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1855 के 'हूल' से अस्तित्व में आया संथाल परगना, आंदोलनकारियों की रही है जमीन

1855 के संथाल हूल (आंदोलन ) का प्रत्यक्ष परिणाम था संथाल परगना जिले का निर्माण. बंगाल और बिहार के कुछ क्षेत्र को इसमें शामिल किया गया. राजनीतिक रूप से समृद्ध यह क्षेत्र आंदोलनकारियों की रही है भूमि रही है.

Santhal Pargana
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Published : Jul 25, 2022, 3:45 PM IST

Updated : Jul 25, 2022, 7:06 PM IST

दुमकाः आज से लगभग 167 वर्ष पहले 1855 में संथाल परगना का निर्माण अंग्रेजी शासन व्यवस्था में हुआ था. जिसमें पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद से पाकुड़, महेशपुर और बीरभूम जिले की मलूटी और रानीश्वर, मसलिया, नाला, कुंडहित इलाके को काटकर इसमें मिलाया गया. भागलपुर के भी कुछ क्षेत्र को शामिल करने के बाद संथाल परगना अस्तित्व में आया.

क्या कहते हैं इतिहासकारः दुमका के प्रसिद्ध इतिहासकार सुरेंद्र झा जो संथाल परगना महाविद्यालय के प्रधानाध्यापक भी रह चुके हैं, उनसे संथाल परगना से जुड़े कई तथ्यों पर हमने बात की. उन्होंने बताया कि 1855 में महाजनी प्रथा के साथ अंग्रेजी शासन के विरोध में जो संथाल हूल हुआ था, जिसे इस क्षेत्र के सिदो-कान्हू जैसे कुछ संथाल समुदाय के लोगों ने लीड किया था. यह आंदोलन सीमावर्ती पश्चिम बंगाल के क्षेत्र से होते हुए हजारीबाग तक फैल गया था. हालांकि कुछ ही माह के अंदर ही इस विद्रोह को अंग्रेजों ने कुचल दिया था. सिदो-कान्हू समेत कई विद्रोहियों को फांसी के फंदे से लटका दिया गया था.

सुरेन्द्र झा, इतिहासकार

संथाल हूल शांत होने के बावजूद अंग्रेजी प्रशासकों ने यह महसूस किया कि जिस क्षेत्र में इस तरह के विद्रोह के स्वर फूट सकते हैं. वहां अपनी प्रशासनिक व्यवस्था मजबूत करनी आवश्यक है. इसी को ध्यान में रखते हुए इस क्षेत्र को नया जिला बनाते हुए इसे संथाल परगना का नाम दिया गया. इसमें मुर्शिदाबाद के पाकुड़ - महेशपुर का हिस्सा और बीरभूम जिले के मलूटी-रानीश्वर क्षेत्र को शामिल किया गया. इसके साथ ही भागलपुर का भी कुछ एरिया काट कर इसमें शामिल कर दिया गया. हालांकि जब 1912 में बंगाल से बिहार को अलग कर दिया गया तब संथाल परगना का एरिया बिहार का हिस्सा बना.

सुरेन्द्र झा , इतिहासकार

इतिहासकार सुरेंद्र झा कहते हैं कि इसका जो नामकरण हुआ था वह सौंथाल परगना था. इस शब्द के पीछे उनका कहना है कि यह एक काल्पनिक शब्द था जो बाद में संथाल परगना बन गया. इसे मैं अपनी कक्षाओं में भी विद्यार्थियों को पढ़ाते आया हूं. जहां तक इस क्षेत्र में संथाल समुदाय के आगमन का इतिहास है, वह 18वीं सदी में हुआ था, तब यह क्षेत्र दामिन-ए-कोह कहलाता था और यहां विशेषकर पहाड़िया समुदाय रहा करते थे. पहाड़िया समुदाय कृषि कार्य में रुचि नहीं दिखाते, इसलिए अंग्रेजों ने बंगाल के बीरभूम और हजारीबाग के एरिया से संथाल समुदाय को लाकर बसाना शुरू किया.

सुरेन्द्र झा , इतिहासकार
भागलपुर कमिशनरी का हिस्सा रहा संथाल जिला 1983 में बना खुद प्रमंडलः देश की आजादी के बाद संथाल परगना जिला भागलपुर प्रमंडल का हिस्सा बन गया. भागलपुर से आयुक्त कभी कभार दुमका जिले में आते थे और न्यायपालिका से संबंधित कार्यों का निष्पादन करते. यह क्षेत्र काफी विस्तृत हो गया था. ऐसे में प्रशासनिक ढांचे को मजबूत करने के उद्देश्य से वर्ष 1983 में संथाल परगना जिला से प्रमंडल का रूप लिया और इसके चार अनुमंडल को तत्काल जिला बना दिया गया. जिसमें दुमका, देवघर, साहिबगंज और गोड्डा जिला का निर्माण हुआ. फिर 1992 में साहिबगंज से कटकर पाकुड़ जिला बना. जबकि वर्ष 2002 में जामताड़ा जिला दुमका से अलग होकर अपने अस्तित्व में आया.
शिव शंकर चौधरी, अधिवक्ता, सिविल कोर्ट
संथाल परगना में भागलपुर की भाषा - संस्कृति की दिखती है झलकः संथाल परगना जिला भागलपुर का हिस्सा हुआ करता था. इसके कई क्षेत्र को काटकर मिलाया गया था. ऐसे में संथाल परगना में भागलपुर के भाषा - संस्कृति की झलक दिखाई देती है. देवघर और गोड्डा जिले में अंगिका औऱ उससे मिलती जुलती अंगिका भाषा बोली जाती है. वहीं दुमका के कई इलाकों में संथाली, बंगाली के बाद अंगिका - खोरठा बोलचाल की भाषा है.
कमलाकांत सिन्हा, पूर्व मंत्री
क्या कहते हैं कर्पूरी मंत्रिमंडल के मंत्री और स्थानीय बुद्धिजीवीः एकीकृत बिहार के समय कर्पूरी ठाकुर मंत्रिमंडल में वन मंत्री रहे कमलाकांत सिन्हा जो दुमका के रहने वाले हैं, वे कहते हैं कि संथाल परगना प्रमंडल बनने के बाद इससे जो जिले अलग हुए उनको काफी लाभ मिल रहा है. जिला स्तर के कार्यों के लिए उन्हें लंबी दूरी तय कर दुमका आने की आवश्यकता नहीं है. इससे उन्हें पैसे और समय दोनों की बचत हुई. जबकि दुमका सिविल कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता शिव शंकर चौधरी कहते हैं कि भागलपुर के भाषा संस्कृति की झलक संथाल परगना के कई इलाकों में देखी जा सकती है. संथाल प्रमंडल से कट कर जो छह जिले बने उनका काफी विकास हुआ जो पहले के वर्षों में अनदेखी के शिकार थे. आंदोलनकारियों की भूमि रही है संथाल परगनाः संथाल परगना भले ही पिछड़ा इलाका माना जाता रहा लेकिन यह आंदोलनकारियों की भूमि रही है. 1855 में सिदो कान्हू के नेतृत्व में संथाल हूल हुआ. उसके पहले तिलका मांझी ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल फूंका था. सिदो-कान्हू, चांद- भैरव, फूलो - झानो सहित कई अन्य आंदोलनकारियों ने इस क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया. अगर हम बाद के वर्षों में देखें तो झारखंड मुक्ति मोर्चा के सुप्रीमो शिबू सोरेन जो हजारीबाग के नेमरा के रहने वाले हैं, उन्होंने भी अलग झारखंड राज्य आंदोलन का केंद्र बिंदू संथाल परगना को ही रखा और आखिरकार झारखंड राज्य अस्तित्व में आया. संथाल परगना ने दिए राज्य को तीन - तीन मुख्यमंत्रीः संथाल परगना की भूमि राजनीतिक रूप से का उर्वरक रही है. झारखंड निर्माण के बाद यहां से तीन - तीन मुख्यमंत्री हुए. जिसमें बाबूलाल मरांडी, शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन के नाम शामिल हैं.

दुमकाः आज से लगभग 167 वर्ष पहले 1855 में संथाल परगना का निर्माण अंग्रेजी शासन व्यवस्था में हुआ था. जिसमें पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद से पाकुड़, महेशपुर और बीरभूम जिले की मलूटी और रानीश्वर, मसलिया, नाला, कुंडहित इलाके को काटकर इसमें मिलाया गया. भागलपुर के भी कुछ क्षेत्र को शामिल करने के बाद संथाल परगना अस्तित्व में आया.

क्या कहते हैं इतिहासकारः दुमका के प्रसिद्ध इतिहासकार सुरेंद्र झा जो संथाल परगना महाविद्यालय के प्रधानाध्यापक भी रह चुके हैं, उनसे संथाल परगना से जुड़े कई तथ्यों पर हमने बात की. उन्होंने बताया कि 1855 में महाजनी प्रथा के साथ अंग्रेजी शासन के विरोध में जो संथाल हूल हुआ था, जिसे इस क्षेत्र के सिदो-कान्हू जैसे कुछ संथाल समुदाय के लोगों ने लीड किया था. यह आंदोलन सीमावर्ती पश्चिम बंगाल के क्षेत्र से होते हुए हजारीबाग तक फैल गया था. हालांकि कुछ ही माह के अंदर ही इस विद्रोह को अंग्रेजों ने कुचल दिया था. सिदो-कान्हू समेत कई विद्रोहियों को फांसी के फंदे से लटका दिया गया था.

सुरेन्द्र झा, इतिहासकार

संथाल हूल शांत होने के बावजूद अंग्रेजी प्रशासकों ने यह महसूस किया कि जिस क्षेत्र में इस तरह के विद्रोह के स्वर फूट सकते हैं. वहां अपनी प्रशासनिक व्यवस्था मजबूत करनी आवश्यक है. इसी को ध्यान में रखते हुए इस क्षेत्र को नया जिला बनाते हुए इसे संथाल परगना का नाम दिया गया. इसमें मुर्शिदाबाद के पाकुड़ - महेशपुर का हिस्सा और बीरभूम जिले के मलूटी-रानीश्वर क्षेत्र को शामिल किया गया. इसके साथ ही भागलपुर का भी कुछ एरिया काट कर इसमें शामिल कर दिया गया. हालांकि जब 1912 में बंगाल से बिहार को अलग कर दिया गया तब संथाल परगना का एरिया बिहार का हिस्सा बना.

सुरेन्द्र झा , इतिहासकार

इतिहासकार सुरेंद्र झा कहते हैं कि इसका जो नामकरण हुआ था वह सौंथाल परगना था. इस शब्द के पीछे उनका कहना है कि यह एक काल्पनिक शब्द था जो बाद में संथाल परगना बन गया. इसे मैं अपनी कक्षाओं में भी विद्यार्थियों को पढ़ाते आया हूं. जहां तक इस क्षेत्र में संथाल समुदाय के आगमन का इतिहास है, वह 18वीं सदी में हुआ था, तब यह क्षेत्र दामिन-ए-कोह कहलाता था और यहां विशेषकर पहाड़िया समुदाय रहा करते थे. पहाड़िया समुदाय कृषि कार्य में रुचि नहीं दिखाते, इसलिए अंग्रेजों ने बंगाल के बीरभूम और हजारीबाग के एरिया से संथाल समुदाय को लाकर बसाना शुरू किया.

सुरेन्द्र झा , इतिहासकार
भागलपुर कमिशनरी का हिस्सा रहा संथाल जिला 1983 में बना खुद प्रमंडलः देश की आजादी के बाद संथाल परगना जिला भागलपुर प्रमंडल का हिस्सा बन गया. भागलपुर से आयुक्त कभी कभार दुमका जिले में आते थे और न्यायपालिका से संबंधित कार्यों का निष्पादन करते. यह क्षेत्र काफी विस्तृत हो गया था. ऐसे में प्रशासनिक ढांचे को मजबूत करने के उद्देश्य से वर्ष 1983 में संथाल परगना जिला से प्रमंडल का रूप लिया और इसके चार अनुमंडल को तत्काल जिला बना दिया गया. जिसमें दुमका, देवघर, साहिबगंज और गोड्डा जिला का निर्माण हुआ. फिर 1992 में साहिबगंज से कटकर पाकुड़ जिला बना. जबकि वर्ष 2002 में जामताड़ा जिला दुमका से अलग होकर अपने अस्तित्व में आया.
शिव शंकर चौधरी, अधिवक्ता, सिविल कोर्ट
संथाल परगना में भागलपुर की भाषा - संस्कृति की दिखती है झलकः संथाल परगना जिला भागलपुर का हिस्सा हुआ करता था. इसके कई क्षेत्र को काटकर मिलाया गया था. ऐसे में संथाल परगना में भागलपुर के भाषा - संस्कृति की झलक दिखाई देती है. देवघर और गोड्डा जिले में अंगिका औऱ उससे मिलती जुलती अंगिका भाषा बोली जाती है. वहीं दुमका के कई इलाकों में संथाली, बंगाली के बाद अंगिका - खोरठा बोलचाल की भाषा है.
कमलाकांत सिन्हा, पूर्व मंत्री
क्या कहते हैं कर्पूरी मंत्रिमंडल के मंत्री और स्थानीय बुद्धिजीवीः एकीकृत बिहार के समय कर्पूरी ठाकुर मंत्रिमंडल में वन मंत्री रहे कमलाकांत सिन्हा जो दुमका के रहने वाले हैं, वे कहते हैं कि संथाल परगना प्रमंडल बनने के बाद इससे जो जिले अलग हुए उनको काफी लाभ मिल रहा है. जिला स्तर के कार्यों के लिए उन्हें लंबी दूरी तय कर दुमका आने की आवश्यकता नहीं है. इससे उन्हें पैसे और समय दोनों की बचत हुई. जबकि दुमका सिविल कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता शिव शंकर चौधरी कहते हैं कि भागलपुर के भाषा संस्कृति की झलक संथाल परगना के कई इलाकों में देखी जा सकती है. संथाल प्रमंडल से कट कर जो छह जिले बने उनका काफी विकास हुआ जो पहले के वर्षों में अनदेखी के शिकार थे. आंदोलनकारियों की भूमि रही है संथाल परगनाः संथाल परगना भले ही पिछड़ा इलाका माना जाता रहा लेकिन यह आंदोलनकारियों की भूमि रही है. 1855 में सिदो कान्हू के नेतृत्व में संथाल हूल हुआ. उसके पहले तिलका मांझी ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल फूंका था. सिदो-कान्हू, चांद- भैरव, फूलो - झानो सहित कई अन्य आंदोलनकारियों ने इस क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया. अगर हम बाद के वर्षों में देखें तो झारखंड मुक्ति मोर्चा के सुप्रीमो शिबू सोरेन जो हजारीबाग के नेमरा के रहने वाले हैं, उन्होंने भी अलग झारखंड राज्य आंदोलन का केंद्र बिंदू संथाल परगना को ही रखा और आखिरकार झारखंड राज्य अस्तित्व में आया. संथाल परगना ने दिए राज्य को तीन - तीन मुख्यमंत्रीः संथाल परगना की भूमि राजनीतिक रूप से का उर्वरक रही है. झारखंड निर्माण के बाद यहां से तीन - तीन मुख्यमंत्री हुए. जिसमें बाबूलाल मरांडी, शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन के नाम शामिल हैं.
Last Updated : Jul 25, 2022, 7:06 PM IST
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