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रांची: अटूट है दुर्गाबाड़ी की परंपरा, कई पीढ़ियों से वाद्य यंत्र बजाते आ रहे हैं इस परिवार के लोग - वाद्य यंत्रों का महत्व

रांची के अल्बर्ट एक्का चौक स्थित दुर्गाबाड़ी में 137 सालों से मां दुर्गा की अराधना की जा रही है. यहां की प्रतिमा एक चाला होती है, वहीं, वाद्य यंत्र बजाने वाले ढाकी वाध्यकार भी पीढ़ी दर पीढ़ी यहां पहुंचते हैं और अलग-अलग तरीके के ढाक बजाते हुए मां की अराधना करते हैं. नियम के अनुसार वाद्य यंत्रों को बजाया भी जाता है और उससे निकलने वाले ध्वनि भी अलग-अलग तरीके की होती है.

दुर्गाबाड़ी में मां दुर्गा की प्रतिमा
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Published : Oct 6, 2019, 4:15 AM IST

Updated : Oct 6, 2019, 9:23 AM IST

रांची: राजधानी के अल्बर्ट एक्का चौक स्थित दुर्गाबाड़ी में दुर्गा पूजा की परंपरा 1883 से ही चली आ रही है. यहां की प्रतिमाएं एक चाला होती है. वहीं वाद्य यंत्र बजाने वाले भी पीढ़ी दर पीढ़ी यहां पहुंचते हैं और अलग-अलग तरीके से ढाक बजाते हुए मां की अराधना करते हैं. नियम के अनुसार सभी वाद्य यंत्रों को बजाया जाता है और उससे निकलने वाली ध्वनि भी अलग-अलग तरीके की होती है.

देखें पूरी खबर

137 सालों से की जा रही मां की अराधना
रांची के दुर्गाबाड़ी में पूरे विधि-विधान के साथ देवी दुर्गा की पूजा होती है. दुर्गोत्सव के मौके पर बंगाली समुदाय यहां तन-मन के साथ अपनी भागीदारी निभाते हैं. सन 1883 में यहां दुर्गा पूजा की शुरुआत हुई थी और तब से लेकर आज तक यह दुर्गा पूजा समिति अपने परंपराओं का निर्वहन करती आ रही है. एक तरफ जहां यहां की प्रतिमा एक चाला होती है, तो वहीं कंधे पर उठाकर मां की विदाई दी जाती है. 137 सालों से इसी परंपरा के तहत यहां प्रत्येक वर्ष मां अंबे की आराधना की जाती है. वहीं वाद्य यंत्र बजाने वाले ढाकी भी एक ही पीढ़ी के हैं. परंपरा के तहत पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही परिवार के सदस्यों द्वारा यहां ढाक बजाया जाता है.

ये भी पढ़ें- लोहरदगा में डांडिया-गरबा की धुन पर झूमे शहरवासी, देखें वीडियो

वाद्ययंत्र से निकालते हैं अलग-अलग ध्वनि
ढाक बजाने के दौरान अलग-अलग तरह की ध्वनियां निकलती है. बेल वरण के दौरान ध्वनि अलग होती है, सिंदूर खेला के दौरान अलग तो विसर्जन और विशेष पूजा अर्चना के दौरान अलग ध्वनि वाध्यकार बजाते हैं. बांकुड़ा का एक परिवार पिछले कई वर्षों से यहां वाद्ययंत्र बजाता आ रहा है. हमारी टीम ने उनसे भी खास बातचीत की है.

'परंपरा ही दुर्गाबाड़ी की पहचान'
वहीं पूजा समिति के सचिव गोपाल भट्टाचार्य कहते हैं की परंपराओं के लिए ही दुर्गाबाड़ी की पहचान है. समय नियम और विधि के साथ यह मां दुर्गे की आराधना प्रत्येक वर्ष होती है. बंगाली समुदाय के अलावा कई समुदाय के लोग भी यहां मां की पूजा अर्चना करने जरूर पहुंचते हैं.

रांची: राजधानी के अल्बर्ट एक्का चौक स्थित दुर्गाबाड़ी में दुर्गा पूजा की परंपरा 1883 से ही चली आ रही है. यहां की प्रतिमाएं एक चाला होती है. वहीं वाद्य यंत्र बजाने वाले भी पीढ़ी दर पीढ़ी यहां पहुंचते हैं और अलग-अलग तरीके से ढाक बजाते हुए मां की अराधना करते हैं. नियम के अनुसार सभी वाद्य यंत्रों को बजाया जाता है और उससे निकलने वाली ध्वनि भी अलग-अलग तरीके की होती है.

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137 सालों से की जा रही मां की अराधना
रांची के दुर्गाबाड़ी में पूरे विधि-विधान के साथ देवी दुर्गा की पूजा होती है. दुर्गोत्सव के मौके पर बंगाली समुदाय यहां तन-मन के साथ अपनी भागीदारी निभाते हैं. सन 1883 में यहां दुर्गा पूजा की शुरुआत हुई थी और तब से लेकर आज तक यह दुर्गा पूजा समिति अपने परंपराओं का निर्वहन करती आ रही है. एक तरफ जहां यहां की प्रतिमा एक चाला होती है, तो वहीं कंधे पर उठाकर मां की विदाई दी जाती है. 137 सालों से इसी परंपरा के तहत यहां प्रत्येक वर्ष मां अंबे की आराधना की जाती है. वहीं वाद्य यंत्र बजाने वाले ढाकी भी एक ही पीढ़ी के हैं. परंपरा के तहत पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही परिवार के सदस्यों द्वारा यहां ढाक बजाया जाता है.

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वाद्ययंत्र से निकालते हैं अलग-अलग ध्वनि
ढाक बजाने के दौरान अलग-अलग तरह की ध्वनियां निकलती है. बेल वरण के दौरान ध्वनि अलग होती है, सिंदूर खेला के दौरान अलग तो विसर्जन और विशेष पूजा अर्चना के दौरान अलग ध्वनि वाध्यकार बजाते हैं. बांकुड़ा का एक परिवार पिछले कई वर्षों से यहां वाद्ययंत्र बजाता आ रहा है. हमारी टीम ने उनसे भी खास बातचीत की है.

'परंपरा ही दुर्गाबाड़ी की पहचान'
वहीं पूजा समिति के सचिव गोपाल भट्टाचार्य कहते हैं की परंपराओं के लिए ही दुर्गाबाड़ी की पहचान है. समय नियम और विधि के साथ यह मां दुर्गे की आराधना प्रत्येक वर्ष होती है. बंगाली समुदाय के अलावा कई समुदाय के लोग भी यहां मां की पूजा अर्चना करने जरूर पहुंचते हैं.

Intro:दुर्गोत्सव स्पेशल।

रांची।

राजधानी रांची के अल्बर्ट एक्का चौक स्थित दुर्गाबाटी की परंपरा 1883 से ही चली आ रही है. यहां की प्रतिमाएं एक चाला होती है .वहीं वाद्य यंत्र बजाने वाले ढाकी वाध्यकार भी पीढ़ी दर पीढ़ी यहां पहुंचते हैं और अलग अलग तरीके के ढाक बजाते हुए मां को आवाहन करते हैं .नियम के अनुसार वाद्य यंत्रों को बजाया भी जाता है और उससे निकलने वाले ध्वनि भी अलग अलग तरीके के होते हैं.


Body:राजधानी रांची के दुर्गा बाटी में पूरे विधि विधान के साथ देवी दुर्गा की पूजा होती है .दुर्गोउत्सव के मौके पर बंगाली समुदाय यहां तन मन के साथ अपनी भागीदारी निभाते हैं. सन 1883 में यहां पहली बार दुर्गा पूजा की शुरुआत हुई थी और तब से लेकर आज तक अपने परंपराओं का निर्वहन करती आ रही है .यह दुर्गा पूजा समिति. एक तरफ जहां यहां की प्रतिमा एक चाला होती है .तो वहीं कंधे पर उठाकर मां की विदाई दी जाती है .137 साल से इसी परंपरा के तहत यहां प्रत्येक वर्ष मां अंबे की आराधना की जाती है .वहीं वाद्य यंत्र बजाने वाले ढाकी भी एक ही पीढ़ी के हैं .परंपरा के तहत पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही परिवार के सदस्यों द्वारा यहां ढाक बजाया जाता है. वह भी अलग-अलग ध्वनि के साथ .बेल वरण के दौरान ध्वनि अलग होता है .सिंदूर खेला के दौरान अलग तो विसर्जन और विशेष पूजा अर्चना के दौरान अलग ध्वनि वाध्यकारो द्वारा बजाया जाता है .बांकुड़ा के एक परिवार द्वारा पिछले कई वर्षों से यहां वाद्य यंत्र बजाया जाता आ रहा है. हमारी टीम ने उनसे भी खास बातचीत की है.



Conclusion:
वहीं पूजा समिति के सेक्रेटरी गोपाल भट्टाचार्य कहते हैं की परंपराओं के लिए ही दुर्गाबाटी की पहचान है .समय नियम और विधि के साथ यह मां दुर्गे की आराधना प्रत्येक वर्ष होती है .बंगाली समुदाय के अलावा विभिन्न समुदाय के लोग भी यहां मां की पूजा अर्चना करने जरूर पहुंचते हैं


बाइट-शंकर लाल वाध्यकार।

बाइट-गोपाल भट्टाचार्य, सेक्रेटरी, दुर्गाबाटी।
Last Updated : Oct 6, 2019, 9:23 AM IST
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