रांची: राज्य के पहले सीएम और 5 बार सांसद रह चुके झारखंड विकास मोर्चा के सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी के बीजेपी में घर वापसी के चर्चे जोरों पर हैं. दरअसल, यह चर्चा लोकसभा चुनाव के दौरान शुरू हुई, लेकिन विधानसभा चुनाव के बाद उफान पर है. हैरत की बात यह है कि मरांडी से भी इस बारे में कई बार पूछा गया, लेकिन वह मीडिया के सवालों से बचते रहे.
कुशल संगठनकर्ता माने जाते हैं मरांडी
मरांडी के पुराने राजनीतिक कैरियर को देखें तो संघ से गहरा जुड़ाव रखने वाले झारखंड के पहले मुख्यमंत्री भले ही अलग राजनीतिक संगठन चला रहे हो, लेकिन उनके प्रति संघ के पुराने नेताओं के दिल में सॉफ्ट कॉर्नर अभी भी है. इसकी सबसे बड़ी वजह है कि मरांडी कुशल संगठनकर्ता माने जाते हैं. 2006 में झाविमो के गठन से लेकर अब तक हुए विधानसभा चुनावों में हुई उनके विधायकों की जीत इस बात की पुष्टि करती है.
बाबूलाल के पास ऑप्शन नहीं
दरअसल, विधानसभा चुनाव के बाद बीजेपी के खराब प्रदर्शन के बाद पार्टी को एक कुशल संगठनकर्ता की जरूरत समझ आई है. प्रदेश स्तर पर बीजेपी में वैसे नेता के ऊपर मंथन चल रहा है जो एक तरफ जहां संगठन मजबूत करने में भूमिका निभाए. वहीं, दूसरी तरफ उसके कंधे से ट्राईबल वोट बैंक भी बचाया जा सके. ऐसे में बीजेपी की नजर मरांडी के ऊपर टिकी हुई है. लगातार सेटबैक झेलने के बाद मरांडी के पास यह बेहतर विकल्प माना जा रहा है.
कैसे है बीजेपी में जाना बेहतर विकल्प?
दरअसल, मौजूदा स्थिति में मरांडी महागठबंधन की सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे हैं. ऐसे में न तो सरकार में उनकी पकड़ मजबूत मानी जा सकती है और न विपक्ष में. वहीं, बीजेपी उनके लिए एक मजबूत पिलर का सहारा दे सकती है.
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हर बार झटका खाते रहे हैं मरांडी
हालांकि, हर बार विधानसभा चुनाव के बाद मरांडी को विधायकों के दूसरे दलों में चले जाने का सेटबैक झेलना पड़ा है, लेकिन बावजूद हर झटके को बखूबी से झेलते हुए मरांडी आगे बढ़ते रहे. राजनीतिक विश्लेषकों की माने तो बीजेपी में उनकी घर वापसी की ये बड़ी वजह है.
मरांडी ने खूब झेला है राजनीतिक झटका
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से अपने गैर राजनीतिक करियर की शुरुआत करने वाले मरांडी भाजपा में आए और सांसद, विधायक मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री भी रहे, लेकिन 2006 में बीजेपी से रास्ता अलग करने के बाद उनके पॉलीटिकल करियर में कई दफे ऐसे मौके आए जब उन्हें राजनीतिक झंझावतों से होकर गुजरना पड़ा. आंकड़ों पर गौर करें तो 2009 के विधानसभा चुनाव में 11 सीटें झाविमो की झोली में आई थी. 2009 में झाविमो का कांग्रेस के साथ पैक्ट हुआ था, जिनमें से 25 सीटों पर जेवीएम ने अपने उम्मीदवार दिए, जबकि 5 पर फ्रेंडली फाइट हुई. जेवीएम को 11 सीटें मिली थी. 2014 में जहां झाविमो के सात विधायकों ने पाला बदला. वहीं, 2009 के चुनाव के बाद भी पार्टी को दलबदल की मार झेलनी पड़ी थी.
ये है बाबूलाल मरांडी का राजनीतिक सफर
बाबूलाल मरांडी सबसे पहले 1998 में सांसद बने उसके बाद 1999 में दोबारा संसद पहुंचे. राज्य गठन होने के बाद सन 2000 में भी बाबूलाल सांसद बने. भाजपा ने उन्हें झारखंड की बागडोर थमा दी और वह राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने. इस दौरान वह रामगढ़ विधानसभा इलाके से विधायक भी बने. वहीं, 2004 में हुए लोकसभा चुनाव में वह इकलौते बीजेपी के सांसद थे, जबकि 2006 में बीजेपी से अलग होने के बाद निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में कोडरमा से जीते. वहीं, 2009 में झारखंड विकास मोर्चा के उम्मीदवार के रूप में जीते, लेकिन 2014 में उन्हें शिकस्त का सामना करना पड़ा.
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बीजेपी में शामिल होने पर यह है स्थिति
दरअसल, मरांडी के बीजेपी में शामिल होने पर असली तस्वीरें 14 जनवरी के बाद साफ होने की उम्मीद है. अंदरूनी सूत्रों का यकीन करें तो मकर संक्रांति के बाद वह कभी भी बीजेपी में औपचारिक रूप से शामिल हो सकते हैं. हालांकि, उनके इस फैसले को लेकर उनके पार्टी के दो विधायक अंदरखाने नाराज चल रहे हैं. एक तरफ बंधु तिर्की ने साफ तौर पर कह दिया है कि वह बीजेपी नहीं जाएंगे. वहीं, दूसरी तरफ प्रदीप यादव का भी रुख कुछ ऐसा ही माना जा रहा है. तकनीकी पहलुओं को देखें तो झाविमो की कार्यसमिति भंग कर दी गई है और सारा अधिकार सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी के पास है. झाविमो के बीजेपी में विलय के फैसले को चुनौती देना भविष्य में बाकी के 2 विधायकों के लिए दलबदल कानून के दायरे में भी आ सकता है.