों तरफ तेल लगाकर गर्म लोहे की सींक से दागता है. इस दौरान बच्चे की चीख निकलती रहती है. लेकिन पुरानी परंपरा के सामने मां का दर्द भी अनसुना रह जाता है. बच्चे को दागने के बाद पुरोहित उसके सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद देता है और मां अपने रोते बच्चे को चुप कराते हुए घर चली जाती है.

क्यों होता है चिड़ीदागः पुरोहित छोटू सरदार बताते हैं कि उनके दादा परदादा के जमाने से चिड़ी दाग की परंपरा चली आ रही है. यह हमारी सबसे पुरानी परंपरा है. पेट की नस बढ़ जाती है या फिर पेट में दर्द रहता है तो वह चिड़ी दाग से ठीक हो जाती है. उन्होंने कहा कि कमर दर्द के लिए भी चिड़ी दाग दिया जाता है. 21 दिन के बच्चे से लेकर बड़े को चिढ़ी दाग दिया जाता है. ग्रामीण महिलाएं कहती हैं कि उनके परिजन पहले से चिड़ी दाग को मानते आए हैं. इस परंपरा को हमलोग आगे बढ़ा रहे हैं.

चिकित्सक ने परंपरा पर उठाए सवालः गांव की परंपरा पर कई सवाल खड़े होते हैं. मेडिकल साइंस को चुनौती देने वाली यह परंपरा अंधविश्वास पर टिकी है. वहीं आदिवासी समाज के बुद्धिजीवी राम सिंह मुर्मू कहते हैं कि यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है. अब इस परंपरा को खत्म करने की जरूरत है. आज मेडिकल साइंस काफी डेवलप हो चुकी है, जो गांव तक नहीं पहुंची है. वहीं, सदर अस्पताल के वरीय डॉक्टर एबीके बाखला कहते हैं कि समाज मे जागरुकता का अभाव है. अशिक्षा के कारण इन प्रथा को लोग मानते थे. लेकिन अब साइंस काफी आगे बढ़ गई है और चिड़ी दाग से पेट की बीमारी दूर होने वाली बात सरासर गलत है. इसे अंधविश्वास कह सकते हैं.

Last Updated : Jan 15, 2022, 2:33 PM IST
ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.