मंडी: भारतवर्ष में त्योहार व मेलों के जरिए देश में सांस्कृतिक संपन्नता के बारे में पता चलता है. देश के सांस्कृतिक जीवन के परिपेक्ष्य में कई मोड़ आए और कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं को हमेशा याद रखने के लिए त्योहार व मेलों का प्रचलन शुरू हुआ.
किसी भी समाज के सांस्कृतिक जीवन का असली चेहरा त्योहारों व मेलों में देखने को मिलता है. सुंदरनगर का ऐतिहासिक राज्यस्तरीय नलवाड़ मेला भी इसी बात का प्रमाण है. मान्यता है कि शुकदेव ऋषि की तपोभूमि सुंदरनगर में करीब 500 वर्ष पहले से मनाए जाने वाले नलवाड़ मेले का अहम स्थान है.
मेले में जहां किसानों को एक ही स्थान पर अच्छी नस्ल के मवेशी खरीदने का मौका मिलता है. वहीं, व्यापारियों को अपने पशु बेचने का बाजार मिल जाता है, लेकिन समय के साथ सुकेत नलवाड़ मेला अपनी आखिरी सांसें गिन रहा है. वहीं, आधुनिकता व राजनीति के चलते इस समृद्धशाली परंपरा को ग्रहण लगने से अधिकांश मेलों का वजूद सिमटने के कगार पर है.
पिछले 20 वर्षों से लगातार नलवाड़ मेले में आने वाले सुंदरनगर उपमंडल की ग्राम पंचायत बायला निवासी व्यापारी रत्ती राम ने कहा कि सुंदरनगर नलवाड़ मेला उत्तर भारत का सबसे बड़ा पशु मेला था. उन्होंने कहा कि समय के साथ-साथ आधुनिकता की दौड़ व राजनीति के कारण नलवाड़ मेला अपनी आखिरी सांसें गिन रहा है.
वर्तमान सरकार के मेलों में टैक्स के कारण सरकार के साथ-साथ व्यापारियों को भी नुकसान उठाना पड़ रहा है. उन्होंने कहा कि पहले मेले में प्रत्येक बैल की खरीद-फरोख्त पर प्रति हजार 3.50 रुपये बतौर टैक्स वसूला जाता था. अब सरकार के टैक्स न लेने के कारण कोई पता नहीं लग रहा कि कौन सा पशु बिक गया है और कौन सा नहीं. स्थानीय लोगों का कहना है कि मेले में आने वाले पशुओं की टैगिंग भी नहीं की जा रही, जिससे आवारा पशुओं की समस्या बढ़ने से दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है.