रांचीः झारखंड की राजधानी रांची से करीब 50 किलोमीटर दूर एक प्रखंड है बेड़ो. लगभग 388 वर्ग किलोमीटर में फैले बेड़ो की जनसंख्या 1 लाख 31 हजार 713 है. इस इलाके के ज्यादातर लोगों के पास कभी पलायन के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं था. क्योंकि यहां बरसात में बाढ़ बर्बादी लाती तो गर्मियों में सुखाड़ का सितम होता था. लेकिन अब बरसाती नदी बदलाव ला रही है. इलाके से पानी की समस्या खत्म हो चुकी है और पलायन रुक गया है. यहां के किसान खेती पर निर्भर हैं और उन्हें सिंचाई के लिए सालोंभर पानी मिलता है. इन गांवों में साल में तीन फसलें उपजाई जा सकती हैं.
बदलाव का ये कमाल महज चौथी क्लास पास एक शख्स ने कर दिखाया है, जिसकी कल्पना बड़े ओहदेदार इंजीनियर्स भी नहीं कर सके थे. इनका नाम है सिमोन उरांव. एक शख्स ने कैसे पूरे इलाके की तस्वीर बदल दी, उसकी कहानी शुरू हुई करीब 65 साल पहले. खेक्साटोली के पुश्तैनी घर में उन्होंने होश संभाला. उन्होंने बचपन से देखा कि बारिश का पानी खेतों में नहीं ठहरता था. ठीक से खेती नहीं हो पाती थी. पानी रोकने के लिए पिता परेशान रहते थे और यहीं से सिमोन की सोच विकसित होने लगी.
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श्रमदान से बना बांध
सिमोन ने साल 1961 में गांव के लोगों को गोलबंद कर पहला बांध बनाना शुरू किया, जो करीब 9 साल बाद1970 में तैयार हुआ. उन्होंने सबसे पहले पहाड़ी के ऊपर ऐसे स्थान को चुना, जहां बारिश का पानी जमा होता था. फिर ग्रामीणों के साथ मिलकर 45 फीट ऊंचा गायघाट बांध बनाया. बांध के पानी को नीचे तालाब में उतारा. इसके बाद साढे 5 हजार फीट और साढ़े 3 हजार फीट की नहर काटी गई.
गांव में रुका पलायन
सिमोन ने लगभग एक दशक की कड़ी मेहनत के बाद नरपत्रा, झरिया और खरवागढ़ा तीन बांध, छह तालाब और कुओं की लंबी श्रृंखला खड़ी कर दी. सिमोन ने ऐसा तरीका निकाला कि बारिश का पानी पहले एक डैम से दूसरे डैम में भरता है. फिर तालाबों और कुओं में जाता है. इसके बाद जब पानी सरप्लस हो जाता है तो नहरों के जरिए खेतों तक पहुंचता है. इन नहरों से 7 गांवों में सिंचाई की सुविधा मिल रही है. सिंचाई सुविधा बहाल हो जाने के बाद लोग तीन-तीन फसल लेने लगे. जिन ग्रामीणों की भूमि जलाशयों के निर्माण में चली गई, उन परिवारों को मत्स्य पालन से जोड़ दिया. ग्रामीण खेती-किसानी से जुड़े तो पलायन रुक गया और लोग आत्मनिर्भर होते गए.
सिमोन को पद्मश्री सम्मान
सिमोन को जल, वन और पर्यावरण संरक्षण के लिए 2016 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया. अब कई गांव इस मॉडल को अपना रहे हैं. उन्होंने श्रमदान के जरिए छह गांवों में तालाब खुदवाए. सिमोन उरांव का फॉर्मूला है- देखो, सीखो, करो, खाओ और खिलाओ. उनके अनुसार धरती सोना है. जमीन फसाद की जड़ भी है और विकास का साधन भी. सिमोन बताते हैं कि बांध के लिए जमीन को डुबाना नहीं है और न ही विस्थापन की जरूरत है. बस छोटे-छोटे तालाब बनाकर भी बड़ा काम हो सकता है.
बेड़ो प्रखंड के 12 गांव के लोग इन्हें राजा साहब कहते हैं. सिमोन से जलपुरूष बनने के लिए इन्हें लंबा सफर तय करना पड़ा. पद्मश्री सिमोन उरांव ने अपनी जिंदगी के छह दशक जल, जंगल और जमीन को बचाने में समर्पित कर दिया. अब वे 85 साल के हो चुके हैं लेकिन उनका जोश और जज्बा आज भी नौजवानों से बढ़कर है. उन्होंने जल प्रबंधन के क्षेत्र में जो कर दिखाया है, वह सिर्फ बेड़ो के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए विकास का पैमाना बन सकता है.