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पहाड़ी दिवस: 'लगातार वजूद खोती जा रही हैं पहाड़ी बोलियां, इन्हें बचाने के लिए प्रयास जरूरी'

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Published : Nov 1, 2020, 4:07 PM IST

भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के समय 01 नवंबर 1966 को विशाल हिमाचल बना. उसी दिवस को ऐतिहासिक स्मृति दिवस के रूप में पहली नवंबर को पहाड़ी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा. इसी विचार और संकल्प के विकास के लिए 14 अप्रैल, 1971 प्रदेश भाषा, कला एवं संस्कृति अकादमी का गठन और 02 अक्टूबर 1972 को उद्घाटन हुआ, ताकि पहाड़ी बोली का प्रचार-प्रसार व संरक्षण किया जाए.

पहाड़ी दिवस
पहाड़ी दिवस

आनी: आज पहाड़ी दिवस है. यानी पहाड़ी बोली का दिन. हम और आप रोज सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक पहाड़ी में ही जीते हैं. बीच में भले ही हिंदी, इंग्लिश, पंजाबी समेत अन्य भाषाओं का झूला झूलते हैं, लेकिन यह तय है कि अपनी पहाड़ी बोली हमारी सांस-सांस में निहित है.

भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के समय 01 नवंबर 1966 को विशाल हिमाचल बना. उसी दिवस को ऐतिहासिक स्मृति दिवस के रूप में पहली नवंबर को पहाड़ी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा. इसी विचार और संकल्प के विकास के लिए 14 अप्रैल, 1971 प्रदेश भाषा, कला एवं संस्कृति अकादमी का गठन और 02 अक्टूबर 1972 को उद्घाटन हुआ, ताकि पहाड़ी बोली का प्रचार-प्रसार व संरक्षण किया जाए.

हम जितना मर्जी हिंदी, अंग्रेजी के मोह में फंस लें, लेकिन पहाड़ी हमें न आए ऐसा संभव नहीं है. आज हिमाचल के हर जिले में अपनी अपनी बोलियां जाती हैं जिनकी अपनी एक अलग पहचान है. कुल्लवी, किन्नौरी, मंडयाली, चम्बयाली, सिरमौरी, कांगड़ी, हमीरपुरी, बिलासपुरी, समेत अन्य बोलियों की अपनी एक मिठास है जो हमें आपस में जोड़े रखती हैं.

आनी में युवा भारत के प्रदेश सोशल मीडिया प्रभारी व जिलाध्यक्ष दिवान राजा ने कहा कि पहाड़ी बोली को बचाए रखने के लिए हम सभी को प्रयास करने होंगे. उन्होंने कहा कि अगर हम आपस में तय कर लें कि हम अधिकतर वार्तालाप, सम्प्रेषण, परीक्षाओं की तैयारियों के लिए संवाद समेत सोशल मीडिया में बातचीत अपनी स्थानीय बोली में करने की आदत डालें तो निश्चित तौर पर बोलियों का खत्म होता वजूद बचाया जा सकता है.

आनी: आज पहाड़ी दिवस है. यानी पहाड़ी बोली का दिन. हम और आप रोज सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक पहाड़ी में ही जीते हैं. बीच में भले ही हिंदी, इंग्लिश, पंजाबी समेत अन्य भाषाओं का झूला झूलते हैं, लेकिन यह तय है कि अपनी पहाड़ी बोली हमारी सांस-सांस में निहित है.

भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के समय 01 नवंबर 1966 को विशाल हिमाचल बना. उसी दिवस को ऐतिहासिक स्मृति दिवस के रूप में पहली नवंबर को पहाड़ी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा. इसी विचार और संकल्प के विकास के लिए 14 अप्रैल, 1971 प्रदेश भाषा, कला एवं संस्कृति अकादमी का गठन और 02 अक्टूबर 1972 को उद्घाटन हुआ, ताकि पहाड़ी बोली का प्रचार-प्रसार व संरक्षण किया जाए.

हम जितना मर्जी हिंदी, अंग्रेजी के मोह में फंस लें, लेकिन पहाड़ी हमें न आए ऐसा संभव नहीं है. आज हिमाचल के हर जिले में अपनी अपनी बोलियां जाती हैं जिनकी अपनी एक अलग पहचान है. कुल्लवी, किन्नौरी, मंडयाली, चम्बयाली, सिरमौरी, कांगड़ी, हमीरपुरी, बिलासपुरी, समेत अन्य बोलियों की अपनी एक मिठास है जो हमें आपस में जोड़े रखती हैं.

आनी में युवा भारत के प्रदेश सोशल मीडिया प्रभारी व जिलाध्यक्ष दिवान राजा ने कहा कि पहाड़ी बोली को बचाए रखने के लिए हम सभी को प्रयास करने होंगे. उन्होंने कहा कि अगर हम आपस में तय कर लें कि हम अधिकतर वार्तालाप, सम्प्रेषण, परीक्षाओं की तैयारियों के लिए संवाद समेत सोशल मीडिया में बातचीत अपनी स्थानीय बोली में करने की आदत डालें तो निश्चित तौर पर बोलियों का खत्म होता वजूद बचाया जा सकता है.

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