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कश्मीर से कन्याकुमारी तक पहुंच चुकी है मधुबनी और सोहराय पेंटिग, व्यवसाय और आत्मनिर्भरता के खुल रहे रास्ते

बिहार और झारखंड के गांव-आंगन की दीवारों से निकली मधुबनी और सोहराय पेंटिग्स किसी पहचान की मोहताज नहीं. इसके जरिए अब व्यवसाय और आत्म निर्भरता के कई रास्ते खुले हैं. देखिए पूरी रिपोर्ट...

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सोहराय पेंटिग
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Published : Dec 10, 2020, 6:18 AM IST

रांची: कल तक कोहबर, स्वंयवर, कृष्णलीला, टोकरी में मछलियां, जंगल में नाचते मोर और फूल-पत्तियों की पेंटिंग होटलों और बड़े-बड़े भवनों की दीवारों की शोभा बढ़ाते नजर आते थे, लेकिन अब हैंडबैग से लेकर टाई, कुर्ता, दुपट्टा, साड़ी और सलवार पर अपनी खूबसूरती बिखेर रहे हैं. चूकि प्राकृतिक रंगों की यह कला कपड़ों पर नहीं टिकती सो एक्रेलिक पेंट का सहारा लिया जा रहा है. सोहराय कला में आदिवासी जीवन और जंगल का तालमेल नजर आता है तो वहीं मधुबनी पेंटिंग प्रकृति और पौराणिक कथाओं की घटनाओं को चित्रित करता है.

देखिए पूरी खबर

एलिट क्लास के लोग इसे बेहद पसंद करते हैं

रंगों और पारंपरिक कला की एक छोटी सी दुनिया बनायी है रांची की कामिनी सिन्हा ने. राजधानी रांची के बूटी मोड़ स्थित एक मार्केट में भाड़़े पर इनकी छोटी सी दुकान है. इसमें 2 सौ रुपये के मोबाइल कवर से लेकर 20 हजार तक की साड़ियां हैं. इन खूबसूरत मैटेरियल्स को तैयार करने के लिए हर कपड़े पर हाथों से स्केचिंग के बाद रंग भरे जाते हैं. काफी मेहनत का काम है. इसलिए एक छोटे से हैंड बैग की कीमत भी 700 रुपये हैं, जिसे आम लोग चाहकर भी नहीं खरीद पाते हैं. हालांकि एलिट क्लास के लोग इसे बेहद पसंद करते हैं. यहां का बना सामान दूसरे राज्यों में भी जाता है.

इस कला से मिल रहा रोजगार

ये कला कई लोगों को रोजगार दे रही है. प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से करीब 80 महिलाएं इस कारोबार से जुडी हुई हैं. कामिनी महिलाओं को मुफ्त में ट्रेनिंग देती हैं और काम सीखने पर रोजगार मुहैया कराती हैं. इससे जुड़ी महिलाएं भी आत्मनिर्भर हो रही हैं. इसमें काम कर रही महिला बताती हैं कि कामिनी ने उन्हें पहले फ्री में ट्रैनिंग दी. जब वो काम करने लगी तो उन्हें रोजगार मिली. काम करके महिलाएं आत्मनिर्भर भी हो रही है. वो कहती हैं कि अब घर के छोटे-मोटे काम खुद कर लेती हैं.

ये भी पढ़ें: कोरोना इफेक्टः कोरोन काल में निजी स्कूल के बच्चे पढ़ाई से हो रहे वंचित, अधर में नौनिहालों का भविष्य

दुबई और सिंगापुर में स्टॉल

कामिनी सिन्हा को इस मुकाम तक पहुंचने के लिए कई दीवार तोड़ने पड़े हैं. 2010 में शादी हो गई. पटना से रांची अपने ससुराल पहुंच गई, लेकिन जब भी कुछ करने का ख्याल आया तो ससुराल के नियम-कायदे आड़े आते रहे. बचपन से स्केचिंग और पेंटिग से लगाव था. कुछ करने की ठानी. ससुराल से छिप छिपाकर झारक्राफ्ट के संपर्क में आई. साल 2010 में पहली बार कुछ कपड़ों पर मधुबनी पेंटिंग करने का काम मिला. इसके बाद कामिनी आगे बढ़ती चली गईं. 2012-13 में झारखंड सरकार से स्टेट अवार्ड मिला तो पेशे से शिक्षक पति भी साथ खड़े हो गए. देश का कोई कोना नहीं बचा है जहां लगने वाले ट्रेड फेयर में कामिनी सिन्हा के प्रोडक्ट का स्टॉल न लगा हो. दुबई और सिंगापुर में भी अपना स्टॉल लगा चुकी हैं.

रांची: कल तक कोहबर, स्वंयवर, कृष्णलीला, टोकरी में मछलियां, जंगल में नाचते मोर और फूल-पत्तियों की पेंटिंग होटलों और बड़े-बड़े भवनों की दीवारों की शोभा बढ़ाते नजर आते थे, लेकिन अब हैंडबैग से लेकर टाई, कुर्ता, दुपट्टा, साड़ी और सलवार पर अपनी खूबसूरती बिखेर रहे हैं. चूकि प्राकृतिक रंगों की यह कला कपड़ों पर नहीं टिकती सो एक्रेलिक पेंट का सहारा लिया जा रहा है. सोहराय कला में आदिवासी जीवन और जंगल का तालमेल नजर आता है तो वहीं मधुबनी पेंटिंग प्रकृति और पौराणिक कथाओं की घटनाओं को चित्रित करता है.

देखिए पूरी खबर

एलिट क्लास के लोग इसे बेहद पसंद करते हैं

रंगों और पारंपरिक कला की एक छोटी सी दुनिया बनायी है रांची की कामिनी सिन्हा ने. राजधानी रांची के बूटी मोड़ स्थित एक मार्केट में भाड़़े पर इनकी छोटी सी दुकान है. इसमें 2 सौ रुपये के मोबाइल कवर से लेकर 20 हजार तक की साड़ियां हैं. इन खूबसूरत मैटेरियल्स को तैयार करने के लिए हर कपड़े पर हाथों से स्केचिंग के बाद रंग भरे जाते हैं. काफी मेहनत का काम है. इसलिए एक छोटे से हैंड बैग की कीमत भी 700 रुपये हैं, जिसे आम लोग चाहकर भी नहीं खरीद पाते हैं. हालांकि एलिट क्लास के लोग इसे बेहद पसंद करते हैं. यहां का बना सामान दूसरे राज्यों में भी जाता है.

इस कला से मिल रहा रोजगार

ये कला कई लोगों को रोजगार दे रही है. प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से करीब 80 महिलाएं इस कारोबार से जुडी हुई हैं. कामिनी महिलाओं को मुफ्त में ट्रेनिंग देती हैं और काम सीखने पर रोजगार मुहैया कराती हैं. इससे जुड़ी महिलाएं भी आत्मनिर्भर हो रही हैं. इसमें काम कर रही महिला बताती हैं कि कामिनी ने उन्हें पहले फ्री में ट्रैनिंग दी. जब वो काम करने लगी तो उन्हें रोजगार मिली. काम करके महिलाएं आत्मनिर्भर भी हो रही है. वो कहती हैं कि अब घर के छोटे-मोटे काम खुद कर लेती हैं.

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दुबई और सिंगापुर में स्टॉल

कामिनी सिन्हा को इस मुकाम तक पहुंचने के लिए कई दीवार तोड़ने पड़े हैं. 2010 में शादी हो गई. पटना से रांची अपने ससुराल पहुंच गई, लेकिन जब भी कुछ करने का ख्याल आया तो ससुराल के नियम-कायदे आड़े आते रहे. बचपन से स्केचिंग और पेंटिग से लगाव था. कुछ करने की ठानी. ससुराल से छिप छिपाकर झारक्राफ्ट के संपर्क में आई. साल 2010 में पहली बार कुछ कपड़ों पर मधुबनी पेंटिंग करने का काम मिला. इसके बाद कामिनी आगे बढ़ती चली गईं. 2012-13 में झारखंड सरकार से स्टेट अवार्ड मिला तो पेशे से शिक्षक पति भी साथ खड़े हो गए. देश का कोई कोना नहीं बचा है जहां लगने वाले ट्रेड फेयर में कामिनी सिन्हा के प्रोडक्ट का स्टॉल न लगा हो. दुबई और सिंगापुर में भी अपना स्टॉल लगा चुकी हैं.

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