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यहां टूटा था अकबर का अभिमान, माता की शक्ति के सामने विज्ञान भी फेल!

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Published : Sep 30, 2019, 4:42 AM IST

श्री ज्वालामुखी मन्दिर में छत्र और अकबर नहर यहां आने वाले श्रद्धालुओं के लिए कौतुहल और विज्ञान के लिए रहस्‍य का विषय बना हुआ. जो भी श्रद्धालु देवी मां के इस शक्‍तिपीठ में आता है वो अकबर के छत्र और नहर देखे बगैर अपनी यात्रा को अधूरा ही मानता है.आज भी छत्र ज्वाला मंदिर के साथ लगते मोदी भवन में रखा हुआ है.

माता की शक्ति के सामने विज्ञान भी फेल!

ज्वालामुखी: 29 सितंबर से अश्विन नवरात्रे शुरू हो रहे हैं. नवरात्रि का संस्कृत में मतलब होता है नौ रातें. पूरे भारत में लोग नवरात्रि को बेहद ही उत्साह के साथ मनाते हैं. यह हिन्दू पर्व देवी दुर्गा के 9 अवतारों को समर्पित है. भारत के मंदिरों में सती के शक्तिपीठों की काफी मान्यता है. इन्हीं में एक विश्वविख्यात शक्तिपीठ है श्री ज्वालामुखी.

श्री ज्वालामुखी मन्दिर जिला कांगड़ा के शिवालिक पर्वत श्रृंखला में स्तिथ कालीधार पहाड़ी पर स्तिथ है.यह समुद्र से 600 मीटर ऊंचाई पर ज्वालामुखी उपमंडल में स्तिथ है. विश्व में एक ऐसा स्थान जो की प्राकृतिक ही नहीं अपितु चमत्कारी भी है. हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्तिथ ज्वालामुखी अपने आप में अद्भुत मंदिर है. यहां ज्योति रूप में ही मां ज्वाला भक्तों को दर्शन देती हैं.

श्री ज्वालामुखी मन्दिर का इतिहास

पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा दक्ष प्रजापति द्वारा एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया गया, लेकिन अपनी पुत्री सती व उसके पति शिव को यज्ञ में आमंत्रित नहीं किया. सती बिना बुलाये ही यज्ञ में पहुंच गई परन्तु शिव के भारी अपमान स्वरूप यज्ञ कुंड में कूद पड़ी और अपनी देह त्याग दी. भगवान शिव ने व्याकुल होकर सती के शव को कंधे पर उठाया और हिमालय की ओर प्रस्थान कर गए. भगवान शिव अर्धांगिनी के इस प्रकार हुए देह त्याग पर बहुत व्यथित थे. शिव के इस प्रकार के भयंकर रूप को देखकर देवगणों ने भगवान विष्णु से शिव का क्रोध शांत करने की प्रार्थना की.

शिव के तांडव प्रहार से बचाने के लिए विष्णु जी ने सती के शव के अनेकों टुकड़े कर दिए. सती के अंग अलग-अलग स्थानों पर गिरते रहे, और जहां-जहां पर सती के अंगों के टुकड़े गिरे, उन्हीं स्थानों पर शक्तिपीठों की स्थापना हुई. जिस स्थान पर सती की जीभ गिरी वहां पर देवी ज्वाला के रूप में प्रकट हुई और यही स्थान कालांतर में श्री ज्वालामुखी के नाम से विख्यात हुआ.

माता की शक्ति के सामने विज्ञान भी फेल!

तारीख ए फिरोजशाही में वर्णित फरिश्ता के अनुसार ज्वालामुखी मंदिर में हिंदू किताबों का एक बहुत बड़ा पुस्तकालय था, जिसमें 1300 किताबें थी. फिरोजशाह तुगलक ने इनमें से एक पुस्तक का पर्शियन में अनुवाद करवाया व इसका नाम दलील ए फिरोजशाही रखा. इसका अनुवाद इजुदीन खालिद खानी द्वारा किया गया व इसमें दर्शन शास्त्र, फलित ज्योतिष व देवत्व के वारे में विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है.

कहा जाता है कि ज्वालामुखी में प्रकट दिव्य ज्योतियों की जानकारी मुगल सम्राट अकबर को मिली तो उसने एक नहर का निर्माण करवा कर ज्वालाओं को बुझाने के लिए उन पर पानी छोड़ा लेकिन ज्वालाएं ज्यों की त्यों जलती रही जिसके बाद ज्वालाओं को मिटा देने के लिए अकबर ने इन्हें लोहे के तवे से ढक देने का प्रयास किया लेकिन यहां भी निराशा ही हाथ लगी. आखिरकार माता भगवती की चमत्कारिक शक्ति से हार मान कर अकबर नंगे पांव स्वंय ज्वालाजी मन्दिर गया व सोने का छत्र भेंट किया, लेकिन उसकी भेंट को न स्वीकारते हुए माता ने उसे अज्ञात धातु में परिवर्तित कर दिया, जो आज भी मन्दिर में विद्यमान है.

छत्र किस धातु का है किसी को नहीं पता!
बादशाह अकबर की ओर से चढ़ाया गया छत्र आखिर किस धातु में बदल गया इसकी जांच के लिए साठ के दशक में तत्‍कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की पहल पर यहां वैज्ञानिकों का एक दल पहुंचा. इसके बाद छत्र के एक हिस्‍से का वैज्ञानिक परीक्षण किया गया तो चौंकाने वाले नतीजे सामने आये. वैज्ञानिक परीक्षण के आधार पर इसे किसी भी धातु की श्रेणी में नहीं माना गया. बहरहाल, आज भी यह छत्र और अकबर नहर यहां आने वाले श्रद्धालुओं के लिए कौतुहल और विज्ञान के लिए रहस्‍य का विषय बना हुआ. जो भी श्रद्धालु देवी मां के इस शक्‍तिपीठ में आता है वो अकबर के छत्र और नहर देखे बगैर अपनी यात्रा को अधूरा ही मानता है.आज भी छत्र ज्वाला मंदिर के साथ लगते मोदी भवन में रखा हुआ है.

मन्दिर का निर्माण
52 शक्तिपीठों में ज्वालाजी का महत्व कालांतर से सर्वाधिक रहा है. किवदंती के अनुसार पांडवों के समय मन्दिर का निर्माण हुआ. जिसके बाद में राजा भूमिचन्द्र ने जीर्णोद्वार किया. मन्दिर मंडप शैली में निर्मित है. इसके ऊपर सोने का पॉलिश चढ़ा है. इसे महाराजा रणजीत सिंह ने अपने शासन काल में चढ़वाया था. उनके पौत्र कुंवर नौनिहाल सिंह ने मन्दिर के मुख्य दरवाजों को चांदी के पतरों से बनवाया जो आज भी मन्दिर में विद्यमान हैं.

सात ज्योतियां हैं विद्यमान
मंदिर के गर्भ गृह के अंदर सात ज्योतियां विद्यमान हैं, सबसे बड़ी ज्योति महाकाली का रूप हैं जिसे ज्वालामुखी भी कहा जाता है. दूसरी ज्योति मां अन्नपूर्णा, तीसरी ज्योति मां चंडी, चौथी मां हिंगलाज, पांचवी विंध्यावासनी, छठी महालक्ष्मी व सातवीं मां सरस्वती हैं.

पांच बार होती है आरती
मंदिर में पांच बार आरती होती है. एक मंदिर के कपाट खुलते ही सूर्योदय के साथ सुबह 5 बजे की जाती है, दूसरी मंगल आरती सुबह की आरती के बाद. दोपहर की आरती 12 बजे की जाती है. आरती के साथ-साथ माता को भोग भी लगाया जाता है. फिर संध्या रात आरती 7 बजे होती है. इसके पश्चात रात्रि आरती होती है. इसके बाद देवी की शयन आरती रात 9:30 बजे की जाती है. माता की शय्या को फूलों, आभूषणों और सुगंधित सामग्रियों से सजाया जाता है और पुजारी द्वारा मन्दिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं.

प्रमुख देवालय स्थान
मन्दिर के प्रमुख देवालयों में शैया भवन, गोरख डिब्बी, श्री तारा देवी मंदिर, श्री मुरली मनोहर मन्दिर, शिव शक्ति, लाल शिवालय, सिद्ध नागर्जुन मन्दिर, अम्बिकेश्वर महादेव, काल भैरव मंदिर, सन्तोषी माता मंदिर व टेढ़ा मन्दिर शामिल हैं. ये सभी मन्दिर ज्वालामुखी मन्दिर के इर्द गिर्द ही हैं.

ज्वाला प्राकृतिक नहीं अपितु चमत्कारिक भी
यहां पर ज्वाला प्राकृतिक न होकर चमत्कारिक है. अंग्रेजी शासनकाल में अंग्रेजों ने अपनी तरफ से पूरा जोर लगा दिया कि जमीन से निकलती 'ऊर्जा' का इस्तेमाल किया जाए, लेकिन लाख कोशिश करने पर भी वे इस 'ऊर्जा' को नहीं ढूंढ पाए. वहीं अकबर लाख कोशिशों के बाद भी इसे बुझा न पाया. यह दोनों बातें यह सिद्ध करती है की यहां ज्वाला चमत्कारी रूप से ही निकलती है ना कि प्राकृतिक रूप से, नहीं तो आज यहां मंदिर की जगह मशीनें लगी होतीं और बिजली का उत्पादन होता.

कैसे पहुंते माता के मंदिर?
ज्वालाजी मंदिर जाने के लिए नजदीकी हवाई अड्डा गगल में है. वहीं रेल मार्ग से जाने वाले यात्री पठानकोट से मारंडा और रानीताल ज्वालामुखी रोड पहुंच सकते हैं यहां से मन्दिर तक पहुंचने के लिए बस, टैक्सी उपलब्ध रहती है. पठानकोट, दिल्ली, शिमला आदि से सीधी बसें ज्वालाजी के लिए उपलब्ध हैं.

ज्वालामुखी: 29 सितंबर से अश्विन नवरात्रे शुरू हो रहे हैं. नवरात्रि का संस्कृत में मतलब होता है नौ रातें. पूरे भारत में लोग नवरात्रि को बेहद ही उत्साह के साथ मनाते हैं. यह हिन्दू पर्व देवी दुर्गा के 9 अवतारों को समर्पित है. भारत के मंदिरों में सती के शक्तिपीठों की काफी मान्यता है. इन्हीं में एक विश्वविख्यात शक्तिपीठ है श्री ज्वालामुखी.

श्री ज्वालामुखी मन्दिर जिला कांगड़ा के शिवालिक पर्वत श्रृंखला में स्तिथ कालीधार पहाड़ी पर स्तिथ है.यह समुद्र से 600 मीटर ऊंचाई पर ज्वालामुखी उपमंडल में स्तिथ है. विश्व में एक ऐसा स्थान जो की प्राकृतिक ही नहीं अपितु चमत्कारी भी है. हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्तिथ ज्वालामुखी अपने आप में अद्भुत मंदिर है. यहां ज्योति रूप में ही मां ज्वाला भक्तों को दर्शन देती हैं.

श्री ज्वालामुखी मन्दिर का इतिहास

पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा दक्ष प्रजापति द्वारा एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया गया, लेकिन अपनी पुत्री सती व उसके पति शिव को यज्ञ में आमंत्रित नहीं किया. सती बिना बुलाये ही यज्ञ में पहुंच गई परन्तु शिव के भारी अपमान स्वरूप यज्ञ कुंड में कूद पड़ी और अपनी देह त्याग दी. भगवान शिव ने व्याकुल होकर सती के शव को कंधे पर उठाया और हिमालय की ओर प्रस्थान कर गए. भगवान शिव अर्धांगिनी के इस प्रकार हुए देह त्याग पर बहुत व्यथित थे. शिव के इस प्रकार के भयंकर रूप को देखकर देवगणों ने भगवान विष्णु से शिव का क्रोध शांत करने की प्रार्थना की.

शिव के तांडव प्रहार से बचाने के लिए विष्णु जी ने सती के शव के अनेकों टुकड़े कर दिए. सती के अंग अलग-अलग स्थानों पर गिरते रहे, और जहां-जहां पर सती के अंगों के टुकड़े गिरे, उन्हीं स्थानों पर शक्तिपीठों की स्थापना हुई. जिस स्थान पर सती की जीभ गिरी वहां पर देवी ज्वाला के रूप में प्रकट हुई और यही स्थान कालांतर में श्री ज्वालामुखी के नाम से विख्यात हुआ.

माता की शक्ति के सामने विज्ञान भी फेल!

तारीख ए फिरोजशाही में वर्णित फरिश्ता के अनुसार ज्वालामुखी मंदिर में हिंदू किताबों का एक बहुत बड़ा पुस्तकालय था, जिसमें 1300 किताबें थी. फिरोजशाह तुगलक ने इनमें से एक पुस्तक का पर्शियन में अनुवाद करवाया व इसका नाम दलील ए फिरोजशाही रखा. इसका अनुवाद इजुदीन खालिद खानी द्वारा किया गया व इसमें दर्शन शास्त्र, फलित ज्योतिष व देवत्व के वारे में विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है.

कहा जाता है कि ज्वालामुखी में प्रकट दिव्य ज्योतियों की जानकारी मुगल सम्राट अकबर को मिली तो उसने एक नहर का निर्माण करवा कर ज्वालाओं को बुझाने के लिए उन पर पानी छोड़ा लेकिन ज्वालाएं ज्यों की त्यों जलती रही जिसके बाद ज्वालाओं को मिटा देने के लिए अकबर ने इन्हें लोहे के तवे से ढक देने का प्रयास किया लेकिन यहां भी निराशा ही हाथ लगी. आखिरकार माता भगवती की चमत्कारिक शक्ति से हार मान कर अकबर नंगे पांव स्वंय ज्वालाजी मन्दिर गया व सोने का छत्र भेंट किया, लेकिन उसकी भेंट को न स्वीकारते हुए माता ने उसे अज्ञात धातु में परिवर्तित कर दिया, जो आज भी मन्दिर में विद्यमान है.

छत्र किस धातु का है किसी को नहीं पता!
बादशाह अकबर की ओर से चढ़ाया गया छत्र आखिर किस धातु में बदल गया इसकी जांच के लिए साठ के दशक में तत्‍कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की पहल पर यहां वैज्ञानिकों का एक दल पहुंचा. इसके बाद छत्र के एक हिस्‍से का वैज्ञानिक परीक्षण किया गया तो चौंकाने वाले नतीजे सामने आये. वैज्ञानिक परीक्षण के आधार पर इसे किसी भी धातु की श्रेणी में नहीं माना गया. बहरहाल, आज भी यह छत्र और अकबर नहर यहां आने वाले श्रद्धालुओं के लिए कौतुहल और विज्ञान के लिए रहस्‍य का विषय बना हुआ. जो भी श्रद्धालु देवी मां के इस शक्‍तिपीठ में आता है वो अकबर के छत्र और नहर देखे बगैर अपनी यात्रा को अधूरा ही मानता है.आज भी छत्र ज्वाला मंदिर के साथ लगते मोदी भवन में रखा हुआ है.

मन्दिर का निर्माण
52 शक्तिपीठों में ज्वालाजी का महत्व कालांतर से सर्वाधिक रहा है. किवदंती के अनुसार पांडवों के समय मन्दिर का निर्माण हुआ. जिसके बाद में राजा भूमिचन्द्र ने जीर्णोद्वार किया. मन्दिर मंडप शैली में निर्मित है. इसके ऊपर सोने का पॉलिश चढ़ा है. इसे महाराजा रणजीत सिंह ने अपने शासन काल में चढ़वाया था. उनके पौत्र कुंवर नौनिहाल सिंह ने मन्दिर के मुख्य दरवाजों को चांदी के पतरों से बनवाया जो आज भी मन्दिर में विद्यमान हैं.

सात ज्योतियां हैं विद्यमान
मंदिर के गर्भ गृह के अंदर सात ज्योतियां विद्यमान हैं, सबसे बड़ी ज्योति महाकाली का रूप हैं जिसे ज्वालामुखी भी कहा जाता है. दूसरी ज्योति मां अन्नपूर्णा, तीसरी ज्योति मां चंडी, चौथी मां हिंगलाज, पांचवी विंध्यावासनी, छठी महालक्ष्मी व सातवीं मां सरस्वती हैं.

पांच बार होती है आरती
मंदिर में पांच बार आरती होती है. एक मंदिर के कपाट खुलते ही सूर्योदय के साथ सुबह 5 बजे की जाती है, दूसरी मंगल आरती सुबह की आरती के बाद. दोपहर की आरती 12 बजे की जाती है. आरती के साथ-साथ माता को भोग भी लगाया जाता है. फिर संध्या रात आरती 7 बजे होती है. इसके पश्चात रात्रि आरती होती है. इसके बाद देवी की शयन आरती रात 9:30 बजे की जाती है. माता की शय्या को फूलों, आभूषणों और सुगंधित सामग्रियों से सजाया जाता है और पुजारी द्वारा मन्दिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं.

प्रमुख देवालय स्थान
मन्दिर के प्रमुख देवालयों में शैया भवन, गोरख डिब्बी, श्री तारा देवी मंदिर, श्री मुरली मनोहर मन्दिर, शिव शक्ति, लाल शिवालय, सिद्ध नागर्जुन मन्दिर, अम्बिकेश्वर महादेव, काल भैरव मंदिर, सन्तोषी माता मंदिर व टेढ़ा मन्दिर शामिल हैं. ये सभी मन्दिर ज्वालामुखी मन्दिर के इर्द गिर्द ही हैं.

ज्वाला प्राकृतिक नहीं अपितु चमत्कारिक भी
यहां पर ज्वाला प्राकृतिक न होकर चमत्कारिक है. अंग्रेजी शासनकाल में अंग्रेजों ने अपनी तरफ से पूरा जोर लगा दिया कि जमीन से निकलती 'ऊर्जा' का इस्तेमाल किया जाए, लेकिन लाख कोशिश करने पर भी वे इस 'ऊर्जा' को नहीं ढूंढ पाए. वहीं अकबर लाख कोशिशों के बाद भी इसे बुझा न पाया. यह दोनों बातें यह सिद्ध करती है की यहां ज्वाला चमत्कारी रूप से ही निकलती है ना कि प्राकृतिक रूप से, नहीं तो आज यहां मंदिर की जगह मशीनें लगी होतीं और बिजली का उत्पादन होता.

कैसे पहुंते माता के मंदिर?
ज्वालाजी मंदिर जाने के लिए नजदीकी हवाई अड्डा गगल में है. वहीं रेल मार्ग से जाने वाले यात्री पठानकोट से मारंडा और रानीताल ज्वालामुखी रोड पहुंच सकते हैं यहां से मन्दिर तक पहुंचने के लिए बस, टैक्सी उपलब्ध रहती है. पठानकोट, दिल्ली, शिमला आदि से सीधी बसें ज्वालाजी के लिए उपलब्ध हैं.

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