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विलुप्त हो रही आदिवासी भाषाएं! RU में 9 भाषाओं पर 3 शिक्षक पदस्थापित

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Published : Aug 7, 2019, 8:52 PM IST

Updated : Aug 8, 2019, 6:12 PM IST

भारत की 12 आदिवासी भाषाएं विलुप्त होने की कगार पर हैं. इनमें झारखंड की कई भाषाएं भी शामिल हैं. इसका एक बड़ा कारण शिक्षकों की कमी है. आरयू में भी 9 भाषाओं की पढ़ाई के लिए केवल 3 शिक्षक ही पदस्थापित हैं. जिससे छात्रों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है.

9 भाषाओं पर 3 शिक्षक पदस्थापित

रांची: वर्ष 1980 में रांची विश्वविद्यालय द्वारा क्षेत्रीय जनजातीय भाषा विभाग की स्थापना की गई थी. यहां झारखंड के आदिवासियों द्वारा बोले जाने वाली भाषाओं से संबंधित उच्च शिक्षा स्तर पर पीजी में डिग्रियां दी जाती हैं. विडंबना यह है कि झारखंड के आदिवासियों द्वारा बोले जाने वाली भाषाओं के लिए शिक्षकों की नियुक्ति ही यहां नहीं हुई है.

आरयू के तत्कालीन वीसी कुमार सुरेश सिंह द्वारा आदिवासियों के विशेषज्ञ बीपी केसरी की पहल पर यहां जनजातीय भाषा विभाग की स्थापना वर्ष 1980 में की गई थी. शुरू-शुरू में इस विभाग में आदिवासी भाषाओं से जुड़े 7 शिक्षकों की नियुक्ति की गई. धीरे-धीरे शिक्षकों की सेवा समाप्त होती गई और पद रिक्त पड़ते गए. जिसके बाद अब तक यहां आदिवासियों द्वारा बोले जाने वाली भाषाओं से जुड़े शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हुई है.

देखें पूरी खबर

तीन शिक्षकों के भरोसे कॉलेज
दरअसल, आरयू में मात्र 3 शिक्षकों के भरोसे यह विभाग वर्षों से संचालित है. जहां 9 भाषाओं में सिर्फ 3 शिक्षक है जो काफी चिंताजनक है. उनमें से विभागीय अध्यक्ष त्रिवेणी नाथ साहू जल्द ही जेपीएससी में सेवा देंगे. ऐसे में अब यह विभाग 2 शिक्षकों के भरोसे ही संचालित होंगे.

9 भाषाओं की होती है पढ़ाई
इस विभाग में सबसे पहले पांच जनजातीय भाषाओं की पढ़ाई की शुरुआत हुई थी. जिसमें संथाली, कुड़ुख, मुंडारी, हो और खड़िया भाषा शामिल है. बाद में नागपुरी और कुरमाली की भी पढ़ाई शुरू की गयी. फिर खोरठा और पंचपड़गानिया जैसे भाषाओं से जुड़े पीजी कोर्स शुरू करवाई गई. शिक्षकों की कमी के बावजूद आरयू में इन भाषाओं के 170 लगभग शोधार्थी हैं. विद्यार्थी अपने बलबूते और निजी स्तर पर शिक्षकों से जानकारी इकट्ठा कर आरयू की डिग्री लेने को मजबूर है.

ये भी पढे़ं- नगर परिषद का अजीब कारनामा! लाभुकों के खाते में भेजे गए अधिक राशि

छात्रों को हो रही काफी परेशानी
इस विभाग में पिछले कई सालों से शिक्षकों की कोई नियुक्ति नहीं हुई है. डिग्री हासिल करने के अलावे क्षेत्रीय और जनजातीय भाषाओं से जुड़े विषयों पर विद्यार्थी रिसर्च भी करते हैं. शोध के जरिए भाषा के साथ-साथ जनजातियों की जानकारियां इकट्ठी करने की कोशिश की जाती है, लेकिन शिक्षकों की कमी के कारण विद्यार्थियों को यहां काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. किसी भी सभ्यता को संजोए रखने के लिए उस भाषा के संबंध में जागरूकता होनी जरूरी है.

भाषाएं और बोलियां अगर खत्म हो जाती है तो सभ्यता का विनाश होना तय माना जाता है और झारखंड में इन दिनों कुछ ऐसा ही हो रहा है. जिन शिक्षकों के भरोसे विभाग संचालित हो रहा है, वह सिर्फ दो ही भाषाओं के विशेषज्ञ हैं. ऐसे में अन्य भाषाओं से जुड़े विद्यार्थियों को कैसे भाषा का ज्ञान मिलेगा. कुडुख भाषा से जुड़े शिक्षक हरि उरांव कहते हैं कि स्कूली शिक्षा और इंटर लेवल पर भी इसकी पढ़ाई होना जरूरी है नहीं तो इसका दायरा नहीं बढ़ेगा.

रांची: वर्ष 1980 में रांची विश्वविद्यालय द्वारा क्षेत्रीय जनजातीय भाषा विभाग की स्थापना की गई थी. यहां झारखंड के आदिवासियों द्वारा बोले जाने वाली भाषाओं से संबंधित उच्च शिक्षा स्तर पर पीजी में डिग्रियां दी जाती हैं. विडंबना यह है कि झारखंड के आदिवासियों द्वारा बोले जाने वाली भाषाओं के लिए शिक्षकों की नियुक्ति ही यहां नहीं हुई है.

आरयू के तत्कालीन वीसी कुमार सुरेश सिंह द्वारा आदिवासियों के विशेषज्ञ बीपी केसरी की पहल पर यहां जनजातीय भाषा विभाग की स्थापना वर्ष 1980 में की गई थी. शुरू-शुरू में इस विभाग में आदिवासी भाषाओं से जुड़े 7 शिक्षकों की नियुक्ति की गई. धीरे-धीरे शिक्षकों की सेवा समाप्त होती गई और पद रिक्त पड़ते गए. जिसके बाद अब तक यहां आदिवासियों द्वारा बोले जाने वाली भाषाओं से जुड़े शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हुई है.

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तीन शिक्षकों के भरोसे कॉलेज
दरअसल, आरयू में मात्र 3 शिक्षकों के भरोसे यह विभाग वर्षों से संचालित है. जहां 9 भाषाओं में सिर्फ 3 शिक्षक है जो काफी चिंताजनक है. उनमें से विभागीय अध्यक्ष त्रिवेणी नाथ साहू जल्द ही जेपीएससी में सेवा देंगे. ऐसे में अब यह विभाग 2 शिक्षकों के भरोसे ही संचालित होंगे.

9 भाषाओं की होती है पढ़ाई
इस विभाग में सबसे पहले पांच जनजातीय भाषाओं की पढ़ाई की शुरुआत हुई थी. जिसमें संथाली, कुड़ुख, मुंडारी, हो और खड़िया भाषा शामिल है. बाद में नागपुरी और कुरमाली की भी पढ़ाई शुरू की गयी. फिर खोरठा और पंचपड़गानिया जैसे भाषाओं से जुड़े पीजी कोर्स शुरू करवाई गई. शिक्षकों की कमी के बावजूद आरयू में इन भाषाओं के 170 लगभग शोधार्थी हैं. विद्यार्थी अपने बलबूते और निजी स्तर पर शिक्षकों से जानकारी इकट्ठा कर आरयू की डिग्री लेने को मजबूर है.

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छात्रों को हो रही काफी परेशानी
इस विभाग में पिछले कई सालों से शिक्षकों की कोई नियुक्ति नहीं हुई है. डिग्री हासिल करने के अलावे क्षेत्रीय और जनजातीय भाषाओं से जुड़े विषयों पर विद्यार्थी रिसर्च भी करते हैं. शोध के जरिए भाषा के साथ-साथ जनजातियों की जानकारियां इकट्ठी करने की कोशिश की जाती है, लेकिन शिक्षकों की कमी के कारण विद्यार्थियों को यहां काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. किसी भी सभ्यता को संजोए रखने के लिए उस भाषा के संबंध में जागरूकता होनी जरूरी है.

भाषाएं और बोलियां अगर खत्म हो जाती है तो सभ्यता का विनाश होना तय माना जाता है और झारखंड में इन दिनों कुछ ऐसा ही हो रहा है. जिन शिक्षकों के भरोसे विभाग संचालित हो रहा है, वह सिर्फ दो ही भाषाओं के विशेषज्ञ हैं. ऐसे में अन्य भाषाओं से जुड़े विद्यार्थियों को कैसे भाषा का ज्ञान मिलेगा. कुडुख भाषा से जुड़े शिक्षक हरि उरांव कहते हैं कि स्कूली शिक्षा और इंटर लेवल पर भी इसकी पढ़ाई होना जरूरी है नहीं तो इसका दायरा नहीं बढ़ेगा.

Intro:विश्व आदिवासी दिवस विशेष


रांची।

वर्ष 1980 में रांची विश्वविद्यालय द्वारा क्षेत्रीय जनजातीय भाषा विभाग की स्थापना की गई और यहां झारखंड के आदिवासियों द्वारा बोले जाने वाली भाषाओं से संबंधित उच्च शिक्षा स्तर पर पीजी में डिग्रियां दी जाती है. लेकिन विडंबना यह है कि झारखंड के आदिवासियों द्वारा बोले जाने वाली भाषाओं के लिए शिक्षकों की नियुक्ति ही यहां नहीं हुई है .मात्र 3 शिक्षकों के भरोसे विश्वविद्यालय का यह विभाग वर्षों से संचालित है .9 भाषाओं में सिर्फ 3 शिक्षक है और यह काफी चिंताजनक है.


Body:वर्ष 1980 में आरयू के तत्कालीन वीसी कुमार सुरेश सिंह द्वारा आदिवासियों के विशेषज्ञ बीपी केसरी की पहल पर यहां जनजातीय भाषा विभाग का स्थापना करवाया. शुरू- शुरू में इस विभाग में आदिवासी भाषाओं से जुड़े 7 शिक्षको की नियुक्ति की गई. लेकिन धीरे-धीरे शिक्षकों की सेवा समाप्त होती गई और पद रिक्त पड़ते गए.उसके बाद से अब तक यहां आदिवासीयो द्वारा बोले जाने वाली भाषाओं से जुड़े शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हुई. अब इस विभाग में 9 आदिवासी भाषाओं के लिए सिर्फ तीन ही शिक्षक है .जिसमें से विभागीय अध्यक्ष त्रिवेणी नाथ साहू जल्द ही जेपीएससी में सेवा देंगे. ऐसे में अब यह विभाग 2 शिक्षकों के भरोसे ही संचालित होंगे.

9 भाषाओं की होती है पढ़ाई:

इस विभाग में सबसे पहले पांच जनजातीय भाषाओं की पढ़ाई की शुरुआत हुई थी. जिसमें संथाली, कुरूख ,मुंडारी ,हो और खड़िया भाषा शामिल है. बाद में नागपुरी और कुरमाली को भी शुरू किया गया फिर खोरठा और पंचपड़गानिया जैसे भाषाओं से जुड़े पीजी कोर्स शुरू करवाई गई. शिक्षकों की कमी के बावजूद आरयू में इन भाषाओं के 170 लगभग शोधार्थी हैं .विद्यार्थी अपने बलबूते और निजी स्तर पर शिक्षकों से जानकारी इकट्ठा कर आरयू का डिग्री लेने को मजबूर है.


इस विभाग में पिछले कई वर्षों से सालों से शिक्षकों की कोई नियुक्ति नहीं हुई है. डिग्री हासिल करने के अलावे क्षेत्रीय और जनजातीय भाषाओं से जुड़े विषयों पर विद्यार्थी रिसर्च भी करते हैं .शोध के जरिए भाषा के साथ-साथ जनजातियों की जानकारियां इकट्ठी करने की कोशिश की जाती है. लेकिन शिक्षकों की कमी के कारण विद्यार्थियों को यहां काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है और किसी भी सभ्यता को संजोए रखने के लिए उस भाषा के संबंध में जागरूकता होना जरूरी है. भाषाएं और बोलियां अगर खत्म हो जाती है तो सभ्यता का विनाश होना तय माना जाता है और झारखंड में इन दिनों कुछ ऐसा ही हो रहा है .जिन 2 शिक्षकों के भरोसे विभाग संचालित हो रहा है वह सिर्फ दो ही भाषाओं के विशेषज्ञ है .ऐसे में अन्य भाषाओं से जुड़े विद्यार्थियों को कैसे भाषा का ज्ञान मिलेगा. कुडुख भाषा से जुड़े शिक्षक हरी उरांव कहते हैं की स्कूली शिक्षा और इंटर लेवल पर भी इसकी पढ़ाई होना जरूरी है .नहीं तो इसका दायरा नहीं बढ़ेगा.





Conclusion:एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत की 12 आदिवासी भाषाएं विलुप्त के कगार पर है. इनमें झारखंड के कई भाषाएं भी शामिल है .इसका एक बड़ा कारण यह भी माना जा रहा है कि भाषाओं से जुड़े शिक्षकों की कमी का होना.

बाइट-हरी उरांव, असिस्टेंट प्रोफेसर ,जनजातीय भाषा विभाग.

बाइट-उमेश नंद,प्रोफेसर।

ptc।
Last Updated : Aug 8, 2019, 6:12 PM IST
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