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विरासत को आगे बढ़ाने के लिए चाक चलाती हैं रुकमणी, समय के साथ बनी रहे परंपरा की गति

आमतौर पर आपने पुरुषों को ही चाक चलाते हुए देखा होगा. लेकिन आज हम आपको एक ऐसी महिला से मिलाने जा रहे हैं. जिन्होंने अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए चाक चलाना सीखा. परंपरा की परवाह ऐसी कि पारा शिक्षिका होते हुए भी रुकमणी देवी चाक पर दीये और मिट्टी के खिलौने बखूबी बनाती हैं.

महिला कुम्हार
महिला कुम्हार रुकमणी
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Published : Nov 1, 2021, 5:33 PM IST

हजारीबागः जिले के सिरसी शंकरपुर की रहने वाली रुकमणी देवी पारा शिक्षिका है. लेकिन समय निकालकर वो मिट्टी के बर्तन भी बनाती हैं. आधुनिक जीवन शैली में प्लास्टिक, एलुमिनियम और स्टील के बर्तन जिंदगी का हिस्सा बन चुकी हैं. इस दौर में भी रुकमणी विरासत को आगे बढ़ाते हुए मिट्टी के बर्तन बनाती हैं.

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चाक चलाना बेहद ही मेहनत वाला काम है. ऐसे में यह काम पुरुष ही करते हैं.लेकिन कोई अगर अपने विरासत को संभालने के लिए महिला चाक चलाए तब उनके जज्बे को भी सलाम करना चाहिए. ऐसी ही हैं रुकमणी देवी, जो पेशे से टीचर है लेकिन कई कला में निपुण है. नई पीढ़ी कुम्हार के पेशे से दूर होती जा रही है. यह कला महज कुछ घरों तक सिमट कर रह गई है. उस कला में आधुनिकता का भी प्रवेश हो रहा है और पारंपरिक चाक की जगह मशीन ले रही है.

वीडियो में देखिए पूरी खबर

विरासत को संजोने की कोशिश

ऐसी विषम परिस्थिति में सिरसी शंकरपुर हजारीबाग की महिला रुकमणी देवी अपने पिता से विरासत में मिली कुम्हारी कला को आगे बढ़ा रही हैं. रुकमणी देवी ने ईटीवी भारत को बताया कि उनके लिए ये गर्व की बात है. वह अपनी बेटी को भी यह कला सिखा रही हैं. हालांकि उनका यह भी कहना है कि सरकार को इस कला को प्रोत्साहित करने की जरूरत है. ताकि यह स्कूली बच्चों में भी पहुंचे और वह सीख कर अपने पैरों पर भी खड़ा हो सके.

रुकमणी देवी सिर्फ दीये और बर्तन नहीं बनाती बल्कि वह सोहराई कला में भी निपुण हैं. वर्तमान में वह केरेडारी में सामुदायिक शिक्षिका के पद पर सेवा भी दे रही हैं. बच्चों को पढ़ाने के बाद समय निकाल कर मिट्टी की कलाकृति बनाती हैं.

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परिवार का साथ
इनके पति मिथिलेश भी पेशे से शिक्षक है. वे कहते हैं कि उन्हें अपनी पत्नी पर गर्व है क्योंकि वह अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ा रही हैं. उन्होंने कहा कि जिस तरह से उनकी पत्नी विरासत को आगे बढ़ा रही हैं, वैसे ही उनकी बेटी भी उसे बढाएगी.

रुकमणी की बेटी राजनंदनी भी कहती है कि उन्हें अपनी मां पर गर्व है. राजनंदनी को भी मां से इस कला को सीखना अच्छा लगता है. जब उनसे पूछा गया कि स्कूल में पढ़ाई और फिर इसे सीखने के लिए समय कैसे निकालती हैं. तो उनका कहना है कि दिल से सीखने की ललक हो तो समय निकल ही जाता है.

रुकमणी देवी को उनकी देवरानी सविता पंडित भी साथ में रहती हैं. वह कहती हैं कि उनके पिता और भाई चाक चलाते थे लेकिन उन्होंने चाक नहीं चलाया. जब ससुराल आई और देखा कि उनकी जेठानी चाक चलाती हैं तो उन्होंने भी सीखना शुरू किया.

रुकमणी देवी के दीये से रात का अंधेरा तो मिटेगा ही साथ ही विरासत भी संवरती रहेगी. इनसे ये भी सीख लेने की जरूरत है कि कोई भी काम छोटा-बड़ा या फिर सिर्फ पुरुष करें ऐसा नहीं होता है. दिल में चाहत और कुछ हासिल करने का जुनून हो तो कुछ भी मुश्किल नहीं है.

हजारीबागः जिले के सिरसी शंकरपुर की रहने वाली रुकमणी देवी पारा शिक्षिका है. लेकिन समय निकालकर वो मिट्टी के बर्तन भी बनाती हैं. आधुनिक जीवन शैली में प्लास्टिक, एलुमिनियम और स्टील के बर्तन जिंदगी का हिस्सा बन चुकी हैं. इस दौर में भी रुकमणी विरासत को आगे बढ़ाते हुए मिट्टी के बर्तन बनाती हैं.

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चाक चलाना बेहद ही मेहनत वाला काम है. ऐसे में यह काम पुरुष ही करते हैं.लेकिन कोई अगर अपने विरासत को संभालने के लिए महिला चाक चलाए तब उनके जज्बे को भी सलाम करना चाहिए. ऐसी ही हैं रुकमणी देवी, जो पेशे से टीचर है लेकिन कई कला में निपुण है. नई पीढ़ी कुम्हार के पेशे से दूर होती जा रही है. यह कला महज कुछ घरों तक सिमट कर रह गई है. उस कला में आधुनिकता का भी प्रवेश हो रहा है और पारंपरिक चाक की जगह मशीन ले रही है.

वीडियो में देखिए पूरी खबर

विरासत को संजोने की कोशिश

ऐसी विषम परिस्थिति में सिरसी शंकरपुर हजारीबाग की महिला रुकमणी देवी अपने पिता से विरासत में मिली कुम्हारी कला को आगे बढ़ा रही हैं. रुकमणी देवी ने ईटीवी भारत को बताया कि उनके लिए ये गर्व की बात है. वह अपनी बेटी को भी यह कला सिखा रही हैं. हालांकि उनका यह भी कहना है कि सरकार को इस कला को प्रोत्साहित करने की जरूरत है. ताकि यह स्कूली बच्चों में भी पहुंचे और वह सीख कर अपने पैरों पर भी खड़ा हो सके.

रुकमणी देवी सिर्फ दीये और बर्तन नहीं बनाती बल्कि वह सोहराई कला में भी निपुण हैं. वर्तमान में वह केरेडारी में सामुदायिक शिक्षिका के पद पर सेवा भी दे रही हैं. बच्चों को पढ़ाने के बाद समय निकाल कर मिट्टी की कलाकृति बनाती हैं.

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परिवार का साथ
इनके पति मिथिलेश भी पेशे से शिक्षक है. वे कहते हैं कि उन्हें अपनी पत्नी पर गर्व है क्योंकि वह अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ा रही हैं. उन्होंने कहा कि जिस तरह से उनकी पत्नी विरासत को आगे बढ़ा रही हैं, वैसे ही उनकी बेटी भी उसे बढाएगी.

रुकमणी की बेटी राजनंदनी भी कहती है कि उन्हें अपनी मां पर गर्व है. राजनंदनी को भी मां से इस कला को सीखना अच्छा लगता है. जब उनसे पूछा गया कि स्कूल में पढ़ाई और फिर इसे सीखने के लिए समय कैसे निकालती हैं. तो उनका कहना है कि दिल से सीखने की ललक हो तो समय निकल ही जाता है.

रुकमणी देवी को उनकी देवरानी सविता पंडित भी साथ में रहती हैं. वह कहती हैं कि उनके पिता और भाई चाक चलाते थे लेकिन उन्होंने चाक नहीं चलाया. जब ससुराल आई और देखा कि उनकी जेठानी चाक चलाती हैं तो उन्होंने भी सीखना शुरू किया.

रुकमणी देवी के दीये से रात का अंधेरा तो मिटेगा ही साथ ही विरासत भी संवरती रहेगी. इनसे ये भी सीख लेने की जरूरत है कि कोई भी काम छोटा-बड़ा या फिर सिर्फ पुरुष करें ऐसा नहीं होता है. दिल में चाहत और कुछ हासिल करने का जुनून हो तो कुछ भी मुश्किल नहीं है.

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