किन्नौर: किन्नौर जिले में सैकड़ों वर्ष पूर्व जब एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति को कोई भी सामान देना होता था या व्यापारी सामान को बेचते थे तो तोलने के लिए तराजू की किस्म बिल्कुल अलग हुआ करती थी. जिले के छितकुल गांव में आज भी इस तराजू का प्रयोग ग्रामीण करते हैं. जिसे किन्नौर के अलग-अलग जगहों पर विभिन्न नामों से जाना जाता है. कुछ क्षेत्रों में इसे बट्टी तकली और पोरे कहा जाता है. जिसमें खाद्य प्रदार्थों के अलावा अन्य सामानों को तोलने का काम किया जाता है. (old taraju in Kinnaur)
इस तराजू का ऊपरी हिस्सा लकड़ी व निचला हिस्सा तरपाल, चमड़े आदि का बना होता है. लोहे का बट्टा ऊपरी तरफ फसाया जाता है. जिसके बाद इसमें वस्तुओं को नाप तोलकर लोगों को दिया जाता है. लुप्त होते इस तराजू या यूं कहें कि बुजुर्गों की इस विरासत को आज भी छितकुल गांव के ग्रामीण मुकेश नेगी ने संभाल कर रखा है और आज भी वे इस सैकड़ों वर्ष पुराने तराजू का प्रयोग कर रहे हैं. (Hundreds of years old scales in Kinnaur)
वहीं, इस तराजू को देखने के लिए देश विदेश से लोग भी उनके पास आते हैं और पुरानी विरासत को देखकर गौरव महसूस करते हैं. बता दें कि जिले में सैकड़ों वर्ष पुरानी तकनीक वाले इस तराजू से ही जिले के अंदर व्यापारिक दृष्टि से किसी भी वस्तु के वजन को तोला जाता था और आज बदलते दौर के साथ किन्नौर में यह तराजू लुप्त हो रहा है. जिले में गिने चुने लोगों के पास ही यह तराजू देखने को मिलता है. यह तराजू किन्नौर के अच्छे व्यापरियों जो तिब्बत से व्यापार करते थे उनके पास हमेशा साथ रहता था.
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