चाईबासा: कहने को तो सरकार ग्रामीणों के लिए सैकड़ों योजनाएं और घोषणाएं करती हैं, लेकिन हकीकत कुछ और ही हैं. पश्चिम सिंहभूम जिला मुख्यालय से लगभग 5 किलोमीटर दूर स्थित आचू गांव के बेरोजगार युवा अपने और परिवार की दो वक्त की रोटी के लिए पत्थर तोड़ने को मजबूर हैं.
सूर्योदय होते ही अपने-अपने घरों से पुरुष और महिला छोटे बच्चों को लेकर आचू गांव स्थित पावर ग्रिड के पास अपनी जान को जोखिम में डालकर चट्टानों का सीना चीरकर दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में लग जाते हैं. युवा, पुरुष और महिला कड़ी धूप में खुले आसमान के नीचे बैठकर दिनभर पत्थरों पर छेनी-हथौड़ी से उसे आकार देने में लगे हुए हैं. ताकि उनके और उनके परिवार को दो वक्त की रोटी नसीब हो सके. इसके लिए युवा पुरुष महिला पावर ग्रिड में जमीन खोदकर सिल लोढ़ा बनाने के लिए पत्थर निकालते हैं. उसके बाद उनके द्वारा निकाले गए पत्थरों को छेनी-हथौड़ी से तराशने के बाद बाजार में बेचकर अपना जीवन यापन करते है.
सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाएं भी इन तक नहीं पहुंच पाती. जिस कारण आचू के ग्रामीण युवा बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं. ऐसे में आचू समेत आसपास के विभिन्न गांवों के युवा गुजर बसर करने के लिए सिल लोढ़ा का निर्माण को ही रोजगार के रूप में चुन लिया है. युवा अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी के लिए सुबह से शाम तक कड़ी मेहनत करते हैं. जिसके बाद सिल लोढ़ा की बिक्री से उनके घर का चूल्हा जलता है. चाईबासा के आचू से निकलने वाली सिल लोढ़ा झारखंड समेत बिहार, बंगाल आदि राज्यों में भारी पैमाने पर बेचा जाता है. इस कारण विभिन्न राज्यों से आए महाजन ग्रामीणों से मिट्टी के मोल पर सिल लोढ़ा का निर्माण करवा कर उसे थोक के भाव में बाजारों में बेच देते हैं.
सिल लोढ़ा बनाने वाले युवाओं की मानें तो सिल लोढ़ा बनाने का काम उनके पूर्वज बाप-दादा से उन्होंने सीखा है. यह उनका परंपरागत व्यवसाय है. सरकार की योजनाएं उन तक नहीं पहुंच पाती हैं. उनके पास दूसरा कोई काम नहीं है. कई परिवार इस सिल लोढ़ा बनाते हुए बीमारी से मौत के आगोश में चले गए. वहीं, प्रशासनिक लापरवाही और सरकारी उदासीनता के कारण आज युवाओं का भविष्य अंधकार में है. इनकी मानें तो आज सरकार अगर उन्हें रोजगार उपलब्ध कराती तो फिर पत्थर तोड़ने की नौबत नहीं आती.