रांची: झारखंड में तमाम वैसी चीजें हैं जो एक राज्य को विकसित बना सकती हैं. खनिजों का बेशुमार भंडार है. झरने, पेड़-पहाड़ की भरमार है. अब सवाल है कि राजनीति की कसौटी पर झारखंड कहां खड़ा है, इसको एक वाक्य में समझा जा सकता है, जैसे यह कि 28वें राज्य के रूप में गठन के 20 साल बाद तक झारखंड में किसी भी पार्टी को चुनाव में पूर्ण बहुमत नहीं मिला, लेकिन सरकारें तो चलती रहती हैं. चाहे जोड़-तोड़ कर बनें या तोड़-मरोड़ कर. पिछले 20 वर्षों की राजनीति में झारखंड में एक से एक गुल खिले.
5 वर्ष के कार्यकाल के हिसाब से जहां चार सरकारें बननी थी, वहां 11 सरकारें बनीं. राज्य गठन से लेकर साल 2014 के विधानसभा चुनाव के पहले तक तमाम सरकारों की चाबी चंद निर्दलीय विधायकों की जेब में रही.
15 नवंबर 2000 को जब झारखंड बना तो भाजपा ने बाबूलाल मरांडी को कमान सौंपी. 28 महीने के भीतर ही झारखंड के प्रथम मुख्यमंत्री रहे बाबूलाल मरांडी को डोमिसाइल की आग में कुर्सी गंवानी पड़ी. दांवपेच के कारण भाजपा ने बाबूलाल मरांडी के कैबिनेट में कल्याण मंत्री रहे युवा आदिवासी अर्जुन मुंडा को सत्ता के शीर्ष पर बिठा दिया. यहां तक तो फिर भी ठीक था.
2005 से 2009 के बीच चार मुख्यमंत्री
जब 2005 में विधानसभा का पहला चुनाव हुआ तो झारखंड की राजनीति की दशा और दिशा ही बदल गई. किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला. फिर भी शिबू सोरेन तीसरे मुख्यमंत्री बन गए. मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया. जब सदन में बहुमत साबित करने की बात आई तो यूपीए में शामिल कमलेश सिंह और जोबा मांझी पलट गए. 10 दिन में ही शिबू सोरेन को इस्तीफा देना पड़ा. अब चौथी सरकार बनने की बारी थी. इसके लिए भी जबरदस्त खेल हुआ. अपनी गोटी सेट करने के लिए भाजपा ने निर्दलीयों को जोड़ा और जयपुर में सैर कराते कराते अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में चौथी सरकार बना ली.
12 मार्च 2005 से 14 सितंबर 2006 की तारीख पहुंचते-पहुंचते निर्दलीयों के समर्थन में चल रही अर्जुन मुंडा की सरकार में भी सेंध लग गयी. 2005 के चुनाव में भाजपा का टिकट कटने से नाराज और बतौर निर्दलीय चुनाव जीतकर आए मधु कोड़ा को झामुमो, कांग्रेस ने साध लिया. तब ऐसा हुआ कि 18 सितंबर 2006 को निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा मुख्यमंत्री बन गए. झारखंड में यह पांचवी सरकार थी.
मधु कोड़ा के नेतृत्व में सरकार चलने लगी और देखते-देखते भ्रष्टाचार के मामले सामने आने लगे तब निर्दलीयों का बोलबाला था. फिर प्लॉटिंग शुरू हुई और मधु कोड़ा के 2 वर्ष का कार्यकाल पूरा होने के एक माह पहले ही सीएम की कुर्सी चली गई. अब बारी थी छठी सरकार की. तब कांग्रेस ने राजद और निर्दलीयों को मिलाकर शिबू सोरेन का साथ दिया. आंकड़े बन गए और 27 अगस्त 2008 को शिबू सोरेन झारखंड के छठे मुख्यमंत्री बन गए. बतौर मुख्यमंत्री शिबू सोरेन की यह दूसरी पारी थी. 27 अगस्त 2008 से 12 जनवरी 2009 की तारीख आते ही शिबू सोरेन को फिर कुर्सी गंवानी पड़ी. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि मुख्यमंत्री रहते हुए तमाड़ विधानसभा उपचुनाव में उनकी हार हो गई.
राष्ट्रपति शासन में 2009 का चुनाव
राजनीतिक अस्थिरता के कारण पहली बार 19 जनवरी 2009 को झारखंड में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा. राष्ट्रपति शासन के दौरान ही 2009 में झारखंड में दूसरा विधानसभा चुनाव हुआ. इस बार भी किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. शिबू सोरेन मुख्यमंत्री पद के लिए अड़े रहे तब आजसू और भाजपा के सहयोग से शिबू सोरेन तीसरी बार 30 दिसंबर 2009 को मुख्यमंत्री के पद पर काबिज हुए और झारखंड को सातवां मुख्यमंत्री मिला, तब शिबू सोरेन लोक सभा सांसद थे. संसद में यूपीए के पक्ष में वोट देने के कारण भाजपा ने शिबू सोरेन से अपना समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गई.
नतीजा यह हुआ कि झारखंड में दूसरी बार 1 जून 2010 को राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा. राष्ट्रपति शासन के दौरान आठवीं सरकार बनने की पटकथा तैयार होने लगी. अपने पुराने जख्म बुलाकर भाजपा और झामुमो एक दूसरे के करीब आ गए. दोनों दलों में 28-28 महीने सरकार चलाने की शर्त पर सहमति बनी और अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में झारखंड को आठवां मुख्यमंत्री मिला. बतौर मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा की यह तीसरी पारी थी. लेकिन 28 माह पूरा होने से पहले ही झामुमो ने स्थानीयता के मुद्दे पर समर्थन वापस ले लिया. राजनीतिक अस्थिरता के कारण झारखंड में 18 जनवरी 2013 को तीसरी बार राष्ट्रपति शासन लगा. यहां से झारखंड की राजनीति का नया चैप्टर शुरू हुआ.
शिबू सोरेन ने अपने बेटे हेमंत सोरेन को राजनीति के फ्रंट फुट पर लाया. राष्ट्रपति शासन का समय पूरा होने से पहले ही हेमंत सोरेन की बिसात पर कांग्रेस और निर्दलीयों के समर्थन से झारखंड में नौंवी सरकार बनी. 13 जुलाई 2013 को हेमंत सोरेन पहली बार मुख्यमंत्री बने. हेमंत सोरेन के कार्यकाल में ही झारखंड में तीसरा विधानसभा चुनाव हुआ.
2014 में परिपक्व हुई झारखंड की राजनीति
2014 के विधानसभा चुनाव पर पूरे देश की नजर थी. 14 वर्षों के राजनीतिक उथल-पुथल से ऊब चुकी झारखंड की राजनीति नया अध्याय लेकर सामने आई. यह वह दौर था जब राज्य गठन के 14 वर्ष बाद पहली बार रघुवर दास के रूप में झारखंड को गैर आदिवासी के रूप में 10वां मुख्यमंत्री मिला. 37 सीटों के साथ भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और 5 सीटें लेकर आई आजसू के साथ मिलकर सरकार बन गई लेकिन भाजपा इस बात को समझ रही थी कि आजसू के सहारे सरकार को खींचना मुश्किल होगा. लिहाजा जेवीएम के 8 में से 6 विधायक तोड़ दिए गए. भाजपा को अपने बूते बहुमत का आंकड़ा मिल गया. दबाव की राजनीति खत्म हो गई और ऐसा पहली बार हुआ जब झारखंड के किसी मुख्यमंत्री ने हनक के साथ अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा किया.
2019 से चुनाव पूर्व गठबंधन की राजनीति शुरु
अब बारी थी 2019 के विधानसभा चुनाव की. झारखंड को राजनीतिक स्थिरता के फायदे समझ आ गए थे. अपने कुछ फैसलों और सहयोगियों के साथ सख्त व्यवहार के कारण रघुवर दास को हार का सामना करना पड़ा.
हेमंत सोरेन के नेतृत्व में यूपीए को स्पष्ट बहुमत मिला. 30 सीटों पर जीत के साथ झामुमो सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आई. बतौर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की दूसरी पारी शुरू हुई और इस तरह झारखंड को 11वां मुख्यमंत्री मिला. 2014 के बाद निर्दलीय कल्चर को जनता ने नकार दिया.