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बदलाव की बयारः रविदास समाज ने किया ब्रम्हभोज का बहिष्कार

सामाजिक ताना-बाना में समानताएं और विषमताएं हैं. एक तरफ हम इंसानियत का पाठ (Lesson of humanity) पढ़ते हैं तो दूसरी तरफ इन्हीं जटिलाओं से घिर जाते हैं. रस्म-रिवाज के नाम पर लोग कई बार सामाजिक रूढ़ीवाद (Social conservatism) का शिकार हो जाते हैं. मानवता सर्वोपरि होनी चाहिए, इस दिशा में हजारीबाग के रविदास समाज (Ravidas Samaj) के पहल की है और एक मिसाल कायम करने की कोशिश कर रहा है.

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बदलाव की ओर रविदास समाज
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Published : Jun 27, 2021, 5:02 PM IST

Updated : Jun 27, 2021, 6:25 PM IST

हजारीबागः 'हम ब्रम्हभोज या मृत्यु भोज में बेजा खर्च नहीं करेंगे, उन पैसों से हम बच्चों को पढ़ाएंगे और बुजुर्गों की सेवा करेंगे'- ये ऐलान या यूं कह लें कि सामाजिक रूढ़ीवादिता के खिलाफ एक बिगुल है, जो हजारीबाग के रविदास समाज (Ravidas Samaj) ने फूंका है. इस समाज के लोगों का प्रतिकार है, दकियानुसी विचार, सामाजिक आडंबर और ढकोसलों पर प्रहार है.

इसे भी पढ़ें- सर्पदंश में सिर्फ जहर ही नहीं इस वजह से भी होती है मौत

हमारे समाज में सरलताएं हैं तो समय-समय पर इसकी जटिलताएं भी सामने आती हैं. रीति-रिवाज (Customs and Traditions), रस्म अदायगी की बानगी ऐसी है कि कभी-कभी ये किसी परिवार के लिए गले की फांस बन जाता है. लेकिन अब इसका प्रतिकार हो रहा है. रविदास समाज ने ऐसी ही एक सामाजिक रूढ़ीवादिता (Social conservatism) पर प्रहार किया है. उन्होंने मृत्यु के बाद कराए जाने वाले ब्रम्हभोज या मृत्यु भोज का बहिष्कार का फैसला लिया है.

देखें पूरी खबर

हजारीबाग के सुदूरवर्ती पदमा पंचायत के सरैयाडीह के रहने वाले रविदास समाज के लोग अब मृत्यु उपरांत ब्रह्म भोज का बहिष्कार करेंगे अर्थात वह अपने समाज में अब ब्रह्म भोज या मृत्यु भोज नहीं कराएंगे, बल्कि उन बचे हुए पैसों का उपयोग घर के बच्चे के पठन-पाठन और बुजुर्ग की सेवा में खर्च करेंगे.

बदलाव की बयार

बदलाव कहीं से भी हो सकता है, जरूरत है आत्मविश्वास की सकारात्मक सोच की. हजारीबाग के सुदूरवर्ती पदमा पंचायत के सरैयाडीह के रहने वाले रविदास समाज के लोग बैठक कर यह निर्णय लिया है कि मृत्यु होने पर मृत्यु भोज का आयोजन नहीं करेंगे. इस संबंध में समाज के बुद्धिजीवियों ने बैठक भी की. जिसमें सर्वसम्मति से फैसला लिया गया कि मृत्यु भोज करने में लाखों रुपया खर्च होता है.

अब मृत्यु भोज में खर्च नहीं करेंगे पैसा

अब समाज के लोग जो पैसा मृत्यु भोज में खर्च करते थे, उनसे अब बच्चों की शिक्षा और अन्य मूलभूत आवश्यकता की पूर्ति के लिए किया जाएगा. साथ ही साथ परिवार में वैसे बुजुर्गों जो अस्वस्थ हैं, उनकी सेवा में ये पैसा खर्च किया जाएगा. रविदास समाज के लोगों का कहना है कि इस प्रथा के बंद होने से समाज में फिजूलखर्ची पर रोक लगेगी और लोगों का जीवनस्तर भी ऊंचा होगा.

रविदास समाज के लोगों के खास बातचीत

रविदास समाज के जीवनस्तर को ऊंचा उठाने की दरकार

अगर रविदास समाज की सामाजिक स्थिति की बात की जाए तो इस वर्ग में अधिकांश लोग अशिक्षित हैं, गरीबी भी यहां अधिक है. ऐसे में समाज के लोग अपने जीवनस्तर को ऊंचा करने के लिए यह कदम उठाया है. समाज के लोगों का कहना है कि हमारे परिवार के लोगों में शिक्षा का अभाव है, जिस कारण वो लोग बेरोजगार भी हैं, इसे दूर करना बेहद जरूरी है तभी हम मुख्यधारा में जुड़ सकते हैं. रविदास समाज के लोग अब बदलाव चाहते हैं, अंधविश्वास और रूढ़ीवादी परंपरा (Superstition and orthodox tradition) से निजात पाने का एक छोटा प्रयास किया जा रहा है, जरूरत है समाज को इनसे सीख लेने की.

इसे भी पढ़ें- जानिए सूर्यास्त के बाद क्यों नहीं होती अंत्येष्टि

क्या है मृत्यु भोज या ब्रम्हभोज?

भारतीय वैदिक परंपरा के सोलह संस्कारों में मृत्यु यानी अंतिम संस्कार शामिल है. इसके अंतर्गत मृतक की अग्नि या अंतिम संस्कार के साथ कपाल क्रिया, पिंडदान जैसी रीति-रिवाज अपनाई जाती है. मान्यताओं के अनुसार तीन या चार दिन बाद श्मशान से मृतक की अस्थियों का संचय किया जाता है. सातवें या आठवें दिन इन अस्थियों को गंगा-नर्मदा या अन्य पवित्र नदियों में विसर्जित किया जाता है. दसवें दिन घर की सफाई होती है जिसे दशगात्र के नाम से जाना जाता है. इसके बाद एकादशगात्र को पीपल के वृक्ष के नीचे पूजन, पिंडदान या महापात्र को दान दिया जाता है. द्वादसगात्र में गंगाजली पूजन होता है. गंगा के पवित्र जल पूरे घर में छिड़का जाता है. अगले दिन त्रयोदशी पर तेरह ब्राम्हणों, पूज्य जनों, रिश्तेदारों और समाज के लोगों को सामूहिक रूप से भोजन कराया जाता है, इसे ही मृत्यु भोज कहा जाने लगा.

क्या कहता है गरूड़ पुराण

गरूड़ पुराण की मानें तो परिचितों और रिश्तेदारों को मृतक परिवार के घर अनाज, रितु फल, वस्त्र, मिष्टान्न आदि सामग्री लेकर जाना चाहिए. लोगों की लाई गई सामग्री बनाकर ही लोगों को भोजन कराया जाता था. वैदिक परंपरा के अनुसार यही भोजन पहले ब्राम्हणों और प्रबुद्धजनों को दिया जाता था. लेकिन आज इसका विपरित रूप देखने को मिलता है.

आज खर्चीला हो गया यह आयोजन

आज यह आयोजन काफी खर्चीला हो गया. सामाजिक रिवाज निभाने और तथाकथित धर्म गुरुओं के तानों से बचने के लिए लोग कर्ज लेकर भी लोग इस रस्म को निभाने के लिए मजबूर हो जाते हैं. ऐसे शोक संतप्त परिवार की आर्थिक स्थिति डावांडोल हो जाती है, कई बार वो कर्ज में भी डूब जाते हैं. राजा-रजवाड़ों के वक्त केवल राजा और सक्षम लोग ही ऐसा करते थे, पर आज यह एक सामाजिक रूढ़ीवाद का हिस्सा बनकर शोकाकुल परिवार को परेशान करने का साधन बन गया है.

हजारीबागः 'हम ब्रम्हभोज या मृत्यु भोज में बेजा खर्च नहीं करेंगे, उन पैसों से हम बच्चों को पढ़ाएंगे और बुजुर्गों की सेवा करेंगे'- ये ऐलान या यूं कह लें कि सामाजिक रूढ़ीवादिता के खिलाफ एक बिगुल है, जो हजारीबाग के रविदास समाज (Ravidas Samaj) ने फूंका है. इस समाज के लोगों का प्रतिकार है, दकियानुसी विचार, सामाजिक आडंबर और ढकोसलों पर प्रहार है.

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हमारे समाज में सरलताएं हैं तो समय-समय पर इसकी जटिलताएं भी सामने आती हैं. रीति-रिवाज (Customs and Traditions), रस्म अदायगी की बानगी ऐसी है कि कभी-कभी ये किसी परिवार के लिए गले की फांस बन जाता है. लेकिन अब इसका प्रतिकार हो रहा है. रविदास समाज ने ऐसी ही एक सामाजिक रूढ़ीवादिता (Social conservatism) पर प्रहार किया है. उन्होंने मृत्यु के बाद कराए जाने वाले ब्रम्हभोज या मृत्यु भोज का बहिष्कार का फैसला लिया है.

देखें पूरी खबर

हजारीबाग के सुदूरवर्ती पदमा पंचायत के सरैयाडीह के रहने वाले रविदास समाज के लोग अब मृत्यु उपरांत ब्रह्म भोज का बहिष्कार करेंगे अर्थात वह अपने समाज में अब ब्रह्म भोज या मृत्यु भोज नहीं कराएंगे, बल्कि उन बचे हुए पैसों का उपयोग घर के बच्चे के पठन-पाठन और बुजुर्ग की सेवा में खर्च करेंगे.

बदलाव की बयार

बदलाव कहीं से भी हो सकता है, जरूरत है आत्मविश्वास की सकारात्मक सोच की. हजारीबाग के सुदूरवर्ती पदमा पंचायत के सरैयाडीह के रहने वाले रविदास समाज के लोग बैठक कर यह निर्णय लिया है कि मृत्यु होने पर मृत्यु भोज का आयोजन नहीं करेंगे. इस संबंध में समाज के बुद्धिजीवियों ने बैठक भी की. जिसमें सर्वसम्मति से फैसला लिया गया कि मृत्यु भोज करने में लाखों रुपया खर्च होता है.

अब मृत्यु भोज में खर्च नहीं करेंगे पैसा

अब समाज के लोग जो पैसा मृत्यु भोज में खर्च करते थे, उनसे अब बच्चों की शिक्षा और अन्य मूलभूत आवश्यकता की पूर्ति के लिए किया जाएगा. साथ ही साथ परिवार में वैसे बुजुर्गों जो अस्वस्थ हैं, उनकी सेवा में ये पैसा खर्च किया जाएगा. रविदास समाज के लोगों का कहना है कि इस प्रथा के बंद होने से समाज में फिजूलखर्ची पर रोक लगेगी और लोगों का जीवनस्तर भी ऊंचा होगा.

रविदास समाज के लोगों के खास बातचीत

रविदास समाज के जीवनस्तर को ऊंचा उठाने की दरकार

अगर रविदास समाज की सामाजिक स्थिति की बात की जाए तो इस वर्ग में अधिकांश लोग अशिक्षित हैं, गरीबी भी यहां अधिक है. ऐसे में समाज के लोग अपने जीवनस्तर को ऊंचा करने के लिए यह कदम उठाया है. समाज के लोगों का कहना है कि हमारे परिवार के लोगों में शिक्षा का अभाव है, जिस कारण वो लोग बेरोजगार भी हैं, इसे दूर करना बेहद जरूरी है तभी हम मुख्यधारा में जुड़ सकते हैं. रविदास समाज के लोग अब बदलाव चाहते हैं, अंधविश्वास और रूढ़ीवादी परंपरा (Superstition and orthodox tradition) से निजात पाने का एक छोटा प्रयास किया जा रहा है, जरूरत है समाज को इनसे सीख लेने की.

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क्या है मृत्यु भोज या ब्रम्हभोज?

भारतीय वैदिक परंपरा के सोलह संस्कारों में मृत्यु यानी अंतिम संस्कार शामिल है. इसके अंतर्गत मृतक की अग्नि या अंतिम संस्कार के साथ कपाल क्रिया, पिंडदान जैसी रीति-रिवाज अपनाई जाती है. मान्यताओं के अनुसार तीन या चार दिन बाद श्मशान से मृतक की अस्थियों का संचय किया जाता है. सातवें या आठवें दिन इन अस्थियों को गंगा-नर्मदा या अन्य पवित्र नदियों में विसर्जित किया जाता है. दसवें दिन घर की सफाई होती है जिसे दशगात्र के नाम से जाना जाता है. इसके बाद एकादशगात्र को पीपल के वृक्ष के नीचे पूजन, पिंडदान या महापात्र को दान दिया जाता है. द्वादसगात्र में गंगाजली पूजन होता है. गंगा के पवित्र जल पूरे घर में छिड़का जाता है. अगले दिन त्रयोदशी पर तेरह ब्राम्हणों, पूज्य जनों, रिश्तेदारों और समाज के लोगों को सामूहिक रूप से भोजन कराया जाता है, इसे ही मृत्यु भोज कहा जाने लगा.

क्या कहता है गरूड़ पुराण

गरूड़ पुराण की मानें तो परिचितों और रिश्तेदारों को मृतक परिवार के घर अनाज, रितु फल, वस्त्र, मिष्टान्न आदि सामग्री लेकर जाना चाहिए. लोगों की लाई गई सामग्री बनाकर ही लोगों को भोजन कराया जाता था. वैदिक परंपरा के अनुसार यही भोजन पहले ब्राम्हणों और प्रबुद्धजनों को दिया जाता था. लेकिन आज इसका विपरित रूप देखने को मिलता है.

आज खर्चीला हो गया यह आयोजन

आज यह आयोजन काफी खर्चीला हो गया. सामाजिक रिवाज निभाने और तथाकथित धर्म गुरुओं के तानों से बचने के लिए लोग कर्ज लेकर भी लोग इस रस्म को निभाने के लिए मजबूर हो जाते हैं. ऐसे शोक संतप्त परिवार की आर्थिक स्थिति डावांडोल हो जाती है, कई बार वो कर्ज में भी डूब जाते हैं. राजा-रजवाड़ों के वक्त केवल राजा और सक्षम लोग ही ऐसा करते थे, पर आज यह एक सामाजिक रूढ़ीवाद का हिस्सा बनकर शोकाकुल परिवार को परेशान करने का साधन बन गया है.

Last Updated : Jun 27, 2021, 6:25 PM IST
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