शिमला: देश भर में हर साल निर्जला एकादशी का पर्व मनाया जाता है. इस दिन का इंतजार हर किसी को रहता है. हर गली हर मुहल्ले के व्यवसायी इस दिन मीठे पानी और फलों की छबील लगा कर लोगों की सेवा करते हैं, लेकिन इस साल कोरोना वायरस के चलते ना तो मंदिरों में भगवान का गुण-गान सुनने को मिलेगा और ना ही लोगों को मीठा शरबत चखने को मिलेगा.
शिमला में भी लॉकडाउन की वजह से निर्जला एकादशी का पर्व फीका पड़ गया है. शिमला में निर्जला एकादशी का यह पुण्य दिन बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है. इस दिन पर शिमला के गंज बाजार सहित मॉल रोड, रिज और मिडल बाजार, लोअर बाजार सहित अन्य कई जगहों पर पानी और फलों की छबीले भी लगाई जाती हैं, लेकिन इस साल कोरोना वायरस की वजह से राजधानी में लोग छबील का मजा नहीं ले पाएंगे.
तो चलिए अब आपकों इस एकादशी के महत्व के बारे में भी बताते हैं कि आखिर क्यों बाकी एकादशियों के मुकाबले इस एकादशी का ज्यादा महत्व है.
जेष्ठ मास की शुक्ल पक्ष को निर्जला एकादशी मनाई जाती है. मान्यता है कि हिन्दू धर्म और शास्त्रों में निर्जला एकादशी के दिन व्रत करने से सभी एकादशी व्रतों का फल एक ही दिन में मिल जाता है. इस दिन बिना भोजन किए निर्जल व्रत किया जाता है. इस व्रत में पानी पीना निषेध है. इस दिन को भीमसेन एकादशी के नाम से भी जाना जाता है.
क्या है पौराणिक मान्यता
मान्यता है कि पाण्डवों में दूसरा भाई भीमसेन खाने-पीने का अत्यधिक शौकीन था और अपनी भूख को नियन्त्रित करने में सक्षम नहीं था. इसी कारण वह एकादशी व्रत को नहीं कर पाता था. भीम के अलावा बाकि पाण्डव भाई और द्रौपदी साल की सभी एकादशी व्रतों को पूरी श्रद्धा भक्ति से किया करते थे.
भीमसेन अपनी इस लाचारी और कमजोरी को लेकर परेशान था. भीमसेन को लगता था कि वह एकादशी व्रत न करके भगवान विष्णु का अनादर कर रहा है. इस दुविधा से उभरने के लिए भीमसेन महर्षि व्यास के पास गए. तब महर्षि व्यास ने भीमसेन को साल में एक बार निर्जला एकादशी व्रत को करने कि सलाह दी और कहा कि निर्जला एकादशी साल की चौबीस एकादशियों के तुल्य है. इसी पौराणिक कथा के बाद निर्जला एकादशी भीमसेनी एकादशी और पाण्डव एकादशी के नाम से भी प्रसिद्ध हो गयी.