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झारखंड में ओबीसी की सिमटती ताकत, संख्या में टॉप लेकिन अधिकार लेने में जीरो - Jharkhand news

झारखंड में ओबीसी आरक्षण के मुद्दे पर हमेशा से सियासत होती आ रही है. बावजूद इसके जमीन पर कुछ होता नहीं दिखता. आज भी झारखंड में पिछड़ी जातियां अधिकार के मामले में हाशिये पर हैं. भले ही ओबीसी के विधायक सदन में सबसे ज्यादा हैं, लेकिन अधिकार लेने के मामले में ये पीछे रह जाते हैं.

Shrinking power of OBC in Jharkhand
Shrinking power of OBC in Jharkhand
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Published : Mar 30, 2022, 4:11 PM IST

रांची: लोकतंत्र में संख्या बल की ही पूजा होती है. संख्या है तो जीत है, संख्या है तो वैल्यू है, संख्या के बगैर आवाज दूर तलक नहीं जाती, लेकिन झारखंड में तो माजरा कुछ और ही है. संख्या, बुलंद आवाज और आर्थिक संपन्नता के बावजूद झारखंड में ओबीसी अधिकार के मामले में हाशिये पर हैं. इसकी पटकथा लिखी गई 15 नवंबर 2000 को जब 28वें राज्य के रूप में झारखंड अस्तित्व में आया.

14 नवंबर तक जिस ओबीसी समाज को एकीकृत बिहार में 27 प्रतिशत आरक्षण मिलता था. झारखंड राज्य बनने के बाद वह एक झटके में 14 प्रतिशत पर आ गया. इसमें पिछड़ा वर्ग अनुसूची-1 के लिए 8 फीसदी और अनुसूची-2 के लिए 6 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था है. जबकि दावा है कि राज्य में ओबीसी की आबादी करीब 50 प्रतिशत है. दूसरी तरफ 2011 की जनगणना के मुताबिक एसटी की आबादी 26.2 प्रतिशत है. इस तुलना में एसटी समाज को 26 प्रतिशत आरक्षण प्राप्त है. एससी की आबादी 12.08 प्रतिशत है, इस वर्ग को 10 प्रतिशत आरक्षण मिला है.

खास बात यह है साल 2001 में इस मसले पर मंथन हुआ था. मंत्रिमंडलीय उपसमिति ने राज्य में 73 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की थी. इसके तहत एसटी को 32 फीसदी, एससी को 12 फीसदी, अत्यंत पिछड़ा वर्ग को 18 फीसदी और पिछड़ा वर्ग के लिए 9 फीसदी आरक्षण की अनुशंसा की गई थी. हालांकि झारखंड हाईकोर्ट ने आरक्षण की सीमा 50 फीसदी रखने का अंतरिम आदेश पारित कर दिया था. तब से झारखंड का ओबीसी समाज वाजिब हिस्सेदारी की आवाज उठा रहा है.

ये भी पढ़ें: झारखंड में ओबीसी आरक्षण पर राजनीति, हाशिये पर पड़े समुदाय की नहीं फिक्र

अब सवाल है कि संख्या बल में ज्यादा होने के बावजूद यहां की पिछड़ी जातियां हक के मामले में क्यों पिछड़ी हुई हैं. वो भी तब जब 81 विधानसभा सीटों वाले सदन में ओबीसी कोटे के माननीयों की संख्या 25 है. इनमें भाजपा के सबसे ज्यादा 11 विधायक हैं. इसके अलावा कांग्रेस के छह, झामुमो के पांच, आजसू के दो विधायकों के साथ-साथ एक निर्दलीय विधायक भी हैं जो ओबीसी समाज से आते हैं. सदन में इस वर्ग का इतना प्रतिनिधित्व है कि जब चाहे किसी भी सरकार की सेहत बिगाड़ी जा सकती है. बावजूद इसके इस राज्य का ओबीसी समाज अपने अधिकारों से वंचित है.

ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण पर अधिकार की बातें सभी राजनीतिक पार्टियां करती आ रही हैं. सत्ताधारी झामुमो, कांग्रेस और राजद भी इसके पैरोकार हैं. मुख्य विपक्षी भाजपा भी ओबीसी के हक की बात करती हैं. लेकिन आजसू ऐसी पार्टी है जो हर कार्यक्रम में ओबीसी के आरक्षण में इजाफा, पंचायत चुनाव में भागीदारी की आवाज बुलंद करती रहती है. जब जब यह मामला विधानसभा में उठता है, तब तब एक ही जवाब आता है कि सरकार इसको लेकर चिंतित है.

ये भी पढ़ें: झारखंड में ओबीसी की हकमारी! जनसंख्या अधिक, आरक्षण कम

पिछले शीतकालीन सत्र में संसदीय कार्यमंत्री आलमगीर आलम ने कहा था कि आने वाले समय में एक कमेटी का गठन किया जाएगा. यह मामला 2022 के बजट सत्र में भी उठा. इसपर सीएम की तरफ से भी जवाब आया, लेकिन जवाब में नया कुछ नहीं था. ऐसा लगता है कि यह एक रटा रटाया मुद्दा बनकर रह गया है. हद तो यह है कि सदन में इस मांग को मुखर अंदाज में उठाने पर एक ही जवाब आता है कि यह व्यवस्था पूर्वर्ती भाजपा सरकार दी देन है. जिसमें आजसू की सहभागिता रही है. लिहाजा, जवाब तो भाजपा को देना चाहिए. यह भी कहा जाता कि 2014 से 2019 तक रघुवर दास मुख्यमंत्री थे. खुद ओबीसी समाज से आते हैं. अगर उनको फिक्र थी तो पिछड़ों को उनका हक क्यों नहीं दिलवाया.

सरकारी नौकरी में हिस्सेदारी तो दूर पंचायत चुनाव को लेकर भी ओबीसी को झटका लग गया है. सुप्रीम कोर्ट का हवाला देकर ट्रिपल टेस्ट के जरिए पंचायत चुनाव में प्रतिनिधित्व की मांग की गई थी. लेकिन राज्य सरकार की दलील है कि अगर चुनाव में और विलंब कराया गया तो केंद्र से पंचायतों के विकास के लिए मिलने वाली बड़ी राशि से हाथ धोना पड़ जाएगा. यानी पंचायत में वाजिब प्रतिनिधत्व का ओबीसी समाज का सपना भी अधूरा रह गया.

खास बात यह है कि अलग झारखंड राज्य के आंदोलन को धार देने में यहां के मूलवासी समाज की भूमिका अहम रही है. स्व.बिनोद बिहारी महतो. शैलेंद्र महतो, सुधीर महतो, सुनील महतो, टेकलाल महतो, मथुरा महतो सरीके नेताओं ने एक अलग राज्य के निर्माण में अहम भूमिका निभाई. राज्य बनने के बाद हर कैबिनेट में ओबीसी समाज को अच्छी हिस्सेदारी भी मिली. सीएम और डिप्टी सीएम का पद भी मिला. लेकिन जो चाहिए था वो नहीं मिला. पता नहीं यह लड़ाई कब तक चलेगी. गाहे बगाहे सदन से लेकर राजभवन तक ओबीसी आरक्षण का मुद्दा पहुंचता रहता है और उसी रफ्तार से फिर ठंडा भी पड़ जाता है.

रांची: लोकतंत्र में संख्या बल की ही पूजा होती है. संख्या है तो जीत है, संख्या है तो वैल्यू है, संख्या के बगैर आवाज दूर तलक नहीं जाती, लेकिन झारखंड में तो माजरा कुछ और ही है. संख्या, बुलंद आवाज और आर्थिक संपन्नता के बावजूद झारखंड में ओबीसी अधिकार के मामले में हाशिये पर हैं. इसकी पटकथा लिखी गई 15 नवंबर 2000 को जब 28वें राज्य के रूप में झारखंड अस्तित्व में आया.

14 नवंबर तक जिस ओबीसी समाज को एकीकृत बिहार में 27 प्रतिशत आरक्षण मिलता था. झारखंड राज्य बनने के बाद वह एक झटके में 14 प्रतिशत पर आ गया. इसमें पिछड़ा वर्ग अनुसूची-1 के लिए 8 फीसदी और अनुसूची-2 के लिए 6 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था है. जबकि दावा है कि राज्य में ओबीसी की आबादी करीब 50 प्रतिशत है. दूसरी तरफ 2011 की जनगणना के मुताबिक एसटी की आबादी 26.2 प्रतिशत है. इस तुलना में एसटी समाज को 26 प्रतिशत आरक्षण प्राप्त है. एससी की आबादी 12.08 प्रतिशत है, इस वर्ग को 10 प्रतिशत आरक्षण मिला है.

खास बात यह है साल 2001 में इस मसले पर मंथन हुआ था. मंत्रिमंडलीय उपसमिति ने राज्य में 73 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की थी. इसके तहत एसटी को 32 फीसदी, एससी को 12 फीसदी, अत्यंत पिछड़ा वर्ग को 18 फीसदी और पिछड़ा वर्ग के लिए 9 फीसदी आरक्षण की अनुशंसा की गई थी. हालांकि झारखंड हाईकोर्ट ने आरक्षण की सीमा 50 फीसदी रखने का अंतरिम आदेश पारित कर दिया था. तब से झारखंड का ओबीसी समाज वाजिब हिस्सेदारी की आवाज उठा रहा है.

ये भी पढ़ें: झारखंड में ओबीसी आरक्षण पर राजनीति, हाशिये पर पड़े समुदाय की नहीं फिक्र

अब सवाल है कि संख्या बल में ज्यादा होने के बावजूद यहां की पिछड़ी जातियां हक के मामले में क्यों पिछड़ी हुई हैं. वो भी तब जब 81 विधानसभा सीटों वाले सदन में ओबीसी कोटे के माननीयों की संख्या 25 है. इनमें भाजपा के सबसे ज्यादा 11 विधायक हैं. इसके अलावा कांग्रेस के छह, झामुमो के पांच, आजसू के दो विधायकों के साथ-साथ एक निर्दलीय विधायक भी हैं जो ओबीसी समाज से आते हैं. सदन में इस वर्ग का इतना प्रतिनिधित्व है कि जब चाहे किसी भी सरकार की सेहत बिगाड़ी जा सकती है. बावजूद इसके इस राज्य का ओबीसी समाज अपने अधिकारों से वंचित है.

ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण पर अधिकार की बातें सभी राजनीतिक पार्टियां करती आ रही हैं. सत्ताधारी झामुमो, कांग्रेस और राजद भी इसके पैरोकार हैं. मुख्य विपक्षी भाजपा भी ओबीसी के हक की बात करती हैं. लेकिन आजसू ऐसी पार्टी है जो हर कार्यक्रम में ओबीसी के आरक्षण में इजाफा, पंचायत चुनाव में भागीदारी की आवाज बुलंद करती रहती है. जब जब यह मामला विधानसभा में उठता है, तब तब एक ही जवाब आता है कि सरकार इसको लेकर चिंतित है.

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पिछले शीतकालीन सत्र में संसदीय कार्यमंत्री आलमगीर आलम ने कहा था कि आने वाले समय में एक कमेटी का गठन किया जाएगा. यह मामला 2022 के बजट सत्र में भी उठा. इसपर सीएम की तरफ से भी जवाब आया, लेकिन जवाब में नया कुछ नहीं था. ऐसा लगता है कि यह एक रटा रटाया मुद्दा बनकर रह गया है. हद तो यह है कि सदन में इस मांग को मुखर अंदाज में उठाने पर एक ही जवाब आता है कि यह व्यवस्था पूर्वर्ती भाजपा सरकार दी देन है. जिसमें आजसू की सहभागिता रही है. लिहाजा, जवाब तो भाजपा को देना चाहिए. यह भी कहा जाता कि 2014 से 2019 तक रघुवर दास मुख्यमंत्री थे. खुद ओबीसी समाज से आते हैं. अगर उनको फिक्र थी तो पिछड़ों को उनका हक क्यों नहीं दिलवाया.

सरकारी नौकरी में हिस्सेदारी तो दूर पंचायत चुनाव को लेकर भी ओबीसी को झटका लग गया है. सुप्रीम कोर्ट का हवाला देकर ट्रिपल टेस्ट के जरिए पंचायत चुनाव में प्रतिनिधित्व की मांग की गई थी. लेकिन राज्य सरकार की दलील है कि अगर चुनाव में और विलंब कराया गया तो केंद्र से पंचायतों के विकास के लिए मिलने वाली बड़ी राशि से हाथ धोना पड़ जाएगा. यानी पंचायत में वाजिब प्रतिनिधत्व का ओबीसी समाज का सपना भी अधूरा रह गया.

खास बात यह है कि अलग झारखंड राज्य के आंदोलन को धार देने में यहां के मूलवासी समाज की भूमिका अहम रही है. स्व.बिनोद बिहारी महतो. शैलेंद्र महतो, सुधीर महतो, सुनील महतो, टेकलाल महतो, मथुरा महतो सरीके नेताओं ने एक अलग राज्य के निर्माण में अहम भूमिका निभाई. राज्य बनने के बाद हर कैबिनेट में ओबीसी समाज को अच्छी हिस्सेदारी भी मिली. सीएम और डिप्टी सीएम का पद भी मिला. लेकिन जो चाहिए था वो नहीं मिला. पता नहीं यह लड़ाई कब तक चलेगी. गाहे बगाहे सदन से लेकर राजभवन तक ओबीसी आरक्षण का मुद्दा पहुंचता रहता है और उसी रफ्तार से फिर ठंडा भी पड़ जाता है.

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