रांची: राजधानी के अल्बर्ट एक्का चौक स्थित दुर्गाबाड़ी में दुर्गा पूजा की परंपरा 1883 से ही चली आ रही है. यहां की प्रतिमाएं एक चाला होती है. वहीं वाद्य यंत्र बजाने वाले भी पीढ़ी दर पीढ़ी यहां पहुंचते हैं और अलग-अलग तरीके से ढाक बजाते हुए मां की अराधना करते हैं. नियम के अनुसार सभी वाद्य यंत्रों को बजाया जाता है और उससे निकलने वाली ध्वनि भी अलग-अलग तरीके की होती है.
137 सालों से की जा रही मां की अराधना
रांची के दुर्गाबाड़ी में पूरे विधि-विधान के साथ देवी दुर्गा की पूजा होती है. दुर्गोत्सव के मौके पर बंगाली समुदाय यहां तन-मन के साथ अपनी भागीदारी निभाते हैं. सन 1883 में यहां दुर्गा पूजा की शुरुआत हुई थी और तब से लेकर आज तक यह दुर्गा पूजा समिति अपने परंपराओं का निर्वहन करती आ रही है. एक तरफ जहां यहां की प्रतिमा एक चाला होती है, तो वहीं कंधे पर उठाकर मां की विदाई दी जाती है. 137 सालों से इसी परंपरा के तहत यहां प्रत्येक वर्ष मां अंबे की आराधना की जाती है. वहीं वाद्य यंत्र बजाने वाले ढाकी भी एक ही पीढ़ी के हैं. परंपरा के तहत पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही परिवार के सदस्यों द्वारा यहां ढाक बजाया जाता है.
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वाद्ययंत्र से निकालते हैं अलग-अलग ध्वनि
ढाक बजाने के दौरान अलग-अलग तरह की ध्वनियां निकलती है. बेल वरण के दौरान ध्वनि अलग होती है, सिंदूर खेला के दौरान अलग तो विसर्जन और विशेष पूजा अर्चना के दौरान अलग ध्वनि वाध्यकार बजाते हैं. बांकुड़ा का एक परिवार पिछले कई वर्षों से यहां वाद्ययंत्र बजाता आ रहा है. हमारी टीम ने उनसे भी खास बातचीत की है.
'परंपरा ही दुर्गाबाड़ी की पहचान'
वहीं पूजा समिति के सचिव गोपाल भट्टाचार्य कहते हैं की परंपराओं के लिए ही दुर्गाबाड़ी की पहचान है. समय नियम और विधि के साथ यह मां दुर्गे की आराधना प्रत्येक वर्ष होती है. बंगाली समुदाय के अलावा कई समुदाय के लोग भी यहां मां की पूजा अर्चना करने जरूर पहुंचते हैं.