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137 साल पुराना है रांची के दुर्गा बाड़ी का इतिहास, 1883 में पहली बार की गई थी दुर्गा पूजा - दुर्गाबाड़ी का इतिहास

रांची सहित पूरे देश में दुर्गा पूजा को लेकर जोर-शोर से तैयारी चल रही है. आधुनिकता के दौर में भी रांची के अल्बर्ट एक्का चौक स्थित दुर्गा बाड़ी मंदिर में पुराने और पौराणिक परंपराओं से ही पूजा का आयोजन किया जाता है.

दुर्गाबाड़ी मंदिर
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Published : Sep 23, 2019, 2:03 PM IST

रांची: मां दुर्गा की आराधना को लेकर बदलते समय के अनुसार दुर्गा पूजा का खर्च कितना भी बढ़ जाए. शहर में एक से बढ़कर एक भव्य पंडाल बन रहे हो, लेकिन रांची के अल्बर्ट एक्का चौक स्थित दुर्गा बाड़ी की दुर्गा पूजा आज भी अपने पुराने और पौराणिक परंपराओं के अनुसार होती है. 1883 से जो परंपरा इस मंदिर में चली आ रही है. वह परंपरा आज भी कायम है. आज भी मां की विदाई, डोली में ही बैठाकर की जाती है.

देखें पूरी खबर

पहली दुर्गा पूजा कमेटी का हुआ था गठन
रांची में सबसे पहले, सन 1883 में सार्वजनिक दुर्गा पूजा का आयोजन हुआ था. रांची के जिला स्कूल के प्रधानाचार्य रहे, पंडित गंगाचरण वेदांत बागीस ने बंगाली समुदाय के समक्ष दुर्गा पूजा का प्रस्ताव रखा था. इन्हीं के प्रयास से रांची की पहली दुर्गा पूजा कमेटी का गठन हुआ था. आज जहां दुर्गा बाड़ी है वहां पहले एक खपड़ैल का मकान हुआ करता था और उसी में पहली बार दुर्गा पूजा का आयोजन किया गया था. आज वह जगह अल्बर्ट एक्का चौक के समीप दुर्गा बाड़ी और दुर्गा बाटी के नाम से प्रसिद्ध है.


महानवमी में सिर्फ महिलाएं करती थीं मां महामाया के दर्शन
137 साल पुराने इस मंदिर का इतिहास है. इस दौरान यहां मेला और यात्रा का भी आयोजन होता था. लेकिन जैसे-जैसे आबादी बढ़ी, जगह की कमी के कारण मेला बंद हो गया. कहानी तो ऐसी भी प्रचलित है कि दुर्गा पूजा के समय नवमी के दिन रात 8 बजे से लेकर 9 बजे तक प्रतिमा का दर्शन केवल महिलाएं ही करती थीं. उस समय पुरुषों का मंदिर के अंदर प्रवेश करना वर्जित हुआ करता था. लेकिन इस परंपरा को बदल दिया गया अब पुरुषों को भी मां की प्रतिमा के दर्शन करने की अनुमति नवमी के दिन भी है.

ये भी देखें- नरक भोग रहे पूर्वजों को ऐसे होती है स्वर्ग प्राप्ति, गया सिर-गया कूप वेदी की ये है पौराणिक मान्यता


कंधे पर होती है मां की विदाई
बदलते दौर में भले ही मां दुर्गा की प्रतिमा का विसर्जन भव्य शोभा निकालकर किए जाते हो, लेकिन दुर्गा बाड़ी की परंपरा आज भी कायम है. आज भी दुर्गा बाड़ी में प्रतिमाओं का विसर्जन वाहनों से नहीं बल्कि कंधों पर बिठाकर ही मां को विदाई की जाती है.


प्रतिमाएं एक चाला की खासियत
यहां की प्रतिमा की भी एक अलग खासियत है. यहां की प्रतिमाएं एक चाला होती हैं, यानि तमाम प्रतिमाओं के नाप एक ही होती है. इसे पश्चिम बंगाल के बंगाली कारीगर तैयार करते हैं. 1883 में झालदा के जगन्नाथ लहरी ने मां की प्रतिमा पहली बार बनाई थी. इसके बाद पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के बेरवा गांव निवासी देवेंद्र नाथ सूत्रदार ने जिम्मेदारी संभाली और आज भी उनके ही वंशज मूर्ति निर्माण का काम दुर्गा बाटी में हर वर्ष दुर्गोत्सव के दौरान करते हैं.


प्रसिद्ध है सिंदूर खेला
यहां तक कि पूजा पाठ भी पीढ़ी दर पीढ़ी ही एक ही पंडित के वंशज करते हैं. दुर्गा बाड़ी में दशमी को होने वाला सिंदूर खेला काफी लोकप्रिय है. इस परंपरा में शामिल होने के लिए दूर-दूर से महिलाएं आती हैं. इसके अलावा दुर्गा बाड़ी में कुंवारी कन्या पूजन, संधि पूजा और संध्या आरती का भी खास महत्व है. विधि-विधान के साथ हर साल मां अंबे की आराधना की जाती है.


वहीं 1897 से पश्चिम की तरफ पूजा के समय मेला लगता था जो दुर्गा मेला के नाम से भी प्रचलित हुआ और यह परंपरा चल पड़ी. जहां बकरे की बलि दी जाती थी. जिसे 1927 में बंद कर दिया गया और तब से इसके बदले भतुआ, कोहड़ा ,नींबू और गन्ने की बलि दी जाने लगी.

रांची: मां दुर्गा की आराधना को लेकर बदलते समय के अनुसार दुर्गा पूजा का खर्च कितना भी बढ़ जाए. शहर में एक से बढ़कर एक भव्य पंडाल बन रहे हो, लेकिन रांची के अल्बर्ट एक्का चौक स्थित दुर्गा बाड़ी की दुर्गा पूजा आज भी अपने पुराने और पौराणिक परंपराओं के अनुसार होती है. 1883 से जो परंपरा इस मंदिर में चली आ रही है. वह परंपरा आज भी कायम है. आज भी मां की विदाई, डोली में ही बैठाकर की जाती है.

देखें पूरी खबर

पहली दुर्गा पूजा कमेटी का हुआ था गठन
रांची में सबसे पहले, सन 1883 में सार्वजनिक दुर्गा पूजा का आयोजन हुआ था. रांची के जिला स्कूल के प्रधानाचार्य रहे, पंडित गंगाचरण वेदांत बागीस ने बंगाली समुदाय के समक्ष दुर्गा पूजा का प्रस्ताव रखा था. इन्हीं के प्रयास से रांची की पहली दुर्गा पूजा कमेटी का गठन हुआ था. आज जहां दुर्गा बाड़ी है वहां पहले एक खपड़ैल का मकान हुआ करता था और उसी में पहली बार दुर्गा पूजा का आयोजन किया गया था. आज वह जगह अल्बर्ट एक्का चौक के समीप दुर्गा बाड़ी और दुर्गा बाटी के नाम से प्रसिद्ध है.


महानवमी में सिर्फ महिलाएं करती थीं मां महामाया के दर्शन
137 साल पुराने इस मंदिर का इतिहास है. इस दौरान यहां मेला और यात्रा का भी आयोजन होता था. लेकिन जैसे-जैसे आबादी बढ़ी, जगह की कमी के कारण मेला बंद हो गया. कहानी तो ऐसी भी प्रचलित है कि दुर्गा पूजा के समय नवमी के दिन रात 8 बजे से लेकर 9 बजे तक प्रतिमा का दर्शन केवल महिलाएं ही करती थीं. उस समय पुरुषों का मंदिर के अंदर प्रवेश करना वर्जित हुआ करता था. लेकिन इस परंपरा को बदल दिया गया अब पुरुषों को भी मां की प्रतिमा के दर्शन करने की अनुमति नवमी के दिन भी है.

ये भी देखें- नरक भोग रहे पूर्वजों को ऐसे होती है स्वर्ग प्राप्ति, गया सिर-गया कूप वेदी की ये है पौराणिक मान्यता


कंधे पर होती है मां की विदाई
बदलते दौर में भले ही मां दुर्गा की प्रतिमा का विसर्जन भव्य शोभा निकालकर किए जाते हो, लेकिन दुर्गा बाड़ी की परंपरा आज भी कायम है. आज भी दुर्गा बाड़ी में प्रतिमाओं का विसर्जन वाहनों से नहीं बल्कि कंधों पर बिठाकर ही मां को विदाई की जाती है.


प्रतिमाएं एक चाला की खासियत
यहां की प्रतिमा की भी एक अलग खासियत है. यहां की प्रतिमाएं एक चाला होती हैं, यानि तमाम प्रतिमाओं के नाप एक ही होती है. इसे पश्चिम बंगाल के बंगाली कारीगर तैयार करते हैं. 1883 में झालदा के जगन्नाथ लहरी ने मां की प्रतिमा पहली बार बनाई थी. इसके बाद पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के बेरवा गांव निवासी देवेंद्र नाथ सूत्रदार ने जिम्मेदारी संभाली और आज भी उनके ही वंशज मूर्ति निर्माण का काम दुर्गा बाटी में हर वर्ष दुर्गोत्सव के दौरान करते हैं.


प्रसिद्ध है सिंदूर खेला
यहां तक कि पूजा पाठ भी पीढ़ी दर पीढ़ी ही एक ही पंडित के वंशज करते हैं. दुर्गा बाड़ी में दशमी को होने वाला सिंदूर खेला काफी लोकप्रिय है. इस परंपरा में शामिल होने के लिए दूर-दूर से महिलाएं आती हैं. इसके अलावा दुर्गा बाड़ी में कुंवारी कन्या पूजन, संधि पूजा और संध्या आरती का भी खास महत्व है. विधि-विधान के साथ हर साल मां अंबे की आराधना की जाती है.


वहीं 1897 से पश्चिम की तरफ पूजा के समय मेला लगता था जो दुर्गा मेला के नाम से भी प्रचलित हुआ और यह परंपरा चल पड़ी. जहां बकरे की बलि दी जाती थी. जिसे 1927 में बंद कर दिया गया और तब से इसके बदले भतुआ, कोहड़ा ,नींबू और गन्ने की बलि दी जाने लगी.

Intro:दुर्गोत्सव स्पेशल

रांची।

मां दुर्गे की आराधना को लेकर बदले समय के अनुसार दुर्गा पूजा का खर्च कितना भी बढ़ जाए. शहर में एक से बढ़कर एक भव्य पंडाल बन रहे हो. लेकिन रांची के अल्बर्ट एक्का चौक स्थित दुर्गा बाड़ी की दुर्गा पूजा आज भी अपने पुराने और पौराणिक परंपराओं को संजोत कर रखा है. 1883 से जो परंपरा इस मंदिर में चली आ रही है .वह परंपरा आज भी कायम है .आज भी मां की विदाई की डोली कंधों पर ही बिठाकर ले जाया जाता है....


Body:राजधानी रांची में सबसे पहले सन 1883 में सार्वजनिक दुर्गा पूजा का आयोजन हुआ था .रांची के जिला स्कूल के प्रधानाचार्य रहे. पंडित गंगाचरण वेदांत बागीस ने बंगाली समुदाय के समक्ष दुर्गा पूजा का प्रस्ताव रखा था. इन्हीं के प्रयास से रांची की पहली दुर्गा पूजा कमेटी का गठन हुआ था. आज जहां दुर्गाबाड़ी है वहां पहले एक खपड़ैल का मकान हुआ करता था और उसी में रांची में पहली बार दुर्गा पूजा का आयोजन किया गया था .आज वह जगह अल्बर्ट एक्का चौक के समीप दुर्गा बाड़ी और दुर्गाबाटी के नाम से प्रसिद्ध है.

महानवमी में सिर्फ महिलाएं करती थी मां महामाया की दर्शन:

137 साल पुराना इस मंदिर का इतिहास है. उस दौरान यहां मेला और जात्रा का भी आयोजन होता था. लेकिन जैसे-जैसे आबादी बढ़ी .जगह की कमी के कारण मेला बंद हो गया. कहानी तो येसी भी प्रचलित है कि दुर्गा पूजा के समय नवमी के दिन रात 8 बजे से लेकर 9 बजे तक प्रतिमा का दर्शन केवल महिलाएं ही करती थी .उस समय पुरुषों का मंदिर के अंदर प्रवेश करना वर्जित हुआ करता था. लेकिन इस परंपरा को बदल दिया गया अब पुरुषों को भी मां की प्रतिमा का दर्शन करने की अनुमति नवमी के दिन भी है .

कंधे में होती है मां की विदाई:

बदलते दौर में भले ही मां दुर्गा का विसर्जन भव्य शोभायात्रा वाहनों को सजाकर की जाती हो. लेकिन दुर्गाबाटी की परंपरा आज भी कायम है .आज भी दुर्गा बाड़ी में प्रतिमाओं का विसर्जन वाहनों से नहीं बल्कि कंधों पर बिठाकर ही मां को विदाई दी जाती है.

प्रतिमाएं एक चाला :

यहां की प्रतिमा की भी एक अलग खासियत है .यहां की प्रतिमाएं एक चला होता है .मतलब तमाम प्रतिमाओं के नापी एक ही होती है .इसे पश्चिम बंगाल के बंगाली कारीगरों द्वारा की तैयार की जाती है. 1883 में झालदा के जगन्नाथ लहरी ने मां की प्रतिमा पहली बार बनाई थी .इसके बाद पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के बेरवा गांव निवासी देवेंद्र नाथ सूत्रदार ने जिम्मेदारी संभाली और आज भी उनके ही वंशज मूर्ति निर्माण का काम दुर्गाबाटी में प्रत्येक वर्ष दुर्गोत्सव के दौरान करते हैं.

प्रसिद्ध है सिंदूर खेला:

यहां तक कि पूजा पाठ भी पीढ़ी दर पीढ़ी ही यहां एक ही पंडित के वंशज द्वारा किया जाता है .दुर्गा बाड़ी में दशमी को होने वाला सिंदूर खेला काफी लोकप्रिय है. इस परम्परा में शामिल होने दूर-दूर से महिलाएं आती है. इसके अलावा दुर्गाबाड़ी में कुंवारी कन्या पूजन, संधि पूजा और संध्या आरती का भी खास महत्व है. विधि विधान के साथ प्रत्येक वर्ष समय अनुसार ही यहां मां अंबे की आराधना की जाती है.


Conclusion:1897 से पश्चिम की तरफ पूजा के समय मेला लगता था. जो दुर्गा मेला के नाम से भी प्रचलित हुआ और यह परंपरा चल पड़ी बकरे की बलि दी जाती थी जिसे 1927 में बंद कर दिया गया और तब से इसके बदले भतुआ, कोहड़ा ,नींबू और गन्ना की बलि आरंभ हुई.


बाइट- गोपाल भट्टाचार्य, दुर्गा बाटी मंदिर समिति, सेक्रेटरी।
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