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28 साल पहले जमीन अधिग्रहण का मुआवजा देने से मुकरी सरकार, हाईकोर्ट ने कहा- इस रवैये ने झकझोर दी अदालत की अंतरात्मा - Land acquisition compensation case

28 साल पहले जमीन अधिग्रहण मामले में मुआवजा न मिलने का मामला हिमाचल हाईकोर्ट पहुंचा. मामले में मुआवजा देने से राज्य सरकार के मुकरने पर कोर्ट ने हैरानी जताई है. कोर्ट ने मामले में सरकार पर 10 हजार का कॉस्ट लगाया. साथ ही 2 महीने के भीतर याचिकाकर्ता को मुआवजा देने के आदेश दिए. पढ़िए पूरी खबर...

High Court
शिमला सड़क जमीन अधिग्रहण मामला
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Published : Jul 1, 2023, 10:22 AM IST

शिमला: हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने राज्य सरकार की कार्यप्रणाली और सोच पर बेहद सख्त टिप्पणी की है. दरअसल, 28 साल पहले राज्य सरकार ने ऊपरी शिमला में एक सड़क का निर्माण करने के लिए जमीन अधिगृहीत की थी. अधिगृहीत की गई जमीन का मुआवजा पाने के लिए प्रार्थी ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. हाईकोर्ट में सरकार ने दलील दी कि प्रार्थी सडक़ का इस्तेमाल कर रहा है और उसने देरी से मुआवजा मांगा है. इस पर हाईकोर्ट ने हैरानी जताई और सरकार की दलील को अदालत की अंतरात्मा झकझोरने वाला काम बताया. नाराज हाईकोर्ट ने सरकार पर दस हजार रुपए की कॉस्ट भी लगाई और प्रार्थी को दो महीने के भीतर मुआवजा अदा करने का आदेश दिया.

रोहड़ू-परसा-शेखल सड़क के लिए ली थी जमीन: राज्य सरकार ने वर्ष 1995 में ऊपरी शिमला के रोहड़ू-परसा-शेखल वाया ढारा सड़क का निर्माण किया था. इसके लिए स्थानीय लोगों ने स्वेच्छा से जमीन दी थी. लोअर कोटी नामक इलाके के निवासी एक व्यक्ति की जमीन से होते हुए वर्ष 1995 में उक्त सड़क का निर्माण किया गया था. मुआवजे के लिए हाईकोर्ट पहुंचे प्रार्थी बलवंत सिंह का आरोप था कि सड़क का निर्माण भू-अधिग्रहण के बाद किया जाना चाहिए था, लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया.

मुआवजा पर राज्य सरकार की दलील: वहीं, सरकार की दलील थी कि उक्त सड़क को स्थानीय लोगों की मांग पर बनाया गया था. सरकार का कहना था कि सड़क निर्माण के लिए जनता ने अपनी इच्छा से जमीन दी थी. जनता की सहमति से ही सड़क का निर्माण किया गया था. अब प्रार्थी इतना समय बीत जाने के बाद मुआवजे की मांग कर रहा है. राज्य सरकार ने अदालत में दलील देते हुए कहा कि सड़क का इस्तेमाल करने के बाद मुआवजे की मांग अनुचित है. ये दलील देते हुए सरकार ने हाईकोर्ट से प्रार्थी की याचिका को खारिज करने की मांग उठाई.

सरकार की दलील से हैरान हाईकोर्ट ने की सख्त टिप्पणी: हाईकोर्ट में राज्य सरकार की सभी दलीलों पर हाईकोर्ट ने हैरानी जताई और सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि इस रवैये ने अदालत की अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया है. इस टिप्पणी के साथ ही हाईकोर्ट ने सरकार की सभी दलीलों को नकार दिया. राज्य सरकार पर दस हजार रुपए की कॉस्ट लगाई गई. साथ ही सड़क निर्माण के लिए इस्तेमाल की गई भूमि का मुआवजा प्रदान करने के आदेश दिए. हाईकोर्ट ने कहा कि जमीन के मालिक को भू-अर्जन अधिनियम-1894 के तहत सड़क निर्माण के लिए इस्तेमाल की गई जमीन का मुआवजे का आकलन कर याचिकाकर्ता बलवंत सिंह को अदा करना होगा.

हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को लगाई फटकार: हाईकोर्ट ने कहा कि सरकार देरी से मुआवजे की मांग को आधार बनाकर, इसे देने से इंकार नहीं कर सकती. अदालत ने सुनवाई के दौरान पाया कि प्रार्थी की इस्तेमाल की गई भूमि का मुआवजा नहीं दिया गया. इसलिए याचिकाकर्ता को मुआवजा राशि की मांग को लेकर अदालत आना पड़ा. हाईकोर्ट ने कहा कि संपत्ति का अधिकार मौलिक अधिकार तो नहीं है फिर भी यह अधिकार आर्टिकल 300-ए के तहत संवैधानिक अधिकार है. अदालत ने सरकार को आदेश दिए कि वह 6 हफ्ते के अंदर सड़क निर्माण के लिए ली गई प्रार्थी बलवंत सिंह की जमीन की पैमाईश करे और उसके बाद 2 माह के भीतर मुआवजा राशि तय कर अदा करे.
ये भी पढ़ें: भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी के गांव प्रीणी में सरकारी जमीन पर अवैध कब्जे, हाईकोर्ट ने दिए डिमार्केशन के आदेश

शिमला: हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने राज्य सरकार की कार्यप्रणाली और सोच पर बेहद सख्त टिप्पणी की है. दरअसल, 28 साल पहले राज्य सरकार ने ऊपरी शिमला में एक सड़क का निर्माण करने के लिए जमीन अधिगृहीत की थी. अधिगृहीत की गई जमीन का मुआवजा पाने के लिए प्रार्थी ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. हाईकोर्ट में सरकार ने दलील दी कि प्रार्थी सडक़ का इस्तेमाल कर रहा है और उसने देरी से मुआवजा मांगा है. इस पर हाईकोर्ट ने हैरानी जताई और सरकार की दलील को अदालत की अंतरात्मा झकझोरने वाला काम बताया. नाराज हाईकोर्ट ने सरकार पर दस हजार रुपए की कॉस्ट भी लगाई और प्रार्थी को दो महीने के भीतर मुआवजा अदा करने का आदेश दिया.

रोहड़ू-परसा-शेखल सड़क के लिए ली थी जमीन: राज्य सरकार ने वर्ष 1995 में ऊपरी शिमला के रोहड़ू-परसा-शेखल वाया ढारा सड़क का निर्माण किया था. इसके लिए स्थानीय लोगों ने स्वेच्छा से जमीन दी थी. लोअर कोटी नामक इलाके के निवासी एक व्यक्ति की जमीन से होते हुए वर्ष 1995 में उक्त सड़क का निर्माण किया गया था. मुआवजे के लिए हाईकोर्ट पहुंचे प्रार्थी बलवंत सिंह का आरोप था कि सड़क का निर्माण भू-अधिग्रहण के बाद किया जाना चाहिए था, लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया.

मुआवजा पर राज्य सरकार की दलील: वहीं, सरकार की दलील थी कि उक्त सड़क को स्थानीय लोगों की मांग पर बनाया गया था. सरकार का कहना था कि सड़क निर्माण के लिए जनता ने अपनी इच्छा से जमीन दी थी. जनता की सहमति से ही सड़क का निर्माण किया गया था. अब प्रार्थी इतना समय बीत जाने के बाद मुआवजे की मांग कर रहा है. राज्य सरकार ने अदालत में दलील देते हुए कहा कि सड़क का इस्तेमाल करने के बाद मुआवजे की मांग अनुचित है. ये दलील देते हुए सरकार ने हाईकोर्ट से प्रार्थी की याचिका को खारिज करने की मांग उठाई.

सरकार की दलील से हैरान हाईकोर्ट ने की सख्त टिप्पणी: हाईकोर्ट में राज्य सरकार की सभी दलीलों पर हाईकोर्ट ने हैरानी जताई और सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि इस रवैये ने अदालत की अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया है. इस टिप्पणी के साथ ही हाईकोर्ट ने सरकार की सभी दलीलों को नकार दिया. राज्य सरकार पर दस हजार रुपए की कॉस्ट लगाई गई. साथ ही सड़क निर्माण के लिए इस्तेमाल की गई भूमि का मुआवजा प्रदान करने के आदेश दिए. हाईकोर्ट ने कहा कि जमीन के मालिक को भू-अर्जन अधिनियम-1894 के तहत सड़क निर्माण के लिए इस्तेमाल की गई जमीन का मुआवजे का आकलन कर याचिकाकर्ता बलवंत सिंह को अदा करना होगा.

हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को लगाई फटकार: हाईकोर्ट ने कहा कि सरकार देरी से मुआवजे की मांग को आधार बनाकर, इसे देने से इंकार नहीं कर सकती. अदालत ने सुनवाई के दौरान पाया कि प्रार्थी की इस्तेमाल की गई भूमि का मुआवजा नहीं दिया गया. इसलिए याचिकाकर्ता को मुआवजा राशि की मांग को लेकर अदालत आना पड़ा. हाईकोर्ट ने कहा कि संपत्ति का अधिकार मौलिक अधिकार तो नहीं है फिर भी यह अधिकार आर्टिकल 300-ए के तहत संवैधानिक अधिकार है. अदालत ने सरकार को आदेश दिए कि वह 6 हफ्ते के अंदर सड़क निर्माण के लिए ली गई प्रार्थी बलवंत सिंह की जमीन की पैमाईश करे और उसके बाद 2 माह के भीतर मुआवजा राशि तय कर अदा करे.
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