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'इसको की गुफाओं' में छिपा है हजारों साल पुराना इतिहास, विश्व धरोहरों में होती है इसकी गिनती

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Published : Feb 16, 2020, 5:13 PM IST

हजारीबाग के बड़कागांव में स्थित 'इसको गुफा' का इतिहास काफी महत्वपूर्ण है. इसकी पहचान पूरे विश्व में ऐतिहासिक धरोहर के रूप में की गई है. इसमें बने शैलचित्रों का संबंध सुमेर घाटी और सिंधू घाटी जैसी कई पुरानी सभ्यताओं में देखा जाता है. जानें क्या है खास.

Rock paintings of ISCO Cave in barkagaon hazaribagh
इसको गुफा की रॉक पेंटिग्स

हजारीबाग: जिले के बड़कागांव को ऐतिहासिक क्षेत्र के रूप में देखा जाता है. यहां कई ऐसे धरोहर हैं जो पूरे विश्व में अपनी विशेष पहचान बनाते हैं. इन्हीं में से एक है हजारीबाग की 'इसको गुफा'. इसको गुफा अपने शैल चित्रों के लिए प्रसिद्ध है. कहा जाता है कि मध्य पाषाण युग की यह चलचित्र है. पुरातात्विक नेताओं ने इस स्थान की खुदाई भी की है और यहां रिसर्च भी किया है. जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह पेंटिंग 10 हजार वर्ष पुरानी है. इस गुफा के चट्टानों पर विभिन्न देवी-देवताओं के चित्र के साथ प्रकृति से जुड़े हुए चित्र भी देखे जा सकते हैं.

जानकारी देते संवाददाता गौरव

'इसको गुफा' एक ऐतिहासिक धरोहर

हजारीबाग से लगभग 40 किलोमीटर दूर बड़कागांव विधानसभा क्षेत्र में इसको गुफा ऐतिहासिक धरोहर के रूप में है. यहां के शैल चित्र कई मायनों में अद्भुत हैं. वहीं, विदेशी पुरातात्विक नेताओं ने भारत के अन्य जगह की शैल चित्रों के मुकाबले 'इसको' के चित्र को सर्वाधिक उन्नत माना है.

देखें पूरी खबर

इसको गुफा में मुख्य रूप से तीन धाराएं हैं. इसमें मानव और पशु आकृतियों की भरमार है. इस गुफा में शिकार के चित्र स्वभाविक रूप से तो है ही इसके साथ ही विभिन्न प्रकार के पक्षी, चंद्रमा, सूर्य और कमल के चित्रों की कारीगरी भी देखते बनती है. जैसे शैल चित्रों का सचमुच मानो कोई लिखित दस्तावेज हो. यह चित्र गिरु और खगड़िया (चित्र बनाने के लिए उपयोग किए जाने वाले सामान) के सहयोग से बनाए गए हैं. साथ ही इसे बनाने के लिए वनस्पतियों का भी प्रयोग हुआ है जिससे हजारों साल बाद भी इन चित्रों की ताजगी बनी हुई है रंग धूमिल नहीं हुई.

सुमेर घाटी की सभ्यता से है जुड़ाव

इन ऐतिहासिक शैल चित्रों के आधार पर यह माना जाता है कि कोहबर कला झारखंड के बड़कागांव से शुरू हुई थी. इसका प्रमाण दामोदर घाटी सभ्यता की प्राचीन इसको गुफा के शैल चित्रों को देखने से मिलता है. इतिहासकारों के अनुसार इसको गुफा के शैल चित्र सुमेर घाटी सभ्यता के समकक्ष माने जाते हैं.

सुमेर घाटी सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता मानी जाती है. क्षेत्र की इसको पहाड़ियों की गुफाओं में आज भी इस कला के नमूने देखे जा सकते हैं. कहा जाता है कि रामगढ़ राज्य के राजाओं ने इस कला को काफी प्रोत्साहित किया. इस वजह से यह कला गुफा की दीवारों से निकलकर घरों की दीवारों पर अपना स्थान बना पाने में सफल हुई.

नाग के फन की आकृति वाली दीवार पर शैल चित्रों की श्रृंखला

हजारीबाग से लगभग 55 किलोमीटर दूर अवसारी पहाड़ी श्रृंखला की 'क्षति पहाड़ी' पर नाग के फन की आकृति वाली लगभग 2500 वर्ग फीट की दीवार पर शैल चित्रों की श्रृंखला बनी हुई है. इस क्षेत्र में काम कर रहे बुलु इमाम के अनुसार इसको में कोहबर गुफा पॉलिश किया हुआ पाषाण स्लेट प्राप्त हुआ है, जो 4 हजार ईसा पूर्व के आसपास का है.

शैल चित्रों में पशु-पक्षी का है चित्रण

इन शैल चित्रों में मुख्य रूप से खेत के दृश्य, विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षी और मवेशी आदि दिखाई देते हैं. इन चित्रों में कई जीव जंतु को भी दर्शाया गया है. जैसे शेर, बैल, गधा, मछली आदि. चित्रों को देखने पर शिवलिंग का स्वरूप स्पष्ट दिखाई देता है. इसके अलावा पान पत्ता, तलवार, जानवरों की बली के लिए रस्सा आदि चित्र भी बड़े ही सावधानी से बनाए गए हैं.

कुछ शोधकर्ताओं ने शैल चित्रों को मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की सभ्यता से जोड़कर इसे सिंधु लिपि का होना मानते हैं. इतना ही नहीं इनके आधार पर गुड़ लिपि का अर्थ निकालने का भी प्रयास किया गया है.

1991 में इसको गुफा की खोज

इसको गुफा की खोज 1991 में हुई. हजारीबाग के रहने वाले और प्रख्यात इतिहासकार पद्मश्री बुलु इमाम को इन शैल चित्रों के बारे में जानकारी मिली. इसको के रहने वाले खेटा मुंडा ने बूलु इमाम को इसकी जानकारी दी कि 1000 फीट लंबी दीवार पर पेंटिंग बनी हुई है. ऐसे में बुलु इमाम ने क्षेत्र का भ्रमण किया.

सिंधु घाटी सभ्यता से मिलती जुलती कला

बुलू इमाम का कहना है कि अब तक इन पत्थरों का कार्बन डेटिंग नहीं हुआ है. उन्होंने बताया कि ये शैल चित्र 3 से 4 हजार वर्ष पुराने हैं. उन्होंने कहा कि जब उन्हें इस बात की जानकारी हुई तो भारतीय संस्कृति निधि से संपर्क किया गया और वहां से आई टीम ने इस पर शोध किया और अब यह पूरे देश के लिए खुला म्यूजियम है. यहां आकर इतिहासकार अक्सर अध्ययन करते हैं. उनका कहना है कि यहां तीन जानवर अधिक देखे गए हैं. उन्होंने बताया कि इनमें गाय, हिरण की तरह आकृति सबसे अधिक देखने को मिला. इस कारण इसे इंडस वैली कल्चर से जोड़कर देखा जाता है.

इसे लेकर कई तरह की कहानियां भी सुनने को मिलती है. यहां के स्थानीय बताते हैं कि यहां बादाम राजा शादी के बाद समय बिताने के लिए रानी के साथ आए थे. उन्होंने यह आकृति बनाई जिसे कोहबर कहा गया. और धीरे-धीरे यह कलाकृति विख्यात हुई और गुफा से निकलकर गांव के दीवारों में जगह बनाई .

लेकिन अब यह कलाकृति विलुप्त होने की कगार पर है इसे संरक्षित करने के लिए हजारीबाग जिला प्रशासन कई कदम उठा रही है, जिसमें वैसी महिलाएं जो कोहबर कला कर रही हैं उन्हें प्रोत्साहित भी किया गया है. ऐसे में यहां की महिलाएं भी देश-विदेश में जाकर इस कलाकृति के बारे में लोगों को बता रही हैं. जरूरत है इस कला के बारे में लोगों को जागरूक करने की.

हजारीबाग: जिले के बड़कागांव को ऐतिहासिक क्षेत्र के रूप में देखा जाता है. यहां कई ऐसे धरोहर हैं जो पूरे विश्व में अपनी विशेष पहचान बनाते हैं. इन्हीं में से एक है हजारीबाग की 'इसको गुफा'. इसको गुफा अपने शैल चित्रों के लिए प्रसिद्ध है. कहा जाता है कि मध्य पाषाण युग की यह चलचित्र है. पुरातात्विक नेताओं ने इस स्थान की खुदाई भी की है और यहां रिसर्च भी किया है. जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह पेंटिंग 10 हजार वर्ष पुरानी है. इस गुफा के चट्टानों पर विभिन्न देवी-देवताओं के चित्र के साथ प्रकृति से जुड़े हुए चित्र भी देखे जा सकते हैं.

जानकारी देते संवाददाता गौरव

'इसको गुफा' एक ऐतिहासिक धरोहर

हजारीबाग से लगभग 40 किलोमीटर दूर बड़कागांव विधानसभा क्षेत्र में इसको गुफा ऐतिहासिक धरोहर के रूप में है. यहां के शैल चित्र कई मायनों में अद्भुत हैं. वहीं, विदेशी पुरातात्विक नेताओं ने भारत के अन्य जगह की शैल चित्रों के मुकाबले 'इसको' के चित्र को सर्वाधिक उन्नत माना है.

देखें पूरी खबर

इसको गुफा में मुख्य रूप से तीन धाराएं हैं. इसमें मानव और पशु आकृतियों की भरमार है. इस गुफा में शिकार के चित्र स्वभाविक रूप से तो है ही इसके साथ ही विभिन्न प्रकार के पक्षी, चंद्रमा, सूर्य और कमल के चित्रों की कारीगरी भी देखते बनती है. जैसे शैल चित्रों का सचमुच मानो कोई लिखित दस्तावेज हो. यह चित्र गिरु और खगड़िया (चित्र बनाने के लिए उपयोग किए जाने वाले सामान) के सहयोग से बनाए गए हैं. साथ ही इसे बनाने के लिए वनस्पतियों का भी प्रयोग हुआ है जिससे हजारों साल बाद भी इन चित्रों की ताजगी बनी हुई है रंग धूमिल नहीं हुई.

सुमेर घाटी की सभ्यता से है जुड़ाव

इन ऐतिहासिक शैल चित्रों के आधार पर यह माना जाता है कि कोहबर कला झारखंड के बड़कागांव से शुरू हुई थी. इसका प्रमाण दामोदर घाटी सभ्यता की प्राचीन इसको गुफा के शैल चित्रों को देखने से मिलता है. इतिहासकारों के अनुसार इसको गुफा के शैल चित्र सुमेर घाटी सभ्यता के समकक्ष माने जाते हैं.

सुमेर घाटी सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता मानी जाती है. क्षेत्र की इसको पहाड़ियों की गुफाओं में आज भी इस कला के नमूने देखे जा सकते हैं. कहा जाता है कि रामगढ़ राज्य के राजाओं ने इस कला को काफी प्रोत्साहित किया. इस वजह से यह कला गुफा की दीवारों से निकलकर घरों की दीवारों पर अपना स्थान बना पाने में सफल हुई.

नाग के फन की आकृति वाली दीवार पर शैल चित्रों की श्रृंखला

हजारीबाग से लगभग 55 किलोमीटर दूर अवसारी पहाड़ी श्रृंखला की 'क्षति पहाड़ी' पर नाग के फन की आकृति वाली लगभग 2500 वर्ग फीट की दीवार पर शैल चित्रों की श्रृंखला बनी हुई है. इस क्षेत्र में काम कर रहे बुलु इमाम के अनुसार इसको में कोहबर गुफा पॉलिश किया हुआ पाषाण स्लेट प्राप्त हुआ है, जो 4 हजार ईसा पूर्व के आसपास का है.

शैल चित्रों में पशु-पक्षी का है चित्रण

इन शैल चित्रों में मुख्य रूप से खेत के दृश्य, विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षी और मवेशी आदि दिखाई देते हैं. इन चित्रों में कई जीव जंतु को भी दर्शाया गया है. जैसे शेर, बैल, गधा, मछली आदि. चित्रों को देखने पर शिवलिंग का स्वरूप स्पष्ट दिखाई देता है. इसके अलावा पान पत्ता, तलवार, जानवरों की बली के लिए रस्सा आदि चित्र भी बड़े ही सावधानी से बनाए गए हैं.

कुछ शोधकर्ताओं ने शैल चित्रों को मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की सभ्यता से जोड़कर इसे सिंधु लिपि का होना मानते हैं. इतना ही नहीं इनके आधार पर गुड़ लिपि का अर्थ निकालने का भी प्रयास किया गया है.

1991 में इसको गुफा की खोज

इसको गुफा की खोज 1991 में हुई. हजारीबाग के रहने वाले और प्रख्यात इतिहासकार पद्मश्री बुलु इमाम को इन शैल चित्रों के बारे में जानकारी मिली. इसको के रहने वाले खेटा मुंडा ने बूलु इमाम को इसकी जानकारी दी कि 1000 फीट लंबी दीवार पर पेंटिंग बनी हुई है. ऐसे में बुलु इमाम ने क्षेत्र का भ्रमण किया.

सिंधु घाटी सभ्यता से मिलती जुलती कला

बुलू इमाम का कहना है कि अब तक इन पत्थरों का कार्बन डेटिंग नहीं हुआ है. उन्होंने बताया कि ये शैल चित्र 3 से 4 हजार वर्ष पुराने हैं. उन्होंने कहा कि जब उन्हें इस बात की जानकारी हुई तो भारतीय संस्कृति निधि से संपर्क किया गया और वहां से आई टीम ने इस पर शोध किया और अब यह पूरे देश के लिए खुला म्यूजियम है. यहां आकर इतिहासकार अक्सर अध्ययन करते हैं. उनका कहना है कि यहां तीन जानवर अधिक देखे गए हैं. उन्होंने बताया कि इनमें गाय, हिरण की तरह आकृति सबसे अधिक देखने को मिला. इस कारण इसे इंडस वैली कल्चर से जोड़कर देखा जाता है.

इसे लेकर कई तरह की कहानियां भी सुनने को मिलती है. यहां के स्थानीय बताते हैं कि यहां बादाम राजा शादी के बाद समय बिताने के लिए रानी के साथ आए थे. उन्होंने यह आकृति बनाई जिसे कोहबर कहा गया. और धीरे-धीरे यह कलाकृति विख्यात हुई और गुफा से निकलकर गांव के दीवारों में जगह बनाई .

लेकिन अब यह कलाकृति विलुप्त होने की कगार पर है इसे संरक्षित करने के लिए हजारीबाग जिला प्रशासन कई कदम उठा रही है, जिसमें वैसी महिलाएं जो कोहबर कला कर रही हैं उन्हें प्रोत्साहित भी किया गया है. ऐसे में यहां की महिलाएं भी देश-विदेश में जाकर इस कलाकृति के बारे में लोगों को बता रही हैं. जरूरत है इस कला के बारे में लोगों को जागरूक करने की.

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