लाहौल स्पीति: जिला लाहौल-स्पीति की समृद्ध संस्कृति,परंपरा, गुढ़ इतिहास,लोक नृत्य और जनजातीय सामाजिक परिवेश कहीं पर्यटन की बाढ़ में बह न जाएं, इसको लेकर शीत मरुस्थल के लोग, बुद्धिजीवी, चिंतक, लेखक, कवि, समाज सेवक और राजनीतिज्ञ सहित आम जनता चिंतित है. अटल रोहतांग टनल बनने के बाद जिस तरह से पर्यटकों की बाढ़ इस नई दुनिया को देखने के लिए आई तो सभी इस बात को लेकर चिंतित थे कि आखिर यहां की प्रसिद्ध परंपरा आधुनिकता की चकाचौंध में खो न जाएं. पश्चिमी लबादे में कहीं यहां की ठेठ परंपरा लुप्त न हो जाए.
स्नो फेस्टिवल का आगाज
लाहौल-स्पीति का एक बड़ा बुद्धिजीवी वर्ग इस मंथन में जुटा हुआ है कि आखिर यहां का टूरिज्म कैसा होना चाहिए. इसी कड़ी में बुद्धिजीवी की इस टोली ने यहां की प्रसिद्ध परंपरा और प्राचीन संस्कृति को बचाने का जो विकल्प तलाशा वह काबिले तारीफ है. इस वर्ष से लाहौल-स्पीति में स्नो फेस्टिवल का आगाज किया गया ताकि इस फेस्टिवल के माध्यम से युगों-युगों तक यहां की जनजातीय संस्कृति जीवित रह सके और देश-दुनिया के लोग इस संस्कृति से रूबरू हो सके.
अब यह फेस्टिवल हर वर्ष मनाया जाता रहेगा. कम से कम वर्ष में एक माह तक चलने वाले इस आयोजन में यहां की समृद्ध संस्कृति, समृद्ध वेशभूषा, समृद्ध सभ्यता और समृद्ध खानपान की पुनरावृत्ति होती रहे. इस फेस्टिवल के आयोजन को आयोजित करने के पीछे जो सोच रही है वह निरंतर कबायली जनजीवन को भविष्य में जिंदा रखने का एक अच्छा माध्यम है.
लाहौल-स्पीति की वेशभूषा
आज कल प्रथम स्नो फेस्टिवल में लाहौल-स्पीति सराबोर हैं और यहां के रिच कल्चर का बखूबी प्रदर्शन हो रहा है. यहां के लोकनृत्य, संगीत और परंपराएं शीत रेगिस्तान के गर्भ से होकर निकलने बाले स्वर सच में हरएक को मंत्रमुग्ध कर देने वाले हैं. लाहौल स्पीति की मेहमान नवाजी का भी कोई जबाव नहीं. नमकीन चाय और राक्षी (जो की शराब) से जब तक मेहमान का स्वागत न हो तो मजा नहीं आता.
ठेठ कबायली व्यंजनों पर नजर पड़ते ही मुंह में लार टपकना स्वभाविक है. लाहौल की वेशभूषा की बात करें तो पुरुष जब अपनी पुरानी पारंपरिक पोषक में होते हैं तो मानो हम देव लोक में पहुंच गए हो और साक्षात देवता हमारे सामने हो. महिलाएं जब अपनी पोषक और आभूषणों में सुसज्जित होती है तो मानो हम परीलोक में पहुंच गए हो और साक्षात देवियां हमारे समक्ष हैं, लेकिन यह संस्कृति तभी जिंदा थी जब छह माह तक यहां के लोग बर्फ के कारावास में कैद रहते थे.
अटल रोहतांग टनल से दूर हुई दिक्कतें
रोहतांग दर्रा जब तक लाहौल के लिए एक बैरियर का काम कर रहा था. जब लाहौल पहुंचना आसान न था तो परंपराओं का भी जिंदा रहना स्वभाविक था, लेकिन अब शीत मरुस्थल के लोग बर्फ के कारावास से आजाद हो गए हैं और रोहतांग दर्रा अब बाधा नहीं रहा. अटल रोहतांग टनल के बनने से एक तरफ लाहौलियों की खुशी की लहर है तो दूसरी तरफ चिंता की लकीरें भी खिंच आई है.
खुशी इस बात की है कि अब वे छह माह तक अपने ही घर में कैद नहीं रहेंगे. 12 माह और 24 घण्टे कभी भी बाहरी दुनिया के साथ संपर्क रहेगा और जब मर्जी आवागमन भी होता रहेगा. उन्होंने जो मुश्किलें झेली हैं वह अब उनके बच्चे नहीं झेलेंगे. रोहतांग टनल ने सब आसान कर दिया है. पहले जहां सर्दियों में लाहौल घाटी से बाहर निकलने के लिए या तो हेलीकॉप्टर का या फिर छह माह का इंतजार करना पड़ता था वह सफर अब मात्र 10 मिनट में तय हो जाता है.
टनल से खुले रोजगार के द्वार
लाहौल से टनल के द्वार में प्रवेश करो और 10 मिनट में दूसरी तरफ मनाली पहुंचो. यही नहीं टनल ने रोजगार के भी द्वार खोल दिए. आजतक बर्फ से लकदक पहाड़ों को सिर्फ यहीं के लोग निहारते रहते थे वहीं अब इन पहाड़ों में देश-दुनिया के लोगों का मेला लग गया है. हर कहीं स्नो प्वाइंट विकसित हो चुके हैं और हर जगह स्की ढलाने नजर आ रही है. आजतक जहां बर्फ का यह समुद्र गुमनाम था और दुनिया की नजर में आ गया है. चिंता अब इस बात की है कि क्षमता से अधिक पर्यटकों की रेलमपेल क्या लाहौल की शांत वादियां सहन कर पाएगी.
सबसे बड़ी चिंता इस बात की है कि लाहौल स्पीति की पुरानी परंपरा, रहन सहन, संस्कृति, सभ्यता और परिवेश जिंदा रह पाएगा या नहीं. पश्चिमी संस्कृति के प्रवेश के आगे क्या यहां की वेशभूषा जिंदा रहेगी या फिर लुप्त हो जाएगी. इन्हीं चिंताओं को दूर करने के लिए स्नो फेस्टिवल का जो आगाज हुआ है उसमें इन परंपराओं को जिंदा रखा जा सकता है और यह पहल बहुत कारगर सिद्ध हो सकती है. इस फेस्टिवल में लाहली लोग पुरानी संस्कृति और वेशभूषा में झूम रहे हैं और पुरातन एवं घरेलू खानपान का लुत्फ उठाया जा रहा है. उम्मीद है कि इस तरह के आयोजन यहां की संस्कृति व वेशभूषा को लुप्त होने से बचाएंगे.
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