सिरमौर: देवभूमि हिमाचल प्रदेश के गिरिपार इलाके और शिमला के कुछ गांवों में बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है. पूरे भारतवर्ष में जहां भगवान राम का वनवास खत्म होने के बाद घर वापसी की खुशी में दिवाली मनाई जाती है, लेकिन हिमाचल प्रदेश के सिरमौर के ट्रांसगिरी क्षेत्र में बूढ़ी दिवाली (Budhi Diwali) मनाई जाती है.
बूढ़ी दिवाली मनाने के पीछे मान्यता
अब आप सोच रहे होंगे कि कुछ दिन पहले ही तो छोटी दिवाली और बड़ी दिवाली मनाई गई थी, फिर ये बूढ़ी दिवाली क्या है? दरअसल बूढ़ी दिवाली मनाने के पीछे तर्क दिया जाता है कि यहां रहने वाले लोगों को भगवान राम के अयोध्या (Ayodhya) पहुंचने की खबर एक महीने देरी से मिली थी. यहां के रहने वाले लोग जब यह सुखद समाचार सुना तो खुशी से झूम उठे और उन्होंने देवदार और चीड़ की लकड़ियों की मशालें जलाकर अपनी खुशी जाहिर की थी.
गिरिपार के लोग बूढ़ी दिवाली को मशराली के नाम से मनाते हैं
बताया जाता है कि तब ही से यहां पर बूढ़ी दिवाली (Budhi Diwali) मनाने की परंपरा चली आ रही है. यहां के रहने वाले लोग आज भी दिवाली की अगली अमावस्या अर्थात अगहन महीने की अमावस्या तिथि को बूढ़ी दिवाली मनाते हैं. गिरिपार के लोग बूढ़ी दिवाली को मशराली के नाम से मनाते हैं.
बूढ़ी दिवाली की शुरुआत दिवाली से अगली अमावस्या यानी मार्गशीर्ष महीने की अमावस्या की रात से शुरू होती है. गांव के लोग मशालें लेकर गांव भर में ढोल नगाड़ों की थाप पर नाचते गाते परिक्रमा करते हैं.
बनाए जाते हैं कई प्रकार के व्यंजन
इसके बाद 4 से 5 दिनों तक नाच गाना और दावतों का दौर चलता है. परिवारों में औरतें विशेष तरह के पारंपरिक व्यंजन तैयार करती हैं. सिर्फ बूढ़ी दिवाली के अवसर पर बनाए जाने वाले गेहूं की नमकीन यानी मूड़ा (mudda) और पापड़ सभी अतिथियों को विशेष तौर पर परोसा जाता है.
इस बार बूढ़ी दिवाली पर कोरोना का साया
हालांकि इस बार बूढ़ी दिवाली (Budhi Diwali) के इस ऐतिहासिक पारंपरिक पर्व पर भी कोरोना का साया पड़ा है. हजारों लोगों की मशाल यात्रा की भीड़ सैकड़ों लोगों में सिमट कर रह गई है, लेकिन ग्रामीण लोगों ने कोरोना (Corona) के खतरे के बीच भी अपनी परंपरा का निर्वहन किया है.