रांची/पश्चिमी सिंहभूमः देश के 28वें राज्य के रूप में झारखंड की स्थापना धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा की जयंती यानी 15 नवंबर के दिन साल 2000 में हुई थी. मकसद था आदिवासी बहुल राज्य का विकास करना. इसमें कोई शक नहीं कि राज्य बनने से झारखंड के लोगों को फायदा भी हुआ लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि जिनकी जयंती के दिन राज्य की स्थापना हुई, उनके भक्तों को यह भी नहीं मालूम कि उनके राज्य का मुख्यमंत्री कौन है. वे विधायक का भी नाम नहीं जानते. इक्के-दुक्के लोग टूटी-फूटी हिंदी बोल पाते हैं. फिर भी किसी से कोई गिला-शिकवा नहीं. अभावों के बीच भी खुश हैं भगवान बिरसा के भक्त. खुद को बिरसाइत कहते हैं. यानी बिरसा की पूजा करने वाले. इनके लिए बिरसा ही सबकुछ हैं.
रांची से करीब 80 किलोमीटर दूर खूंटी जिला के बाद शुरू होता है पश्चिमी सिंहभूम के बंदगांव थानाक्षेत्र का इलाका. यहां के बाड़ेडीह गांव में भगवान बिरसा के अनुयायी अपनी एक अलग दुनिया में मग्न हैं. खेती और पशुपालन इनका मुख्य पेशा है. हर पुरूष के गले में जनेव इनकी पहचान है. इस गांव में एक भी शौचालय नहीं है. किसी घर में सरकारी अनाज नहीं पहुंचता. किसी घर में उज्ज्वला का गैस सिलिंडर नहीं पहुंचा है. प्रधानमंत्री आवास क्या होता है इन्हें नहीं मालूम. फिर भी सभी खुश हैं.
एतवा मुंडा की पीढ़ी
बिरसा की जन्मस्थली खूंटी जिला के उलीहातू से करीब 50 किलोमीटर दूर खूंटी और पश्चिम सिंहभूम की सीमा पर वर्षों पहले उनके अनुयायी एतवा मुंडा आकर बसे थे. एतवा अब नहीं रहे. तीन साल पहले तक एतवा मुंडा की तीन पुश्तें एक साथ रहीं. करीब पचास सदस्यों का एक ही जगह खाना बनता था. एतवा के तीन बेटे थे. नवरू मुंडा, दीत मुंडा और कांडे मुंडा. बाद में नवरू के तीन पुत्र हुए. दीत के भी तीन पुत्र हुए. कांडे मुंडा का एक बेटा हुआ. जिसका नाम ग्रैंड फादर के नाम पर एतवा मुंडा रखा गया. लेकिन चौथी पुश्त शुरू होते ही सभी भाईचारगी के साथ अलग हो गए. इसमें कोई शराब का सेवन नहीं करता और सभी चटाई पर सोते हैं.
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क्यों नहीं पहुंची विकास की किरण
जर्जर सड़कों से होकर जब ईटीवी भारत की टीम इस गांव में पहुंची तो सभी संदेह भरी नजरों से देखने लगे. इनके साथ घुलने मिलने में काफी वक्त लगा. लेकिन मीडिया से बात करने में किसी की दिलचस्पी नहीं थी. हमने सरकारी सुविधाओं पर उनके हक की बात की. जवाब आया कि इसकी हमें जरूरत नहीं. इस गांव में सरकारी सुविधा के नाम पर एक साल पहले बिजली जरूर पहुंची है लेकिन किसी भी घर में न पंखा है और न टीवी. इसके अलावा इस गांव में बस एक सरकारी चापाकल दिखता है. किसी तरह एतवा मुंडा से बात शुरू हुई. लेकिन ज्यादातर सवालों का जवाब हां, ना या क्यों में दिया. बस एक सवाल पर उनके चेहरे खिल उठते थे. सवाल था कि आपलोग किसकी पूजा करते हैं... जवाब था " बिरसा की ". एतवा के चचेरे भाई का जवाब भी ऐसा ही था. खूंटी के तपकरा से ब्याही गई बिरसी मानकी से भी उनकी जरूरतों पर बात करने की कोशिश की गई. आश्चर्य कि बिरसाइतों के इस गांव में बिरसा की न तो कोई प्रतिमा है और न फोटो. यानी यहां के लोगों के दिलों में बसते हैं भगवान बिरसा. ये लोग रविवार को विशेष प्रार्थना करते हैं.
बातचीत के दौरान एक बात समझ में आई कि इनके दिल में यह बात घर कर गई है कि किसी से कोई भी सुविधा लेना भगवान बिरसा के सिद्धांतों के खिलाफ होगा. इन्हें इस बात का भी डर है कि अगर सुविधाएं लेने लगे तो इनके जीवन में बाहरियों का दखल होने लगेगा. क्योंकि बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों और बाहरियों के खिलाफ ही आंदोलन चलाया था. बिरसाइतों के इस गांव में शांति है. सब्जी बेचकर अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी करते हैं. बच्चे स्कूल जाते हैं लेकिन अगर कोई न जाना चाहे तो उसपर कोई दवाब नहीं. इनका मानना है कि स्कूल जाकर क्या होगा, आखिर काम तो खेत में ही करना है.
बिरसा धर्म
15 नवंबर 1875 को झारखंड के खूंटी जिले के उलिहातु में जन्मे बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष किया था और आदिवासियों को उनका हक दिलाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी थी. 9 जून 1900 को रांची जेल में उनका निधन हो गया था. आदिवासी समुदाय बिरसा मुंडा को धरती आबा यानी भगवान मानता है. उन्होंने एक धर्म चलाया था, जिसे बिरसा धर्म कहते हैं. बिरसा के सच्चे भक्त आज भी इस धर्म को निभा रहे हैं, जिन्हें बिरसाइत कहा जाता है.