शिमला: पंचायती राज व्यवस्था कोई नई नहीं है वैदिक काल से ये व्यवस्था इस देश में चलती आ रही है. वैदिक काल में पंचों को परमेश्वर माना जाता था यानी की उन्हें भगवान का दर्जा दिया गया था. हम पहले थोड़ा ये जान लें कि ये व्यवस्था किस काल में किस रूप में रही है. पंचायती राज व्यवस्था को आप स्थानीय स्वशासन भी बोल सकते हैं. भारत के हर काल खंड में किसी न किसी रूप में पंचायती राज की व्यवस्था के निशान मिलते हैं.
ऋग्वेद में मिलता है वर्णन
इतिहास के प्रोफेसर राकेश शर्मा कहते हैं कि वैदिक युग में हमे पंचायतन का वर्णन मिलता है. पंचायतन में पांच सदस्यों का एक समूह होता था. इस समूह में अध्यात्मिक और धार्मिक व्यक्ति का होना आवश्यक होता था. ऋग्वेद में हमें सभा, समितियों का वर्णन मिलता है. रामायण, महाभारतकाल में उर-जनपदों का वर्ण मिलताहै. मनु स्मृति, कौटिल्य के अर्थशास्त्र में स्थानीय निकायों का वर्णन मिलता है.
मौर्य काल में पंचायती राज व्यवस्था
मौर्यकाल के समय कौटिल्य(चाणक्य) के अर्थशास्त्र में अलग-अलग गांवों की व्यवस्था की गई थी. प्रत्येक गांव का मुखिया ग्रामीक होता था. ग्रामीक सभी सार्वजनिक कामों को करता था.मौर्य काल के समय पंचायती राज व्यवस्था में सरकार(राजदरबार) का कोई हस्तक्षेप नहीं था. गुप्तवंश के समय पंचमंडली का वर्णन भी गुप्तकाल में आता है. पंचमंडली के हाथ में ही पूरे गांव का प्रशासन होता था.
चोलवंश में पंचायती राज व्यवस्था
चोल वंश( 9वीं से 13वीं शताब्दी तक) दक्षिण भारत का सबसे ताकतवर साम्राज्य था. चोलवंश के समय ग्रामीण गांव का स्वशासन स्वयं देखते थे. कोई भी बाहरी व्यक्ति ग्राम व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं करता था. चोल वंश के प्राप्त अभिलेख उक्तमेरू( 919-929 ईसवी) में स्थानीय समितियों का व्यापक वर्णन मिलता है. चोलवंश में तीन प्रकार के निकायों की व्यवस्था की गई थी. चोल ग्रामसभाएं उर या सभा के नाम से जानी जाती थी.
देवभूमि में देव पंचायतें
बात अगर देवभूमि हिमाचल की करें तो यहां राजा-महाराजाओं के समय से पहले ही देव समाज पंचायत के रूप में काम करता आ रहा है. पूरा गांव किसी भी घरेलू झगड़े, जमीनी विवाद या सड़क, शिक्षा, पानी की समस्या का निपटारा देवता के सामने करता था. आज भी ये परंपरा जीवित है. कुल्लू का मलाणा गांव में कई सालों से द्वि सदनीय शासन प्रणाली चली आ रही है. इसे दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र माना जाता है.
ईस्ट इंडिया कंपनी राज
स्थानीय स्वशासन की जो परंपरा भारत में चली आ रही थी. ईस्ट इंडिया कंपनी के आने के बाद इनका बजूद धुंधला सा होने लगा. ईस्ट इंडिया के शासन काल में ही 1687 में मद्रास नगर निगम और 1726 में कलकत्ता और इसके बाद बॉम्बे नगर निगम का गठन हुआ. 1880 में लॉर्ड रिपन ने स्थानीय स्वशासन पर लगी पाबंदियों को हटाने का प्रयास शुरू किया. रिपन के कार्यकाल में ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय बोर्डों की स्थापना की गई.
स्थानीय स्वशासन अधिनियम
1883-85 के बीच स्थानीय स्वशासन अधिनियम पारित किए गए और 1884 के ‘मद्रास स्थानीय बोर्ड अधिनियम’ के अनुसार स्थानीय संस्थानों को बिजली-पानी, सफाई, स्वास्थ्य संबंधी काम सौंप दिए गए. ऐसे ही अधिनियम पंजाब और बंगाल में भी बनाये गए. इसके साथ ही इन्हें कुछ वित्तीय अधिकार भी दिए गए. उन्नीसवीं सदी की शुरूआत में भारत के लगभग सभी शहरों में नगर निगम प्रशासन की मौजूदगी हो गयी थी. समय के साथ-साथ स्थानीय स्वशासन की व्यवस्था और इसके ढांचे में बदलाव होते रहे.