हजारीबागः पूरे झारखंड के लिए खुशखबरी है, हजारीबाग की अपनी कला संस्कृति को राष्ट्रीय पहचान मिली है. सोहराय और कोहबर पेंटिंग को ज्योग्राफिकल इंडिकेशन रजिस्ट्री की ओर से भौगोलिक संकेत के लिए जीआई टैग दिया गया है. अब पूरे देश में इसकी अपनी एक पहचान है. इस पहचान के लिए विगत 2 सालों से सोहराय कला महिला विकास सहयोग समिति लिमिटेड प्रयास कर रही थी. अब इस कला को अपनी पहचान मिल गई है. इनके संस्थापक और समिति के सदस्यों की खुशी का ठिकाना नहीं है.
सोहराय और कोहबर कला अब किसी के पहचान की मोहताज नहीं है. देश-विदेश में झारखंड और विशेषकर हजारीबाग की मूल कला के रूप में इसे जाना जाएगा. जीआई कार्यालय चेन्नई ने इसे अब स्वीकृति दे दी है. इसके पहले भी लगातार इसे पहचान देने के लिए समिति के सदस्य प्रयासरत थे. जिले के तत्कालीन डीसी मुकेश कुमार ने इस पेंटिंग को काफी अधिक प्रोत्साहित किया था और कलर माई सिटी कार्यक्रम के जरिए हजारीबाग के विभिन्न चौक-चौराहे और सरकारी दीवारों पर इस कलाकृति को करने का काम किया. इसके बाद तत्कालीन डीसी रविशंकर शुक्ला ने इसे जीआई टैग दिलाने की कोशिश की थी.
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महत्वपूर्ण बात यह है कि झारखंड की किसी भी कला संस्कृति में सोहराय पहली ऐसी कला है जिसे राष्ट्रीय पहचान मिली है. इस कला की तारीफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने मन की बात में किया था और बताया था कि हजारीबाग का रेलवे स्टेशन में जो पेंटिंग है वह हमारी सभ्यता और संस्कृति को बताने वाली है.
क्या है जीआई टैग
भौगोलिक संकेत जिसका उपयोग उन उत्पादों पर किया जाता है जिसकी एक विशिष्ट भौगोलिक उत्पत्ति होती है. उन गुणों कि प्रतिष्ठा मूल रूप के कारण होती है. उत्पाद मनुष्य और प्रकृति के सर्वोत्तम संयोजन है. इसे सावधानीपूर्वक संरक्षित किया गया है. बता दें कि उत्पादों और स्थानों को जोड़ने वाली अद्वितीय पहचान देने के लिए जीआई टैग विकसित किया गया है.
पेंटिंग की मांग देश-विदेश में
सोहराय कला महिला सहयोग समिति के संस्थापक अलका इमाम ने इस कला को लेकर संजीदगी के साथ कार्य किया है. उन्होंने इस कला को दुनिया के सामने लाने के लिए कई कार्यक्रम भी किए. महिलाओं को ट्रेनिंग भी दी और उन्होंने बताया कि इस कला के जरिए महिलाएं अपनी आमदनी भी बना सकती हैं. अब इस कला ने दीवारों से निकलकर कागज और कपड़ों में अपनी जगह बनाई है . कई महिलाएं अपना जीवनयापन इस कला के जरिए कर रही हैं. उनकी पेंटिंग की मांग देश-विदेश में है. अलका कहती हैं कि मुझे बेहद खुशी है कि इस कला को राष्ट्रीय पहचान अब मिली है. अब इस कला के जरिए महिलाएं अपने आप को और भी अधिक सशक्त कर सकेंगी.
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5000 साल से अधिक पुरानी है ये कला
जस्टिन इमाम जो अलका इमाम के पति हैं और इस कला को संरक्षित करने के लिए अपनी अहम भूमिका निभा रहे हैं. उनका कहना है कि यह आदिवासी कला 5000 साल से अधिक पुराना है. झारखंड के हजारीबाग जिले के पहाड़ी इलाकों में रॉक गुफा कला के रूप में प्रागैतिहासिक मैथाली रॉक में सोहराय और कोहबर कला का प्रमाण भी मिलता है. यह कला मानव सभ्यता के विकास को दिखाता है. जिसमें लाल, काला ,पीला, सफेद रंग के साथ-साथ पेड़ की छाल के बने रंगों का प्रयोग होता है. सफेद रंग के लिए दूधिया मिट्टी का प्रयोग किया जाता है. काले रंग के लिए पेड़ की छाल से रंग तैयार किया जाता है. लेकिन उनका यह भी कहना है कि इस कला को इसके मूल रूप में ही रहने दिया जाए. अगर इस कला के साथ छेड़छाड़ की जाती है और रंगों में परिवर्तन करते हैं तो यह अपनी संस्कृति और सभ्यता के साथ खिलवाड़ होगा. उनका कहना है कि भौगोलिक संकेत मिलने के बाद इसकी अपनी विशिष्ट पहचान हुई है. अब यह एक उत्पाद के रूप में जाना जाएगा जिसका लाभ यहां के कलाकारों को मिलेगा.
झारखंड की स्थानीय आदिवासी महिलाएं सोहराय और कोहबर पेंटिंग बनाती हैं. जो एक पारंपरिक और भित्ति चित्र कला है. हजारीबाग जिले में अधिकांश स्थानीय फसल काटने और विवाह के समय ये चित्र दीवारों पर बनाए जाते हैं. इसे बनाने के लिए दूधिया मिट्टी का उपयोग किया जाता है. आज भी हजारीबाग और इसके आसपास के क्षेत्रों में जब विवाह होता है तो घर पर कोहबर बनाया जाता है और पति-पत्नी को उस कमरे में अकेले कुछ पल के लिए छोड़ दिया जाता है. जो वंश वृद्धि का सूचक माना जाता है. वहीं, फसल कटने के दौरान महिलाएं कलाकृति करती हैं. उसे सोहराय कहा जाता है. आज के दिन में भी ग्रामीण क्षेत्रों में यह कला देखने को मिलती है.