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नाली के पानी से चल रहा ग्रामीणों का गुजारा, गांव में गुम हुई शहनाई की धुन

चतरा में ग्रामीण इलाकों की स्थिति यह है कि प्यास बुझाने के फिराक में यहां के ग्रामीण गंदे नदी नालों से दूषित पानी पीने को विवश हैं. इससे न सिर्फ इनके सेहत पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है बल्कि इनके घरों में पानी की किल्लत में शहनाई की धुन भी गुम होने लगी है. यहां न तो कुंवारे युवक-युवतियांशादी के बंधन में बंध पा रहे हैं और न ही अन्य शुभ कार्य इन गांवों में हो पा रहा है.

देखिए स्पेशल स्टोरी
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Published : Jun 1, 2019, 9:07 AM IST

चतरा: चिलचिलाती धूप और बेतहाशा गर्मी के बीच लोग पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं. शहरी इलाकों में तो जिला प्रशासन टैंकरों के माध्यम से लोगों की प्यास बुझाने में लगा है, लेकिन भयावह स्थिति ग्रामीण इलाकों की है. जिला मुख्यालय से करीब 40 किलोमीटर दूर स्थित घोर नक्सल प्रभावित कुंदा प्रखंड के दर्जनों गांव में लोग बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहे हैं.

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गंदे नाली का पानी पी रहे ग्रामीण
ग्रामीण इलाकों की स्थिति यह है कि प्यास बुझाने के फिराक में यहां के ग्रामीण गंदे नदी नालों से दूषित पानी पीने को विवश हैं. इससे न सिर्फ इनके सेहत पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है बल्कि इनके घरों में पानी की किल्लत में शहनाई की धुन भी गुम होने लगी है. यहां न तो कुंवारे युवक-युवतियांशादी के बंधन में बंध पा रहे हैं और न ही अन्य शुभ कार्य इन गांवों में हो पा रहा है. यूं कहे तो सरकार अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगों के विकास के लाख दावे कर ले, लेकिन हकीकत इससे परे है.


शुद्ध पानी के लिए तरस रहे ग्रामीण
लोगों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने के लिए सरकार भले ही करोड़ों रुपए खर्च कर रही है, लेकिन इसका लाभ समाज के अंतिम व्यक्ति तक शायद नहीं पहुंच पा रहा है. इसी का नतीजा है कि कुंदा जैसे नक्सल प्रभावित प्रखंडों के कई गांव में लोग पीने के शुद्ध पानी के लिए तरस रहे हैं. अनुसूचित जनजाति बहुल सिंदूरी गांव की स्थिति और भी भयावह है. करीब डेढ़ सौ घर और पांच सौ की आबादी वाले इस गांव में प्यास बुझाने का एक भी सुगम साधन नहीं है. ऐसा नहीं है कि गांव में कुएं और चापाकल नहीं है. प्रशासन की लापरवाही से नाराज ग्रामीणों ने चंदा कर कुएं तो खुदवाए हैं, लेकिन जलस्तर नीचे चले जाने के कारण यह पूरी तरह सूख चुका है.


मवेशी की हो रही मौत
ऐसे में विद्यालय में लगा एकमात्र चापाकल इनका कमोबेश प्यास बुझाता था, लेकिन वह भी अब जवाब दे चुका है. जिसके बाद ग्रामीण गांव में स्थित एक गंदे ढोढे में चुआं खोदकर किसी तरह अपनी प्यास बुझाते हैं. स्थिति यह है कि सुबह होते ही गांव की महिलाएं व बच्चे घरों से खाली बर्तन लेकर ढोढे के नजदीक पहुंच जाते हैं और घंटों मशक्कत कर दो-चार बाल्टी पानी भरकर घर ले जाते हैं. आश्चर्य की बात तो यह है कि जिस चुएं से ग्रामीण अपनी प्यास बुझाते हैं, उसी चूएं में सूअर व अन्य मवेशियों का दिन भर अड्डा लगा रहता है. ऐसे में ग्रामीणों की स्थिति का अंदाजा स्वतः लगाया जा सकता है. ग्रामीणों की मानें तो पानी की किल्लत से न सिर्फ यहां शादी जैसे महत्वपूर्ण कार्य रुक गए हैं, बल्कि किसानों के आत्मनिर्भरता का एकमात्र साधन मवेशियों की भी मौत हो रही है. पंचायत के मुखिया गांव में 14वें वित्त आयोग से चापाकल लगाने व टैंकर से पानी की आपूर्ति कराने की बात जरूर कर रहे हैं.

चतरा: चिलचिलाती धूप और बेतहाशा गर्मी के बीच लोग पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं. शहरी इलाकों में तो जिला प्रशासन टैंकरों के माध्यम से लोगों की प्यास बुझाने में लगा है, लेकिन भयावह स्थिति ग्रामीण इलाकों की है. जिला मुख्यालय से करीब 40 किलोमीटर दूर स्थित घोर नक्सल प्रभावित कुंदा प्रखंड के दर्जनों गांव में लोग बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहे हैं.

देखिए स्पेशल स्टोरी


गंदे नाली का पानी पी रहे ग्रामीण
ग्रामीण इलाकों की स्थिति यह है कि प्यास बुझाने के फिराक में यहां के ग्रामीण गंदे नदी नालों से दूषित पानी पीने को विवश हैं. इससे न सिर्फ इनके सेहत पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है बल्कि इनके घरों में पानी की किल्लत में शहनाई की धुन भी गुम होने लगी है. यहां न तो कुंवारे युवक-युवतियांशादी के बंधन में बंध पा रहे हैं और न ही अन्य शुभ कार्य इन गांवों में हो पा रहा है. यूं कहे तो सरकार अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगों के विकास के लाख दावे कर ले, लेकिन हकीकत इससे परे है.


शुद्ध पानी के लिए तरस रहे ग्रामीण
लोगों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने के लिए सरकार भले ही करोड़ों रुपए खर्च कर रही है, लेकिन इसका लाभ समाज के अंतिम व्यक्ति तक शायद नहीं पहुंच पा रहा है. इसी का नतीजा है कि कुंदा जैसे नक्सल प्रभावित प्रखंडों के कई गांव में लोग पीने के शुद्ध पानी के लिए तरस रहे हैं. अनुसूचित जनजाति बहुल सिंदूरी गांव की स्थिति और भी भयावह है. करीब डेढ़ सौ घर और पांच सौ की आबादी वाले इस गांव में प्यास बुझाने का एक भी सुगम साधन नहीं है. ऐसा नहीं है कि गांव में कुएं और चापाकल नहीं है. प्रशासन की लापरवाही से नाराज ग्रामीणों ने चंदा कर कुएं तो खुदवाए हैं, लेकिन जलस्तर नीचे चले जाने के कारण यह पूरी तरह सूख चुका है.


मवेशी की हो रही मौत
ऐसे में विद्यालय में लगा एकमात्र चापाकल इनका कमोबेश प्यास बुझाता था, लेकिन वह भी अब जवाब दे चुका है. जिसके बाद ग्रामीण गांव में स्थित एक गंदे ढोढे में चुआं खोदकर किसी तरह अपनी प्यास बुझाते हैं. स्थिति यह है कि सुबह होते ही गांव की महिलाएं व बच्चे घरों से खाली बर्तन लेकर ढोढे के नजदीक पहुंच जाते हैं और घंटों मशक्कत कर दो-चार बाल्टी पानी भरकर घर ले जाते हैं. आश्चर्य की बात तो यह है कि जिस चुएं से ग्रामीण अपनी प्यास बुझाते हैं, उसी चूएं में सूअर व अन्य मवेशियों का दिन भर अड्डा लगा रहता है. ऐसे में ग्रामीणों की स्थिति का अंदाजा स्वतः लगाया जा सकता है. ग्रामीणों की मानें तो पानी की किल्लत से न सिर्फ यहां शादी जैसे महत्वपूर्ण कार्य रुक गए हैं, बल्कि किसानों के आत्मनिर्भरता का एकमात्र साधन मवेशियों की भी मौत हो रही है. पंचायत के मुखिया गांव में 14वें वित्त आयोग से चापाकल लगाने व टैंकर से पानी की आपूर्ति कराने की बात जरूर कर रहे हैं.

Intro:पानी की किल्लत में गुम हुई शहनाई की धुन, टूट रही शादियां

चतरा : चिलचिलाती धूप और बेतहाशा गर्मी के बीच लोग पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं। शहरी इलाकों में तो जिला प्रशासन टैंकरों के माध्यम से लोगों की प्यास बुझाने में लगा है लेकिन भयावह स्थिति ग्रामीण इलाकों की है। जिला मुख्यालय से करीब 40 किलोमीटर दूर स्थित घोर नक्सल प्रभावित कुंदा प्रखंड के दर्जनों गांव में लोग बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहे हैं। स्थिति यह है कि प्यास बुझाने के फिराक में यहां के ग्रामीण गंदे नदी नालों का दूषित पानी पीने को विवश हैं। जिससे न सिर्फ इनके सेहत पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है बल्कि इनके घरों में पानी की किल्लत में शहनाई की धुन भी गुम होने लगी है। यहां न तो कुंवारे युवक युवतियां शादी के बंधन में बंध पा रहे हैं और ना ही अन्य शुभ कार्य इन गांवों में हो पा रहा है। यूं कहे तो सरकार अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगों के विकास के लाख दावे कर ले लेकिन हकीकत इससे परे है। लोगों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने के लिए सरकार भले ही करोड़ों लाखों रुपए खर्च कर रही है लेकिन इसका लाभ समाज के अंतिम व्यक्ति तक शायद नहीं पहुंच पा रहा है। इसी का नतीजा है कि कुंदा जैसे नक्सल प्रभावित प्रखंडों के कई गांव में लोग पीने के शुद्ध पानी के लिए तरस रहे हैं। अनुसूचित जनजाति बहुल सिंदूरी गांव की स्थिति और भी भयावह है। करीब डेढ़ सौ घर व पांच सौ की आबादी वाले इस गांव में प्यास बुझाने का एक भी सुगम साधन नहीं है। ऐसा नहीं है कि गांव में कुएं व चापाकल नहीं है। प्रशासन की लापरवाही से नाराज ग्रामीणों ने चंदा कर कुएं तो खुदवाए हैं लेकिन जलस्तर नीचे चले जाने के कारण यह पूरी तरह सूख चुके हैं। ऐसे में विद्यालय में लगा एकमात्र चापाकल इनका कमोबेश प्यास बुझाता था। लेकिन वह भी अब जवाब दे चुका है। जिसके बाद ग्रामीण गांव में स्थित एक गंदे ढोढे में चुआं खोदकर किसी तरह अपनी प्यास बुझाते हैं। स्थिति यह है कि सुबह होते ही गांव की महिलाएं व बच्चे घरों से खाली बर्तन लेकर ढोढे के नजदीक पहुंच जाते हैं और घंटों मशक्कत कर दो-चार बाल्टी पानी भर कर घर ले जाते हैं। जिससे अपनी प्यास बुझाते हैं और मवेशियों को भी पिलाते हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि जिस चुएं से ग्रामीण अपनी प्यास बुझाते हैं, उसी चूहे में सूअर व अन्य मवेशियों का दिन भर अड्डा लगा रहता है। ऐसे में ग्रामीणों की स्थिति का अंदाजा स्वतः लगाया जा सकता है। ग्रामीणों की मानें तो पानी की किल्लत से न सिर्फ यहां शादी जैसे महत्वपूर्ण कार्य रुक गए हैं, बल्कि किसानों के आत्मनिर्भरता का एकमात्र साधन मवेशियों की भी मौत हो रही है। इन्हें न तो जनप्रतिनिधियों का साथ मिल रहा है और ना ही तंत्र के रहनुमाओं का। हालांकि पंचायत के मुखिया गांव में 14वें वित्त आयोग से चापाकल लगाने व टैंकर से पानी की आपूर्ति कराने की बात जरूर कर रहे हैं।

बाईट : मनोज गंझू--ग्रामीण।
बाईट : मसोमात जसमिया--ग्रामीण।
बाईट : टेकन गंझू--मुखिया।


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