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विधायक बंधु तिर्की की मांग, कहा- झारखंड राज्य विस्थापित प्रभावित आयोग का गठन करे सरकार - रांची में विस्थापन की समस्या को लकेर बंधु तिर्की की मांग

राज्य में विस्थापन की समस्या को लेकर मांडर विधायक बंधु तिर्की ने सरकार से अपील की है. बंधु तिर्की ने कहा कि झारखंड राज्य विस्थापित प्रभावित आयोग का गठन किया जाए.

mla bandhu tirkey demands for displacement problem in ranchi
विधायक बंधु तिर्की
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Published : Dec 27, 2020, 10:39 AM IST

रांची: मांडर विधायक बंधु तिर्की ने शनिवार को कहा कि झारखंड राज्य विस्थापित प्रभावित आयोग का गठन सरकार करे. जिससे आंदोलनकारियों और विशेषज्ञों को प्रतिनिधित्व मिल सकेगा. उन्होंने कहा कि विस्थापन आदिवासी भारत की एक ऐसी पीड़ा है. जिसके अनकहे अव्यक्त गाथाएं अब भी दफन हैं. विस्थापन को समझना और इस समस्या की तह में जाने का काम अब भी बाकी है.

विस्थापन की समस्या

विकास से उपजी विस्थापन की समस्या को आदिवासी समाज का जेनोसाइड कहा जा सकता है. जहां आदिवासी धीरे-धीरे धीमी मौत की ओर अग्रसर हो रहे हैं. ऐसी मौत जिसमें कोई खून तो नहीं बह रहा लेकिन लगातार अभाव और जीवन की बुनियादी समस्याओं से जूझते- जूझते वह कमजोर और असहाय हो जा रहा है. उसके जीवन में प्रगति के तमाम रास्ते बंद हो जाते हैं. विस्थापितों की समस्याओं से रूबरू होने पर ऐसे ही अनेक बातें उभर आती है. विस्थापन की समस्या की शुरुआत झारखंड से ही 1960 से हुई, जो बदस्तूर अब भी जारी है.


विस्थापन की समस्या का कोई निदान नहीं
उन्होंने बताया कि विस्थापन केवल बड़े बांधों की वजह से ही नहीं बल्कि कोयला, बॉक्साइट, यूरेनियम के खनन से बड़े पैमाने पर हुआ है. यही नहीं राष्ट्रीय पार्क सेंचुरी की स्थापना से भी बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ है. वर्तमान दौर में ग्लोबलाइजेशन के चरम दौर पर कॉर्पोरेट सेक्टर बड़े पैमाने पर फैक्ट्री और कारखाना लगाना चाहते हैं. इससे बड़े पैमाने पर विस्थापन की संभावना बढ़ गई है. दुखद पहलू यह है कि भारत में विस्थापन की समस्या को आजादी के लगभग 70 सालों में एक बड़ी त्रासदी के तौर पर सरकार ने चिन्हित करने का काम किया लेकिन आज तक पुनर्वास की समस्या का कोई निदान नहीं ढूंढा जा सका. पूरे देश में विकासजनित विस्थापन स्थल पर कोई ऐसा उदाहरण नहीं मिलता. जिससे लगे आदर्श पुनर्वास के प्रयास किए जा चुके हैं.

ये भी पढ़े- CPI ने मनाया अपना 95वां स्थापना दिवस, कहा- पार्टी के संघर्ष से ही देश के मजदूरों और किसानों की हिफाजत

यूपीए की सरकार ने 2013 में द राइट टू फेयर कंपनसेशन एंड ट्रांसपेरेंसी इन लैंड एक्विजिशन रिहैबिलिटेशन एंड रिसेटेलमेंट एक्ट लाया है. जिसके तहत यह व्यवस्था है कि पांचवीं अनुसूची के इलाके में आदिवासी इलाके भूमि अधिग्रहण नहीं किया जा सकेगा. अगर जमीन का अधिग्रहण आवश्यक है तो ग्राम सभा की सहमति के बाद ही जमीन का अधिग्रहण किया जा सकेगा. अगर इसे लागू किया जाए तो आने वाले समय में विस्थापन का दंश कम हो सकेगा.

रांची: मांडर विधायक बंधु तिर्की ने शनिवार को कहा कि झारखंड राज्य विस्थापित प्रभावित आयोग का गठन सरकार करे. जिससे आंदोलनकारियों और विशेषज्ञों को प्रतिनिधित्व मिल सकेगा. उन्होंने कहा कि विस्थापन आदिवासी भारत की एक ऐसी पीड़ा है. जिसके अनकहे अव्यक्त गाथाएं अब भी दफन हैं. विस्थापन को समझना और इस समस्या की तह में जाने का काम अब भी बाकी है.

विस्थापन की समस्या

विकास से उपजी विस्थापन की समस्या को आदिवासी समाज का जेनोसाइड कहा जा सकता है. जहां आदिवासी धीरे-धीरे धीमी मौत की ओर अग्रसर हो रहे हैं. ऐसी मौत जिसमें कोई खून तो नहीं बह रहा लेकिन लगातार अभाव और जीवन की बुनियादी समस्याओं से जूझते- जूझते वह कमजोर और असहाय हो जा रहा है. उसके जीवन में प्रगति के तमाम रास्ते बंद हो जाते हैं. विस्थापितों की समस्याओं से रूबरू होने पर ऐसे ही अनेक बातें उभर आती है. विस्थापन की समस्या की शुरुआत झारखंड से ही 1960 से हुई, जो बदस्तूर अब भी जारी है.


विस्थापन की समस्या का कोई निदान नहीं
उन्होंने बताया कि विस्थापन केवल बड़े बांधों की वजह से ही नहीं बल्कि कोयला, बॉक्साइट, यूरेनियम के खनन से बड़े पैमाने पर हुआ है. यही नहीं राष्ट्रीय पार्क सेंचुरी की स्थापना से भी बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ है. वर्तमान दौर में ग्लोबलाइजेशन के चरम दौर पर कॉर्पोरेट सेक्टर बड़े पैमाने पर फैक्ट्री और कारखाना लगाना चाहते हैं. इससे बड़े पैमाने पर विस्थापन की संभावना बढ़ गई है. दुखद पहलू यह है कि भारत में विस्थापन की समस्या को आजादी के लगभग 70 सालों में एक बड़ी त्रासदी के तौर पर सरकार ने चिन्हित करने का काम किया लेकिन आज तक पुनर्वास की समस्या का कोई निदान नहीं ढूंढा जा सका. पूरे देश में विकासजनित विस्थापन स्थल पर कोई ऐसा उदाहरण नहीं मिलता. जिससे लगे आदर्श पुनर्वास के प्रयास किए जा चुके हैं.

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यूपीए की सरकार ने 2013 में द राइट टू फेयर कंपनसेशन एंड ट्रांसपेरेंसी इन लैंड एक्विजिशन रिहैबिलिटेशन एंड रिसेटेलमेंट एक्ट लाया है. जिसके तहत यह व्यवस्था है कि पांचवीं अनुसूची के इलाके में आदिवासी इलाके भूमि अधिग्रहण नहीं किया जा सकेगा. अगर जमीन का अधिग्रहण आवश्यक है तो ग्राम सभा की सहमति के बाद ही जमीन का अधिग्रहण किया जा सकेगा. अगर इसे लागू किया जाए तो आने वाले समय में विस्थापन का दंश कम हो सकेगा.

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