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झारखंड के 3 पूर्व मुख्यमंत्रियों की प्रतिष्ठा लगी है दांव पर, तीनों में हैं कई समानताएं

झारखंड की 3 सीटों, दुमका, कोडरमार और खूंटी पर सब की नजरें टिकी है. इसकी वजह है शिबू सोरेन, बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा. तीनों झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हैं और इसबार चुनाव लड़ रहे हैं.

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Published : Apr 18, 2019, 8:21 PM IST

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रांची: झारखंड की 14 लोकसभा सीटों के लिए चुनाव की प्रक्रिया जारी है. नामांकन का दौर चल रहा है. महागठबंधन और एनडीए के बीच सीटों का तालमेल हो चुका है, लेकिन चतरा सीट पर आपसी लड़ाई की वजह से महागठबंधन परेशान है तो दूसरी तरफ रांची सीट से रामटहल चौधरी ने बतौर निर्दलीय उम्मीदवारी पेश कर बीजेपी को पशोपेश में डाल रखा है. हालांकि बदलते राजनीतिक समीकरण के बीच झारखंड की 3 सीटों पर सब की नजरें टिकी है. इसकी वजह है शिबू सोरेन, बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा. तीनों झारखंड के मुख्यमंत्री रह चुके हैं.

दुमका सीट से प्रत्याशी झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन जीत दोहराने की कोशिश में हैं तो पिछली बार लोकसभा और विधानसभा का चुनाव हार चुके जेवीएम सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी कोडरमा के रास्ते अपनी राजनीतिक जमीन बचाने में जुटे हैं. वहीं, विधानसभा चुनाव में खरसावां से परास्त होने के बाद अर्जुन मुंडा खूंटी के रास्ते अपने राजनीतिक टारगेट को हासिल करने की फिराक में हैं. खास बात है कि इन तीनों पूर्व मुख्यमंत्रियों में सिर्फ शिबू सोरेन फिलहाल दुमका से सीटिंग सांसद हैं. वहीं, बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा पूर्व में संसद तक पहुंच चुके हैं.

इन तीनों पूर्व मुख्यमंत्रियों में एक और समानता है. तीनों जनजातीय समाज से आते हैं और जनजातीय समाज में इनकी जबरदस्त पकड़ है, लेकिन सत्ता से करीब रहने के मामले में शिबू सोरेन और अर्जुन मुंडा की तुलना में बाबूलाल मरांडी दुर्भाग्यशाली रहे. साल 2000 के नवंबर महीने में राज्य गठन के वक्त बड़े तामझाम से नए झारखंड के पहले मुख्यमंत्री के रूप में बाबूलाल मरांडी की ताजपोशी तो हुई, लेकिन डोमिसाइल विवाद के बाद कुर्सी गंवाते ही वह अलग-थलग पड़ गए. बाद में साल 2006 में उन्होंने झारखंड विकास मोर्चा के नाम से अपनी पार्टी बना कर अपनी पहचान बनाने की कोशिश की, लेकिन 2014 के विधानसभा चुनाव में 8 सीटें जीतने के बाद भी उनके छह विधायक भाजपा में चले गए.

अर्जुन मुंडा और शिबू सोरेन तीन-तीन बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे लेकिन सरकार का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए. राजनीतिक अनुभव के मामले में शिबू सोरेन जेवीएम के बाबूलाल मरांडी और भाजपा के अर्जुन मुंडा से बहुत आगे हैं. वह 8 बार लोकसभा का चुनाव जीत चुके हैं. केंद्रीय मंत्री भी रह चुके हैं और राज्यसभा चुनाव भी जीत कर ऊपरी सदन में जा चुके हैं. बाबूलाल मरांडी ने 1998 के चुनाव में शिबू सोरेन को दुमका में मात दी थी. फिर उन्होंने 2004 का लोकसभा चुनाव कोडरमा सीट से जीता. 2006 में अपनी पार्टी बनाने के बाद बाबूलाल मरांडी ने 2009 का चुनाव भी कोडरमा से जीता.

रही बात अर्जुन मुंडा की तो उन्होंने अपनी राजनीतिक पारी झारखंड मुक्ति मोर्चा से शुरू की. उन्होंने जेएमएम के टिकट पर 1995 में खरसावां सीट से विधानसभा का चुनाव जीता और राज्य गठन के बाद साल 2000 में झामुमो छोड़कर भाजपा में चले आए और लंबे समय तक खरसावां सीट का प्रतिनिधित्व करते रहे. इस दौरान 2009 में उन्हें जमशेदपुर लोकसभा सीट से पार्टी ने प्रत्याशी बनाया और उन्होंने जीत दर्ज की, लेकिन मोदी लहर के बावजूद झामुमो के दशरथ गगराई ने 2014 के विधानसभा चुनाव में उन्हें पटखनी दे दी.

इन तीनों नेताओं में से बाबूलाल मरांडी को राजनीति की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी. साल 2007 में नक्सलियों ने उनके जवान बेटे अनूप मरांडी की हत्या कर दी. इन तीनों नेताओं ने अपने जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे, लेकिन तीन बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बावजूद शिबू सोरेन का कार्यकाल बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा के मुकाबले काफी कम रहा.

उम्र की बात करें शिबू सोरेन 75, बाबूलाल मरांडी 61 और अर्जुन मुंडा 51 साल के हैं. उम्र के लिहाज से शिबू सोरेन के लिए इस चुनाव को अंतिम माना जा रहा है, जबकि बाबूलाल मरांडी महागठबंधन की वैसाखी के भरोसे अपनी राजनीतिक पहचान बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. अर्जुन मुंडा के पास अभी लंबा राजनीतिक सफर बचा है और उन्हें खूंटी से लंबे समय से सांसद रहे करिया मुंडा का भी आशीर्वाद मिल चुका है, लेकिन सीट के मामले में बाबूलाल मरांडी ने शिबू सोरेन और अर्जुन मुंडा की तरह एसटी के लिए रिजर्व सीट से भाग्य आजमाने के बजाय कोडरमा जैसी अनारक्षित सीट को चुना है. यही नहीं भाजपा और भाकपा माले के कारण कोडरमा में बाबूलाल मरांडी को त्रिकोणीय संघर्ष से गुजारना है.

बहरहाल, 6 मई को बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा जबकि 19 मई शाम तक झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन की राजनीतिक किस्मत ईवीएम में कैद हो जाएगी. इन तीनों की किस्मत में क्या आता है इसके 23 मई तक इंतजार करना पड़ेगा.

रांची: झारखंड की 14 लोकसभा सीटों के लिए चुनाव की प्रक्रिया जारी है. नामांकन का दौर चल रहा है. महागठबंधन और एनडीए के बीच सीटों का तालमेल हो चुका है, लेकिन चतरा सीट पर आपसी लड़ाई की वजह से महागठबंधन परेशान है तो दूसरी तरफ रांची सीट से रामटहल चौधरी ने बतौर निर्दलीय उम्मीदवारी पेश कर बीजेपी को पशोपेश में डाल रखा है. हालांकि बदलते राजनीतिक समीकरण के बीच झारखंड की 3 सीटों पर सब की नजरें टिकी है. इसकी वजह है शिबू सोरेन, बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा. तीनों झारखंड के मुख्यमंत्री रह चुके हैं.

दुमका सीट से प्रत्याशी झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन जीत दोहराने की कोशिश में हैं तो पिछली बार लोकसभा और विधानसभा का चुनाव हार चुके जेवीएम सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी कोडरमा के रास्ते अपनी राजनीतिक जमीन बचाने में जुटे हैं. वहीं, विधानसभा चुनाव में खरसावां से परास्त होने के बाद अर्जुन मुंडा खूंटी के रास्ते अपने राजनीतिक टारगेट को हासिल करने की फिराक में हैं. खास बात है कि इन तीनों पूर्व मुख्यमंत्रियों में सिर्फ शिबू सोरेन फिलहाल दुमका से सीटिंग सांसद हैं. वहीं, बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा पूर्व में संसद तक पहुंच चुके हैं.

इन तीनों पूर्व मुख्यमंत्रियों में एक और समानता है. तीनों जनजातीय समाज से आते हैं और जनजातीय समाज में इनकी जबरदस्त पकड़ है, लेकिन सत्ता से करीब रहने के मामले में शिबू सोरेन और अर्जुन मुंडा की तुलना में बाबूलाल मरांडी दुर्भाग्यशाली रहे. साल 2000 के नवंबर महीने में राज्य गठन के वक्त बड़े तामझाम से नए झारखंड के पहले मुख्यमंत्री के रूप में बाबूलाल मरांडी की ताजपोशी तो हुई, लेकिन डोमिसाइल विवाद के बाद कुर्सी गंवाते ही वह अलग-थलग पड़ गए. बाद में साल 2006 में उन्होंने झारखंड विकास मोर्चा के नाम से अपनी पार्टी बना कर अपनी पहचान बनाने की कोशिश की, लेकिन 2014 के विधानसभा चुनाव में 8 सीटें जीतने के बाद भी उनके छह विधायक भाजपा में चले गए.

अर्जुन मुंडा और शिबू सोरेन तीन-तीन बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे लेकिन सरकार का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए. राजनीतिक अनुभव के मामले में शिबू सोरेन जेवीएम के बाबूलाल मरांडी और भाजपा के अर्जुन मुंडा से बहुत आगे हैं. वह 8 बार लोकसभा का चुनाव जीत चुके हैं. केंद्रीय मंत्री भी रह चुके हैं और राज्यसभा चुनाव भी जीत कर ऊपरी सदन में जा चुके हैं. बाबूलाल मरांडी ने 1998 के चुनाव में शिबू सोरेन को दुमका में मात दी थी. फिर उन्होंने 2004 का लोकसभा चुनाव कोडरमा सीट से जीता. 2006 में अपनी पार्टी बनाने के बाद बाबूलाल मरांडी ने 2009 का चुनाव भी कोडरमा से जीता.

रही बात अर्जुन मुंडा की तो उन्होंने अपनी राजनीतिक पारी झारखंड मुक्ति मोर्चा से शुरू की. उन्होंने जेएमएम के टिकट पर 1995 में खरसावां सीट से विधानसभा का चुनाव जीता और राज्य गठन के बाद साल 2000 में झामुमो छोड़कर भाजपा में चले आए और लंबे समय तक खरसावां सीट का प्रतिनिधित्व करते रहे. इस दौरान 2009 में उन्हें जमशेदपुर लोकसभा सीट से पार्टी ने प्रत्याशी बनाया और उन्होंने जीत दर्ज की, लेकिन मोदी लहर के बावजूद झामुमो के दशरथ गगराई ने 2014 के विधानसभा चुनाव में उन्हें पटखनी दे दी.

इन तीनों नेताओं में से बाबूलाल मरांडी को राजनीति की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी. साल 2007 में नक्सलियों ने उनके जवान बेटे अनूप मरांडी की हत्या कर दी. इन तीनों नेताओं ने अपने जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे, लेकिन तीन बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बावजूद शिबू सोरेन का कार्यकाल बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा के मुकाबले काफी कम रहा.

उम्र की बात करें शिबू सोरेन 75, बाबूलाल मरांडी 61 और अर्जुन मुंडा 51 साल के हैं. उम्र के लिहाज से शिबू सोरेन के लिए इस चुनाव को अंतिम माना जा रहा है, जबकि बाबूलाल मरांडी महागठबंधन की वैसाखी के भरोसे अपनी राजनीतिक पहचान बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. अर्जुन मुंडा के पास अभी लंबा राजनीतिक सफर बचा है और उन्हें खूंटी से लंबे समय से सांसद रहे करिया मुंडा का भी आशीर्वाद मिल चुका है, लेकिन सीट के मामले में बाबूलाल मरांडी ने शिबू सोरेन और अर्जुन मुंडा की तरह एसटी के लिए रिजर्व सीट से भाग्य आजमाने के बजाय कोडरमा जैसी अनारक्षित सीट को चुना है. यही नहीं भाजपा और भाकपा माले के कारण कोडरमा में बाबूलाल मरांडी को त्रिकोणीय संघर्ष से गुजारना है.

बहरहाल, 6 मई को बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा जबकि 19 मई शाम तक झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन की राजनीतिक किस्मत ईवीएम में कैद हो जाएगी. इन तीनों की किस्मत में क्या आता है इसके 23 मई तक इंतजार करना पड़ेगा.

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रांची: झारखंड की 14 लोकसभा सीटों के लिए चुनाव की प्रक्रिया जारी है. नामांकन का दौर चल रहा है. महागठबंधन और एनडीए के बीच सीटों का तालमेल हो चुका है, लेकिन चतरा सीट पर आपसी लड़ाई की वजह से महागठबंधन परेशान है तो दूसरी तरफ रांची सीट से रामटहल चौधरी ने बतौर निर्दलीय उम्मीदवारी पेश कर बीजेपी को पशोपेश में डाल रखा है. हालांकि बदलते राजनीतिक समीकरण के बीच झारखंड की 3 सीटों पर सब की नजर टिकी है. इसकी वजह है शिबू सोरेन, बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा. तीनों झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री रह चुके हैं.



दुमका सीट से प्रत्याशी झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन जीत दोहराने की कोशिश में हैं तो पिछली बार लोकसभा और विधानसभा का चुनाव हार चुके जेवीएम सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी कोडरमा के रास्ते अपनी राजनीतिक जमीन बचाने में जुटे हैं. वहीं, विधानसभा चुनाव में खरसावां से परास्त होने के बाद अर्जुन मुंडा खूंटी के रास्ते अपने राजनीतिक टारगेट को हासिल करने की फिराक में हैं. खास बात है कि इन तीनों पूर्व मुख्यमंत्रियों में सिर्फ शिबू सोरेन फिलहाल दुमका से सीटिंग सांसद हैं. वहीं, बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा पूर्व में संसद तक पहुंच चुके हैं.



इन तीनों पूर्व मुख्यमंत्रियों में एक और समानता है. तीनों जनजातीय समाज से आते हैं और जनजातीय समाज में इनकी जबरदस्त पकड़ है, लेकिन सत्ता से करीब रहने के मामले में शिबू सोरेन और अर्जुन मुंडा की तुलना में बाबूलाल मरांडी दुर्भाग्यशाली रहे. साल 2000 के नवंबर महीने में राज्य गठन के वक्त बड़े तामझाम से नए झारखंड के पहले मुख्यमंत्री के रूप में बाबूलाल मरांडी की ताजपोशी तो हुई, लेकिन डोमिसाइल विवाद के बाद कुर्सी गंवाते ही वह अलग-थलग पड़ गए. बाद में साल 2006 में उन्होंने झारखंड विकास मोर्चा के नाम से अपनी पार्टी बना कर अपनी पहचान बनाने की कोशिश की, लेकिन 2014 के विधानसभा चुनाव में 8 सीटें जीतने के बाद भी उनके छह विधायक भाजपा में चले गए.



अर्जुन मुंडा और शिबू सोरेन तीन-तीन बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे लेकिन सरकार का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए. राजनीतिक अनुभव के मामले में शिबू सोरेन जेवीएम के बाबूलाल मरांडी और भाजपा के अर्जुन मुंडा से बहुत आगे हैं. वह 8 बार लोकसभा का चुनाव जीत चुके हैं. केंद्रीय मंत्री भी रह चुके हैं और राज्यसभा चुनाव भी जीत कर ऊपरी सदन में जा चुके हैं. बाबूलाल मरांडी ने 1998 के चुनाव में शिबू सोरेन को दुमका में मात दी थी. फिर उन्होंने 2004 का लोकसभा चुनाव कोडरमा सीट से जीता. 2006 में अपनी पार्टी बनाने के बाद बाबूलाल मरांडी ने 2009 का चुनाव भी कोडरमा से जीता.

रही बात अर्जुन मुंडा की तो उन्होंने अपनी राजनीतिक पारी झारखंड मुक्ति मोर्चा से शुरू की. उन्होंने जेएमएम के टिकट पर 1995 में खरसावां सीट से विधानसभा का चुनाव जीता और राज्य गठन के बाद साल 2000 में झामुमो छोड़कर भाजपा में चले आए और लंबे समय तक खरसावां सीट का प्रतिनिधित्व करते रहे. इस दौरान 2009 में उन्हें जमशेदपुर लोकसभा सीट से पार्टी ने प्रत्याशी बनाया और उन्होंने जीत दर्ज की, लेकिन मोदी लहर के बावजूद झामुमो के दशरथ गगराई ने 2014 के विधानसभा चुनाव में उन्हें पटखनी दे दी.



इन तीनों नेताओं में से बाबूलाल मरांडी को राजनीति की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी. साल 2007 में नक्सलियों ने उनके जवान बेटे अनूप मरांडी की हत्या कर दी. इन तीनों नेताओं ने अपने जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे, लेकिन तीन बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बावजूद शिबू सोरेन का कार्यकाल बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा के मुकाबले काफी कम रहा.

उम्र की बात करें शिबू सोरेन 75, बाबूलाल मरांडी 61 और अर्जुन मुंडा 51 साल के हैं. उम्र के लिहाज से शिबू सोरेन के लिए इस चुनाव को अंतिम माना जा रहा है, जबकि बाबूलाल मरांडी महागठबंधन की वैसाखी के भरोसे अपनी राजनीतिक पहचान बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. अर्जुन मुंडा के पास अभी लंबा राजनीतिक सफर बचा है और उन्हें खूंटी से लंबे समय से सांसद रहे करिया मुंडा का भी आशीर्वाद मिल चुका है, लेकिन सीट के मामले में बाबूलाल मरांडी ने शिबू सोरेन और अर्जुन मुंडा की तरह एसटी के लिए रिजर्व सीट से भाग्य आजमाने के बजाय कोडरमा जैसी अनारक्षित सीट को चुना है. यही नहीं भाजपा और भाकपा माले के कारण कोडरमा में बाबूलाल मरांडी को त्रिकोणीय संघर्ष से गुजारना है.



बहरहाल, 6 मई को बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा जबकि 19 मई शाम तक झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन की राजनीतिक किस्मत ईवीएम में कैद हो जाएगी. इन तीनों की किस्मत में क्या आता है इसके 23 मई तक इंतजार करना पड़ेगा.


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