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Lok sabha election 2019: रांची जीतने पर बनेगी दिल्ली में सरकार! 15 साल का इतिहास है गवाह - ईटीवा भारत

रांची संसदीय सीट पर 6 मई को वोट डाले जाने हैं लेकिन इस सीट पर अभी तक किसी भी दल ने अपने प्रत्याशी के नाम की घोषणा नहीं की है. दरअसल, रांची संसदीय सीट को सूबे की वीवीआईपी सीट माना जाता है. यहां जीतने वाली पार्टी की केंद्र में सरकार बनाना लगभग तय माना जाता है. लेकिन इस बार इस सीट पर मुकाबला काफी टक्कर का माना जा रहा है.

स्पेशल रिपोर्ट
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Published : Mar 23, 2019, 4:08 PM IST


रांची: लोकसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा के साथ ही प्रत्याशियों के नाम को लेकर कयासों का दौर शुरू हो चुका है. कई सीटिंग सांसदों का टिकट कटने की भी संभावना है. ऐसे में रांची संसदीय सीट पर भी अभी तक किसी भी दल ने अपने प्रत्याशी के नाम की घोषणा की है.

दरअसल, रांची संसदीय सीट सूबे की वीवीआईपी सीट मानी जाती है. यहां जीतनेवाली पार्टी की केंद्र मेंसरकार बनाना लगभग तय माना जाता है. उदाहरण के तौर पर जब 2014 में बीजेपी के रामटलह चौधरी चुनाव जीते तो केंद्र में बीजपी की सरकार बनी. इसके पहले जब दो बार कांग्रेस केंद्र का नेतृत्व कर रही थी तब यहां से सुबोधकांत सहाय चुनाव जीत कर दिल्ली पहुंचे थे. 1999 में भी ऐसा वाक्या देखने को मिल चुका है जब अटल बिहारी बाजपेयी सत्ता के केंद्र में आए थे तब बीजेपी से रामटहल चौधरी चुनाव दिल्ली दरबार पहुंचे थे.

स्पेशल रिपोर्ट

रांची लोकसभा सीट से 2014 का चुनाव जीतने वाले बीजेपी सांसद रामटहल चौधरी छठी बार जीत की उम्मीद पाले बैठे हैं.1952 से 2014 तक 16 बार हुए चुनाव में 5 बार जीत दर्ज करने वाले रामटहल चौधरी के कद को कम तो नहीं आंका जा सकता है. इसका मतलब यह नहीं कि रांची लोकसभा सीट को भाजपा की परंपरागत सीट कह दी जाये. इसकी वजह है शेष चुनाव के नतीजे, 1952 से 2014 के बीच हुए चुनाव के दौरान रांची लोकसभा सीट से सात बार कांग्रेस के प्रत्याशी जीत चुके हैं.1952 में कांग्रेस की टिकट पर अब्दुल इब्राहिम जीते थे. 1967 और 1971 के चुनाव में कांग्रेस के प्रशांत कुमार घोष जीते थे. 1980 और 1984 के चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर शिव प्रसाद साहू की जीत हुई थी लेकिन 1984 के दंगों के बाद रांची लोकसभा सीट पर कांग्रेस की पकड़ ढीली पड़ गई.

1984 के बाद 1989 में हुए चुनाव में जनता दल के टिकट पर सुबोधकांत सहाय जीत कर आए. लेकिन सुबोध कांत सहाय को इस सीट पर कब्जा जमाने के लिए 9 साल तक संघर्ष करना पड़ा. क्योंकि 1991 में जातीय समीकरण में आए बदलाव और राजनीतिक जागरूकता ने भाजपा प्रत्याशी रामटहल चौधरी को पहली बार चुनाव में जीत दिला दी. इसके बाद रामटहल चौधरी यहीं नहीं रुके उन्होंने 1996,1998 और 1999 के चुनाव में भी जीत दर्ज की. 2004 के चुनाव में रांची लोकसभा क्षेत्र के मतदाताओं ने रामटहल चौधरी को कुर्सी से हटा दिया और सुबोधकांत सहाय को सिर आंखों पर बिठा लिया. 2009 के चुनाव में भी कांग्रेस प्रत्याशी सुबोधकांत सहाय को रांची लोकसभा क्षेत्र के वोटरों ने जीत दिलाई.


इधर, 2004 और 2009 का चुनाव कांग्रेस प्रत्याशी से हार चुके बीजेपी के रामटहल चौधरी की नैया 2014 के चुनाव में फिर पार कर गई, तब इसकी वजह थी मोदी लहर. रांची लोकसभा सीट के लिए अब तक हुए चुनाव के आंकड़े बताते हैं कि इस सीट को भाजपा की परंपरागत सीट कहना ठीक नहीं होगा. बेशक रांची लोकसभा क्षेत्र में महतो वोट का प्रभाव है लेकिन इसे भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि अब तक हुए चुनाव में 11 बार गैर महतो प्रत्याशी जीत दर्ज कर चुके हैं. बहरहाल अभी तक यह तय नहीं हो पाया है कि रामटहल चौधरी को एक बार फिर भाजपा अपना प्रत्याशी बनाती है या नहीं. कमोबेश यही स्थिति कांग्रेस नेता सुबोध कांत सहाय के साथ भी है, जानकार बताते हैं कि दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के सामने रामटहल चौधरी और सुबोधकांत सहाय का विकल्प भी नजर नहीं आ रहा है.



रांची: लोकसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा के साथ ही प्रत्याशियों के नाम को लेकर कयासों का दौर शुरू हो चुका है. कई सीटिंग सांसदों का टिकट कटने की भी संभावना है. ऐसे में रांची संसदीय सीट पर भी अभी तक किसी भी दल ने अपने प्रत्याशी के नाम की घोषणा की है.

दरअसल, रांची संसदीय सीट सूबे की वीवीआईपी सीट मानी जाती है. यहां जीतनेवाली पार्टी की केंद्र मेंसरकार बनाना लगभग तय माना जाता है. उदाहरण के तौर पर जब 2014 में बीजेपी के रामटलह चौधरी चुनाव जीते तो केंद्र में बीजपी की सरकार बनी. इसके पहले जब दो बार कांग्रेस केंद्र का नेतृत्व कर रही थी तब यहां से सुबोधकांत सहाय चुनाव जीत कर दिल्ली पहुंचे थे. 1999 में भी ऐसा वाक्या देखने को मिल चुका है जब अटल बिहारी बाजपेयी सत्ता के केंद्र में आए थे तब बीजेपी से रामटहल चौधरी चुनाव दिल्ली दरबार पहुंचे थे.

स्पेशल रिपोर्ट

रांची लोकसभा सीट से 2014 का चुनाव जीतने वाले बीजेपी सांसद रामटहल चौधरी छठी बार जीत की उम्मीद पाले बैठे हैं.1952 से 2014 तक 16 बार हुए चुनाव में 5 बार जीत दर्ज करने वाले रामटहल चौधरी के कद को कम तो नहीं आंका जा सकता है. इसका मतलब यह नहीं कि रांची लोकसभा सीट को भाजपा की परंपरागत सीट कह दी जाये. इसकी वजह है शेष चुनाव के नतीजे, 1952 से 2014 के बीच हुए चुनाव के दौरान रांची लोकसभा सीट से सात बार कांग्रेस के प्रत्याशी जीत चुके हैं.1952 में कांग्रेस की टिकट पर अब्दुल इब्राहिम जीते थे. 1967 और 1971 के चुनाव में कांग्रेस के प्रशांत कुमार घोष जीते थे. 1980 और 1984 के चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर शिव प्रसाद साहू की जीत हुई थी लेकिन 1984 के दंगों के बाद रांची लोकसभा सीट पर कांग्रेस की पकड़ ढीली पड़ गई.

1984 के बाद 1989 में हुए चुनाव में जनता दल के टिकट पर सुबोधकांत सहाय जीत कर आए. लेकिन सुबोध कांत सहाय को इस सीट पर कब्जा जमाने के लिए 9 साल तक संघर्ष करना पड़ा. क्योंकि 1991 में जातीय समीकरण में आए बदलाव और राजनीतिक जागरूकता ने भाजपा प्रत्याशी रामटहल चौधरी को पहली बार चुनाव में जीत दिला दी. इसके बाद रामटहल चौधरी यहीं नहीं रुके उन्होंने 1996,1998 और 1999 के चुनाव में भी जीत दर्ज की. 2004 के चुनाव में रांची लोकसभा क्षेत्र के मतदाताओं ने रामटहल चौधरी को कुर्सी से हटा दिया और सुबोधकांत सहाय को सिर आंखों पर बिठा लिया. 2009 के चुनाव में भी कांग्रेस प्रत्याशी सुबोधकांत सहाय को रांची लोकसभा क्षेत्र के वोटरों ने जीत दिलाई.


इधर, 2004 और 2009 का चुनाव कांग्रेस प्रत्याशी से हार चुके बीजेपी के रामटहल चौधरी की नैया 2014 के चुनाव में फिर पार कर गई, तब इसकी वजह थी मोदी लहर. रांची लोकसभा सीट के लिए अब तक हुए चुनाव के आंकड़े बताते हैं कि इस सीट को भाजपा की परंपरागत सीट कहना ठीक नहीं होगा. बेशक रांची लोकसभा क्षेत्र में महतो वोट का प्रभाव है लेकिन इसे भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि अब तक हुए चुनाव में 11 बार गैर महतो प्रत्याशी जीत दर्ज कर चुके हैं. बहरहाल अभी तक यह तय नहीं हो पाया है कि रामटहल चौधरी को एक बार फिर भाजपा अपना प्रत्याशी बनाती है या नहीं. कमोबेश यही स्थिति कांग्रेस नेता सुबोध कांत सहाय के साथ भी है, जानकार बताते हैं कि दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के सामने रामटहल चौधरी और सुबोधकांत सहाय का विकल्प भी नजर नहीं आ रहा है.


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रांची लोकसभा सीट को भाजपा का परंपरागत सीट कहना सही नहीं, इसकी है कई वजह

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लोकसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा के साथ ही प्रत्याशियों के नाम को लेकर कयासों का दौर शुरू हो चुका है। रांची लोकसभा सीट से 2014 का चुनाव जीतने वाले भाजपा सांसद रामटहल चौधरी छठी बार जीत की उम्मीद पाले बैठे हैं। 1952 से 2014 तक 16 बार हुए चुनाव में 5 बार जीत दर्ज करने वाले रामटहल चौधरी के कद को कम तो नहीं आंका जा सकता है । इसका मतलब यह नहीं कि रांची लोकसभा सीट को भाजपा की परंपरागत सीट कह दी जाये। इसकी वजह है शेष चुनाव के नतीजे। 1952 से 2014 के बीच हुए चुनाव के दौरान रांची लोकसभा सीट से सात बार कांग्रेस के प्रत्याशी जीत चुके हैं। 1952 में कांग्रेस की टिकट पर अब्दुल इब्राहीम जीते थे। 1967 और 1971 के चुनाव में कांग्रेस के प्रशांत कुमार घोष जीते थे। 1980 और 1984 के चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर शिव प्रसाद साहू की जीत हुई थी। लेकिन 1984 के दंगों के बाद रांची लोकसभा सीट पर कांग्रेस की पकड़ ढीली पड़ गई।






Body:1984 के बाद 1989 में हुए चुनाव में जनता दल के टिकट पर सुबोध कांत सहाय जीत कर आए। लेकिन सुबोध कांत सहाय को इस सीट पर कब्जा जमाने के लिए 9 साल तक संघर्ष करना पड़ा। क्योंकि 1991 में जातीय समीकरण में आए बदलाव और राजनीतिक जागरूकता ने भाजपा प्रत्याशी रामटहल चौधरी को पहली बार चुनाव में जीत दिला दी। इसके बाद रामटहल चौधरी नहीं रुके। उन्होंने 1996 ,1998 और 1999 के चुनाव को भी जीता। लेकिन 2004 के चुनाव में रांची लोकसभा क्षेत्र के मतदाताओं ने रामटहल चौधरी को कुर्सी से हटा दिया और सुबोध कांत सहाय को सिर आंखों पर बिठा लिया। 2009 के चुनाव में भी कांग्रेस प्रत्याशी सुबोध कांत सहाय को रांची लोकसभा क्षेत्र के वोटरों ने जीत दिलाई।


Conclusion:2004 और 2009 का चुनाव कांग्रेस प्रत्याशी से हार चुके भाजपा के रामटहल चौधरी की नैया 2014 के चुनाव में फिर पार कर गई ,तब इसकी वजह थी मोदी लहर। रांची लोकसभा सीट के लिए अब तक हुए चुनाव के आंकड़े बताते हैं कि इस सीट को भाजपा की परंपरागत सीट कहना ठीक नहीं होगा। बेशक रांची लोकसभा क्षेत्र में महतो वोट का प्रभाव है लेकिन इसे भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि अब तक हुए चुनाव में 11 बार गैर महतो प्रत्याशी जीत दर्ज कर चुके हैं। बहरहाल अभी तक यह तय नहीं हो पाया है कि रामटहल चौधरी को एक बार फिर भाजपा अपना प्रत्याशी बनाती है या नही। कमोबेश यही स्थिति कांग्रेस नेता सुबोध कांत सहाय के साथ भी है। जानकार बताते हैं कि दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के सामने रामटहल चौधरी और सुबोध कांत सहाय का विकल्प भी नजर नहीं आ रहा है।

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