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शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा की आज पुण्यतिथि, परिजनों और प्रशासन ने अर्पित की श्रद्धांजलि

परमवीर चक्र विजेता शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा की आज पुण्यतिथि है. इस मौके पर उनके परिजनों और स्थानीय प्रशासन ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की. इस दौरान उनके पिता ने सरकार से अपील करते हुए कहा कि शहीद वीर जवानों की जीवनियों को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए.

death anniversary of Martyr Captain Vikram Batra
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Published : Jul 7, 2020, 5:36 PM IST

पालमपुर: कारगील युद्व के परमवीर चक्र विजेता शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा को कौन नहीं जानता. शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा को उनकी पुण्यतिथि पर आज उनके परिवार और पालमपुर प्रशासन ने श्रद्धांजलि अर्पित की. आज से ठीक 21 बरस पहले 7 जुलाई 1999 को करगिल की जंग के सबसे बड़े नायक ने सर्वोच्च बलिदान दिया था.

बता दें कि शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा का जन्म 9 सितंबर,1974 को हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में हुआ था. कैप्टन विक्रम बत्रा को कारगिल के शेरशाह नाम से भी जाना जता है. विक्रम बत्रा ने 18 साल की आयु में ही अपने नेत्र दान करने का निर्णय ले लिया था. वह नेत्र बैंक के कार्ड को हमेशा अपने पास रखते थे.

वीडियो रिपोर्ट.

शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा की मां कमलकांता की श्रीराम चरितमानस में गहरी श्रद्धा थी. जिसके चलते उन्होंने अपने दोनों जुड़वां बच्चों का नाम लव-कुश रखा था. लव यानी विक्रम और कुश यानी उनका भाई विशाल. विक्रम बत्रा की पढ़ाई पहले डीएवी स्कूल में हुई थी. उसके बाद उनका सेंट्रल स्कूल पालमपुर में दाखिला करवाया गया. सेना छावनी में स्कूल होने से सेना के अनुशासन को देखकर और अपने पिता से देश प्रेम की कहानियों को सुनकर विक्रम में बचपन से ही देश के प्रति प्रेम प्रबल हो गया था.

शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा सिर्फ पढ़ाई में ही अव्वल नहीं थे, बल्कि खेलों में भी उनकी खास रूचि थी. वह एक उम्दा खिलाड़ी होने के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भाग भी लिया करते थे.

जमा दो तक की पढ़ाई करने के बाद विक्रम चंडीगढ़ चले गए और डीएवी कॉलेज चंडीगढ़ में उन्होंने विज्ञान विषय में स्नातक की पढ़ाई शुरू कर दी. इसके साथ ही विक्रम ने सीडीएस की भी तैयारी शुरू कर दी थी. हालांकि विक्रम को इस दौरान हांगकांग में भारी वेतन में मर्चेन्ट नेवी में भी नौकरी मिल रही थी, लेकिन देश सेवा का सपना लिए विक्रम ने इस नौकरी को ठुकरा दिया था. विज्ञान विषय में स्नातक करने के बाद विक्रम का चयन सीडीएस के जरिए सेना में हो गया था.

जुलाई 1996 में उन्होंने भारतीय सेना अकादमी देहरादून में प्रवेश लिया. दिसंबर 1997 में शिक्षा पूरी होने पर उन्हें 6 दिसंबर 1997 को जम्मू के सोपोर में सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली थी. 1999 में कमांडो ट्रेनिंग के साथ उन्होंने कई प्रशिक्षण भी लिए थे. 1 जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया था.

विक्रम बत्रा उस वक्त देश के रियल हीरो बन गए जब उन्होंने करगिल युद्ध के दौरान 5140 चोटी पर कब्जा करने के बाद 'ये दिल मांगे मोर' कहा. अगले दिन जब एक टीवी चैनल पर विक्रम बत्रा ने ये दिल मांगे मोर कहा तो मानो देश के युवाओं के रग-रग में जोश भर गया. करगिल पहुंचते वक्त विक्रम बत्रा लेफ्टिनेंट थे, लेकिन 5140 की चोटी से पाकिस्तानियों का सफाया करने के बाद उन्हें जंग के मैदान में ही कैप्टन प्रमोट किया गया.

चोटी 4875 पर मिशन के दौरान विक्रम बत्रा के एक साथी को गोली लग गई जो सीधा दुश्मनों की बंदूकों के निशाने पर था. घायल साथी को बचाते हुए ही दुश्मन की गोली कैप्टन विक्रम बत्रा को लग गई और करगिल जंग के उस सबसे बड़े नायक को शहादत नसीब हुई. 4875 की चोटी को भारतीय सेना ने फतह किया और इस चोटी को आज बत्रा टॉप के नाम से जानते हैं.

शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा के पिता जीएल बत्रा ने बताया कि सरकार ने अपने सभी वादों को पूरा किया है. शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा के पिता ने कहा कि महान स्वतंत्रता सेनानियों की कहानियां हमें किताबों में पढ़ने को मिलती हैं, लेकिन आजादी के बाद शहीद हुए जवानों की जीवनियां भी पाठ्यक्रम का हिस्सा होनी चाहिए. उन्होंने सरकार से अपील करते हुए कहा कि युवा पीढ़ी को देश प्रेम के प्रति जागरूक करने के लिए सरकार को वीर जवानों की जीवनियों को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना चाहिए.

ये भी पढ़ें: आज ही शहीद हुआ था करगिल का 'शेरशाह', जिसने जंग के मैदान में कहा था 'ये दिल मांगे मोर'

पालमपुर: कारगील युद्व के परमवीर चक्र विजेता शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा को कौन नहीं जानता. शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा को उनकी पुण्यतिथि पर आज उनके परिवार और पालमपुर प्रशासन ने श्रद्धांजलि अर्पित की. आज से ठीक 21 बरस पहले 7 जुलाई 1999 को करगिल की जंग के सबसे बड़े नायक ने सर्वोच्च बलिदान दिया था.

बता दें कि शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा का जन्म 9 सितंबर,1974 को हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में हुआ था. कैप्टन विक्रम बत्रा को कारगिल के शेरशाह नाम से भी जाना जता है. विक्रम बत्रा ने 18 साल की आयु में ही अपने नेत्र दान करने का निर्णय ले लिया था. वह नेत्र बैंक के कार्ड को हमेशा अपने पास रखते थे.

वीडियो रिपोर्ट.

शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा की मां कमलकांता की श्रीराम चरितमानस में गहरी श्रद्धा थी. जिसके चलते उन्होंने अपने दोनों जुड़वां बच्चों का नाम लव-कुश रखा था. लव यानी विक्रम और कुश यानी उनका भाई विशाल. विक्रम बत्रा की पढ़ाई पहले डीएवी स्कूल में हुई थी. उसके बाद उनका सेंट्रल स्कूल पालमपुर में दाखिला करवाया गया. सेना छावनी में स्कूल होने से सेना के अनुशासन को देखकर और अपने पिता से देश प्रेम की कहानियों को सुनकर विक्रम में बचपन से ही देश के प्रति प्रेम प्रबल हो गया था.

शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा सिर्फ पढ़ाई में ही अव्वल नहीं थे, बल्कि खेलों में भी उनकी खास रूचि थी. वह एक उम्दा खिलाड़ी होने के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भाग भी लिया करते थे.

जमा दो तक की पढ़ाई करने के बाद विक्रम चंडीगढ़ चले गए और डीएवी कॉलेज चंडीगढ़ में उन्होंने विज्ञान विषय में स्नातक की पढ़ाई शुरू कर दी. इसके साथ ही विक्रम ने सीडीएस की भी तैयारी शुरू कर दी थी. हालांकि विक्रम को इस दौरान हांगकांग में भारी वेतन में मर्चेन्ट नेवी में भी नौकरी मिल रही थी, लेकिन देश सेवा का सपना लिए विक्रम ने इस नौकरी को ठुकरा दिया था. विज्ञान विषय में स्नातक करने के बाद विक्रम का चयन सीडीएस के जरिए सेना में हो गया था.

जुलाई 1996 में उन्होंने भारतीय सेना अकादमी देहरादून में प्रवेश लिया. दिसंबर 1997 में शिक्षा पूरी होने पर उन्हें 6 दिसंबर 1997 को जम्मू के सोपोर में सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली थी. 1999 में कमांडो ट्रेनिंग के साथ उन्होंने कई प्रशिक्षण भी लिए थे. 1 जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया था.

विक्रम बत्रा उस वक्त देश के रियल हीरो बन गए जब उन्होंने करगिल युद्ध के दौरान 5140 चोटी पर कब्जा करने के बाद 'ये दिल मांगे मोर' कहा. अगले दिन जब एक टीवी चैनल पर विक्रम बत्रा ने ये दिल मांगे मोर कहा तो मानो देश के युवाओं के रग-रग में जोश भर गया. करगिल पहुंचते वक्त विक्रम बत्रा लेफ्टिनेंट थे, लेकिन 5140 की चोटी से पाकिस्तानियों का सफाया करने के बाद उन्हें जंग के मैदान में ही कैप्टन प्रमोट किया गया.

चोटी 4875 पर मिशन के दौरान विक्रम बत्रा के एक साथी को गोली लग गई जो सीधा दुश्मनों की बंदूकों के निशाने पर था. घायल साथी को बचाते हुए ही दुश्मन की गोली कैप्टन विक्रम बत्रा को लग गई और करगिल जंग के उस सबसे बड़े नायक को शहादत नसीब हुई. 4875 की चोटी को भारतीय सेना ने फतह किया और इस चोटी को आज बत्रा टॉप के नाम से जानते हैं.

शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा के पिता जीएल बत्रा ने बताया कि सरकार ने अपने सभी वादों को पूरा किया है. शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा के पिता ने कहा कि महान स्वतंत्रता सेनानियों की कहानियां हमें किताबों में पढ़ने को मिलती हैं, लेकिन आजादी के बाद शहीद हुए जवानों की जीवनियां भी पाठ्यक्रम का हिस्सा होनी चाहिए. उन्होंने सरकार से अपील करते हुए कहा कि युवा पीढ़ी को देश प्रेम के प्रति जागरूक करने के लिए सरकार को वीर जवानों की जीवनियों को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना चाहिए.

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