रांची: कुछ दिनों से झारखंड की राजधानी रांची समेत विभिन्न जिलों से एक अफवाह जोरों पर है. कहा जा रहा है कि कोरोना वायरस को भगाने के लिए ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं सामूहिक रूप से विशेष पूजा अर्चना कर रही हैं. इसकी सच्चाई और पड़ताल करने ईटीवी भारत की टीम ने राजधानी रांची के कुछ ग्रामीण क्षेत्रों का जायजा लिया है. उस दौरान सच कुछ और ही सामने आया है. दरअसल, एक पुरानी परंपरा को बचाए रखने के लिए ग्रामीण क्षेत्र की महिला सामूहिक रूप से एक विशेष पूजा कर रही हैं. समाज के पहान और आदिवासी समुदाय से जुड़े लोगों की माने तो रिश्तो में मधुर संबंध हो. इसी उद्देश्य के साथ इस उत्सव का आयोजन किया जा रहा है. कोरोना से इसका कोई लेना देना नहीं है.
कोरोना को दरकिनार
कोरोना महामारी को लेकर एक तरफ जहां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अफरा-तफरी है. इसके बचाव के उपाय किए जा रहे हैं तो वहीं कुछ लोग इस महामारी को अवसर के तौर पर भी ले रहे हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना वायरस पर आस्था भारी है. कोरोना का डर तो लोगों में नहीं है. लेकिन किसी अनहोनी और परंपरा को बचाए रखने के लिए लोग कोरोना को दरकिनार कर सामूहिक रुप से पूजा अर्चना करने में जुटे हैं.
परंपराओं के लिए जाना जाता है झारखंड
झारखंड आदिवासी परंपराओं के लिए जाना जाता है. हर कदम पर यहां परंपराएं हैं और रीति रिवाज के साथ ही प्रकृति पूजन का भी इस राज्य में काफी महत्व है. ग्रामीण क्षेत्रों में भाभी और ननद के बीच कहा जाता है कि संबंध सही नहीं रहता है. उसी संबंध को बेहतर बनाने, मधुर करने के लिए सदियों से एक विशेष परंपरा चली आ रही है. इस परंपरा के तहत सूर्य निकलने से पहले महिलाएं जलाशयों में जाती है. घाटों में पूजा-अर्चना करती हैं और उसके बाद पैदल चलकर मंदिरों तक पहुंचती हैं. मंदिरों में पहान की ओर से इनकी पूजा-अर्चना को सफल करवाने के लिए विशेष अनुष्ठान किया जाता है. फिर ननद की ओर से दी गई भाभी के लिए नए कपड़ों को पहना किया जाता है. उसके बाद ही अन्न जल ग्रहण किया जाता है. इसके अलावे ग्रामीण युवा पशु बलि के रूप में भेड़ की खोज करते हैं और उपयुक्त भेड़ मिलने के बाद उसे पूजा के बाद एक दिन तक छोड़ दिया जाता है. फिर दूसरे दिन उस भेड़ की बलि चढ़ाकर कर लोग उत्सव मनाते हैं और यह उत्सव आदिवासियों के जीवन में सदियों पुरानी है.
रिश्तों को मधुर करना एकमात्र उद्देश्य
महिलाओं की माने तो रिश्तों को मधुर करना ही इस परंपरा और उत्सव का एकमात्र उद्देश्य है. कोरोना वायरस से इस उत्सव का कोई लेना देना नहीं है और ना ही कोरोना महामारी इस पूजा अर्चना से भागती है. महज इस परंपरा को संजोने के लिए ही आदिवासी समुदाय के लोग इस पूजा को करते हैं. यह पूजा एक महीने तक चलता है. सप्ताह में एक दिन चिन्हित क्षेत्र की महिलाएं सामूहिक रूप से पूजा अर्चना करती हैं. सोशल डिस्टेंसिंग के सवाल पर महिलाओं ने कहा कि भगवान सबकी रक्षा करेंगे, समय आने पर कोरोना वायरस से भी समाज को निजात भगवान दिलाएंगे.
मंदिर के बाहर बैठी महिलाएं ये भी पढ़ें- लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जयंती, हजारीबाग से जेपी का रहा है गहरा नाता
गाइडलाइन का करें पालन
राज्य सरकार के गाइडलाइन के बाद मंदिरों के पट खुल गए हैं लेकिन कोरोना को लेकर विशेष दिशा-निर्देश भी जारी किया गया है. मंदिरों में भीड़ नहीं लगाना है. लोगों को सुरक्षात्मक कदम उठाते हुए ही पूजा-अर्चना करना है. इस ओर भी लोगों को अपनी परंपरा को बचाने के साथ-साथ जीवन को बचाने के लिए ध्यान देने की जरूरत है. तब जाकर पूरा समाज और विश्व का कल्याण हो सकेगा.