शिमला: भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में कोविड महामारी के दौरान हुई अकादमिक व अन्य गतिविधियों की समीक्षा और भावी योजनाओं को लेकर चल रही तीन दिवसीय वर्चुअल संगोष्ठी का समापन हो गया. इस संगोष्ठी में देश भर के जानेमाने विद्वानों ने अपने शीर्षस्थ विचार रखे. संस्थान के इतिहास में पहली बार इस तरह का आयोजन किया गया जिसमें विद्वानों द्वारा विविध विषयों पर खुली चर्चा की गई और संस्थान की प्रासंगिकता को रेखांकित किया गया.
समापन सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रोफेसर शशिप्रभा कुमार ने कहा कि जिस प्रकार प्राकृतिक विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, प्रौद्योगिक विज्ञान आदि विषय प्रगति पथ पर हैं आज आवश्यकता है कि उसी तरह बोध विज्ञान (cognitive science) के क्षेत्र में भी शोधकार्य हो ताकि मानवीय चेतना का विकास हो सकें. इसके लिए उन्होंने ज्ञान प्रक्रिया के प्रायोगिक और वैचारिक पक्ष पर बल दिया.
भारतीय भाषाओं के बारे में चर्चा के दौरान संस्थान के अध्येता डॉ. बलराम शुक्ल ने भारत की प्राचीन और आधुनिक भाषाओं को समझने के लिए प्राकृत भाषा के महत्व पर बल दिया. वहीं, प्रोफेसर माधव हाड़ा ने जनमानस की भाषा को लेकर अपने विचार रखे. उन्होंने कहा कि विभिन्न भाषाओं के चलते एक संपर्क भाषा बहुत आवश्यक है, जिसका दायित्व हिंदी बखूबी से निभा रही है.
इसी संदर्भ में संस्थान के निदेशक प्रोफेसर मकरंद आर. परांजपे ने कहा कि हमें भाषा संबंधी विवादों से दूर रहना चाहिए. भले ही विश्व में अंग्रेजी, जर्मनी, फ्रेंच आदि भाषाओं का वर्चस्व रहा है. मगर हिंदी भी वैश्विक रूप धारण कर चुकी है, जिसका हिंग्लिश रूप बहुत प्रचलित है. उन्होंने कहा कि विश्व की दूसरी भाषाओं से भारतीय भाषाओं और भारतीय भाषाओं से अन्य भाषाओं में अनुवाद हो रहा है. जो ज्ञान के आदान-प्रदान के लिए बहुत आवश्यक है.
प्रोफेसर गुरप्रीत महाजन ने कहा कि वैचारिक स्वराज्य में कदम रखने के लिए हमें आलोचना को नकारात्मक दृष्टि से नहीं देखना चाहिए. संस्कृत के जाने माने विद्वान प्रोफेसर राधावल्लभ त्रिपाठी ने इस अवसर पर हर्ष जताया कि कोरोना जैसे संकट और विकट समय में भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला अपने मूल उद्देश्य के प्रति सतत अग्रसर रहा है. इससे संस्थान की गरिमा और भी प्रकाशमान हुई है. संस्थान के जन संपर्क अधिकारी अखिलेश पाठक ने बताया कि तीन दिन चलने वाली इस संगोष्ठी में देश भर से विभिन्न विद्वानों ने भाग लिया.
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