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हिमाचल में तीन कृषि कानून से अधिक बंदर और जंगली जानवरों ने किसानों की नाक में किया है दम - हिमाचल की लेटेस्ट खबरें

हिमाचल में बंदर और जंगली जानवर फलों तथा फसलों को 500 करोड़ रुपए का सालाना नुकसान पहुंचाते हैं. वर्ष 2015 के आंकड़े देखें तो बंदरों ने फसलों को 334.83 करोड़ का नुकसान पहुंचाया था. 2006 से 2014 तक बंदरों ने 2050 लोगों को घायल किया था. वन विभाग बंदरों के काटने पर मुआवजा देता है. एक दशक में विभाग ने जख्मी लोगों को 96.13 लाख रुपए मुआवजा दिया. प्रदेश में धार्मिक आस्था से किसान भी बंदरों को मारने से हिचकते रहे और पिछले तीन सालों में केवल पांच ही बंदर मारे गए.

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Published : Sep 14, 2021, 6:59 PM IST

Updated : Jan 4, 2022, 7:46 PM IST

शिमला: लंबे समय से देश में किसान तीन कृषि कानूनों और अपनी अन्य मांगों को लेकर आंदोलन की राह पर हैं. इधर, छोटे पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश की किसान और बागवान एक अलग ही समस्या से जूझ रहे हैं. देश के अन्य हिस्सों के किसान बेशक इस समस्या पर अधिक मुखर न हों, लेकिन हिमाचल के किसान फलों और फसलों को हो रहे नुकसान पर कई बार विधानसभा का भी घेराव कर चुके हैं. यह समस्या बंदरों और जंगली जानवरों को लेकर है. हिमाचल में हर साल बंदर और जंगली जानवर फलों तथा फसलों को 500 करोड़ रुपए का नुकसान पहुंचाते हैं.

सरकार ने बंदरों की बढ़ती समस्या को नियंत्रित करने के लिए अनेक उपाय किए, लेकिन कोई भी प्रयास किसानों के जख्मों पर मरहम नहीं रख पाया. हिमाचल सरकार ने बंदरों को पकड़ कर अलग स्थानों पर बसाने के लिए लाखों रुपए खर्च किए. बंदरों की नसबंदी पर भी करोड़ों रुपए खर्च किए गए. यही नहीं, सारी औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद हिमाचल सरकार ने केंद्र से प्रदेश की कई तहसीलों में फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले बंदरों व कुछ अन्य जानवरों को वर्मिन घोषित करवाया, लेकिन बात नहीं बनी. वर्मिन घोषित किए गए बंदरों व अन्य जानवरों को मारने के लिए सरकार ने हाथ खड़े कर दिए और उन्हें मारने का जिम्मा भी किसानों के सिर डाल दिया. धार्मिक आस्था से किसान भी बंदरों को मारने से हिचकते रहे और पिछले तीन सालों में केवल पांच ही बंदर मारे गए.

पूर्व आईएफएस ऑफिसर और हिमाचल सरकार के वन विभाग में उच्च अधिकारी रहे डॉक्टर केएस तंवर किसानों की लड़ाई लड़ते आ रहे हैं. सरकारी सेवा से वॉलेंटरी रिटायरमेंट लेकर हिमाचल किसान सभा को सक्रिय करने वाले डॉ. तंवर का मानना है कि केंद्र सरकार को बंदरों के निर्यात पर लगाए गए प्रतिबंध को हटाना चाहिए. इससे बंदरों की संख्या नियंत्रित रहेगी. वे किसान सभा के माध्यम से कई बार सरकार को सुझाव दे चुके हैं कि वनों में फलदार पौधे लगाए जाएं.

हालांकि, हिमाचल सरकार ने बंदरों को पकड़ने, उनकी नसबंदी करने के अलावा वानर वाटिका का कांसेप्ट भी लागू किया, लेकिन कोई भी प्रयास किसानों की समस्या को हल नहीं कर पाया. आलम यह है कि सिरमौर, सोलन, शिमला व कांगड़ा सहित मैदानी जिलों में कई किसानों ने खेती करना ही छोड़ दिया है. राज्य सरकार के वन मंत्री राकेश पठानिया के अनुसार सरकार बंदरों और जंगली जानवरों द्वारा फसलों को पहुंचाए जाने वाले नुकसान को लेकर चिंतित हैं और समय-समय पर क्षेत्र विशेष की परिस्थितियों के अनुसार फैसले भी लिए जा रहे हैं.

हिमाचल किसान सभा के अध्यक्ष डॉ. केएस तंवर के अनुसार लगातार कई वर्षों के आकलन से यह सामने आया है कि राज्य में बंदर और जंगली जानवर फलों तथा फसलों को 500 करोड़ रुपए का सालाना नुकसान पहुंचाते हैं. वर्ष 2015 के आंकड़े देखें तो बंदरों ने फसलों को 334.83 करोड़ का नुकसान पहुंचाया था. 2006 से 2014 तक बंदरों ने 2050 लोगों को घायल किया था. वन विभाग बंदरों के काटने पर मुआवजा देता है. एक दशक में विभाग ने जख्मी लोगों को 96.13 लाख रुपए मुआवजा दिया. सरकारी आंकड़ों के अनुसार बंदर व जंगली जानवर फलों और फसलों को 350 करोड़ का नुकसान पहुंचाते हैं, लेकिन किसान सभा का कहना है कि इनके आतंक के कारण किसानों की खेती पर लागत को भी जोड़ा जाना चाहिए. इस तरह यह नुकसान सालाना 500 करोड़ रुपए ठहरता है.

किसानों के दबाव में राज्य सरकार ने प्रयास करके प्रस्ताव भेजा और बड़ी मुश्किल से केंद्र सरकार ने बंदरों को वर्मिन (इन्सान व खेती के लिए नुकसानदायक) घोषित किया. किसानों के मन में उम्मीद जगी थी कि राज्य का वन्य प्राणी विंग वर्मिन बंदरों को वैज्ञानिक तरीके से मारकर ठिकाने लगाएगा, लेकिन वन्य प्राणी विभाग ने अपने हाथ पीछे खींच लिए. प्रभावित किसानों को ही फसलों के लिए खतरनाक साबित हो रहे बंदरों को मारने के लिए कहा गया. यही नहीं तब सरकार ने किसानों को ट्रेंड शूटर मुहैया करवाने से मना कर दिया था. दो साल पहले इस सिलसिले में वन विभाग ने प्रोटोकॉल जारी किया था. केंद्र की अधिसूचना के अनुसार हिमाचल की बंदरों व जंगली जानवरों से बुरी तरह से प्रभावित 38 तहसीलों में बंदरों को वर्मिन घोषित कर केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने यहां खतरनाक साबित हो रहे बंदरों को मारने की इजाजत दे दी थी. साथ ही सुप्रीम कोर्ट का फैसला किसानों के पक्ष में था. बाकी जिम्मेदारी राज्य सरकार की थी, लेकिन सरकार इससे पीछे हट गई थी. राज्य सरकार बंदरों को मारने का प्रोटोकॉल ही तय नहीं कर पाई. बाद में प्रोटोकॉल तो जारी हो गया, लेकिन वन विभाग ने अपनी जिम्मेवारी से मुंह मोड़ लिया. तय किया गया कि प्रभावित घोषित की गई तहसीलों में किसान खुद ही बंदरों को मारेंगे और वन्य प्राणी विंग केवल किसानों को रेस्क्यू टीम मुहैया करवाएगा, शूटर नहीं. और तो और वन्य प्राणी विंग ने किसानों को बंदर मारने के लिए जरूरी हथियार भी नहीं दिए.

हिमाचल प्रदेश में लगभग सभी जिलों के किसान बंदरों के आतंक से त्रस्त हैं. ताजा सर्वे के अनुसार प्रदेश में पौने चार लाख के करीब बंदर हैं. दो दशक से बंदर फसलों का नुकसान कर रहे हैं. हालत यह है कि शिमला, सोलन व सिरमौर की कई पंचायतों में तो जमीन बंजर तक हो गई है. किसानों ने मकई व अन्य फसलें बीजना छोड़ दी है. हिमाचल के किसान केंद्र व राज्य सरकारों से इससे पहले बंदरों की साइंटिफिक कलिंग (सीयूएलएलआईएनजी) करने का आग्रह किया था. परिणामस्वरूप हिमाचल में वर्ष 2006-07 में नौहराधार और सोलन में बंदर मारने के लिए ऑपरेशन साइंटिफिक कलिंग हो चुके हैं. इनके नतीजे बेहतर आए थे. इन इलाकों में बंदरों के हाथों फसलों की तबाही पर अंकुश लगा था. तभी पशु प्रेमी संगठनों ने इस मसले को उठाया. मामला अदालत में पहुंचा और बाद में हाईकोर्ट ने बंदरों के मारने पर रोक लगाई थी. फिलहाल बाद में यह रोक भी हट गई थी, लेकिन वन्य प्राणी विभाग ने वर्मिन घोषित तहसीलों में बंदरों को मारने से हाथ खींच लिए थे.


हिमाचल में बंदरों की बढ़ती संख्या और उनके उत्पात से निपटने के लिए वन विभाग ने बंदरों को पकड़ने का सिलसिला शुरू किया था. एक बंदर पकड़ने पर वन विभाग पांच सौ रुपए देता आया है. बंदरों की संख्या नियंत्रित रहे, इसके लिए पकड़े गए बंदरों की नसबंदी की जाती थी. सरकार का यह प्रयास भी खास कारगर साबित नहीं हुआ. हालत यह हुई कि बंदरों का उत्पात तो घटा नहीं, उल्टा बंदर पकड़ने वाले लखपति हो गए. हिमाचल के बंदर पकड़ कर हरियाणा के बदरुद्दीन नामक शख्स ने सात साल में 36 लाख रुपए कमा लिए. यही नहीं, सात साल में वन विभाग ने 3.22 करोड़ रुपए बंदर पकड़ने वालों को दिए. पिछले आंकड़ों के अनुसार हरियाणा के बदरुद्दीन नामक शख्स ने हिमाचल के तीन फारेस्ट सर्किल में बंदर पकड़े. हिमाचल में पिछले समय में कुल मिलाकर 94334 बंदरों को पकड़ कर उनकी नसबंदी की गई, लेकिन स्थिति में खास सुधार नहीं आया. पूर्व में प्रेम कुमार धूमल के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने 2011 के अक्टूबर माह में फैसला किया था कि बंदर पकड़ने पर पांच सौ रुपए मिलेंगे. उसके बाद सात साल की अवधि में हिमाचल में कुल 336 लोगों ने बंदर पकड़ने का काम किया.

ये भी पढ़ें: टक्का बैंच के साथ सटे बुक कैफे में दो सालों से लगे ताले जल्द खुलेंगे, नगर निगम दोबारा से करेगा टेंडर

हिमाचल को दो तिहाई पंचायतों में स्थिति बदहाल हिमाचल में कुल 3374 पंचायतें हैं. इनमें से दो तिहाई पंचायतों में बंदर फसलों को नुकसान पहुंचा रहे हैं. किसान संगठन इस मसले पर दो दशक से भी अधिक समय से आंदोलन कर रहे हैं. हिमाचल किसान सभा के राज्य अध्यक्ष डॉ. कुलदीप सिंह तंवर के अनुसार कई भी सरकार किसानों का दर्द नहीं समझ रही. इसके पीछे राज्य की वन नीति भी जिम्मेदार है. जंगलों में फलदार पौधे लगाने से भी इसका सार्थक हल निकल सकता है. हालांकि, राज्य सरकार का वन वाटिका प्रोजेक्ट भी खास सफल नहीं हुआ. सरकार चाहे कांग्रेस की रही हो या भाजपा की किसानों और बागवानों की समस्या का समाधान किसी से भी नहीं निकला. वर्ष 2019 में मौजूदा सरकार के तत्कालीन वन मंत्री गोविंद सिंह ठाकुर ने बताया था कि हिमाचल में 1 लाख 57 हजार बंदरों की नसबंदी की गई. प्रदेश में 548 पंचायतें ऐसी थी जहां बंदरों की समस्या अधिक थी. राज्य सरकार के वन विभाग ने बंदरों के लिहाज से हॉट-स्पॉट की पहचान करने का अभियान चलाया था तब प्रदेश में 1100 मंकी हॉट-स्पॉट चिन्हित किए गए थे.


हिमाचल के किसान यह मांग करते आए हैं कि बंदरों के निर्यात पर लगा प्रतिबंध हटाया जाए. देश में 1978 में बंदरों के निर्यात पर प्रतिबंध लगाया गया था. उससे पहले भारत हर साल विदेशों को 60 हजार बंदर निर्यात करता था. पशु प्रेमी संगठनों के हस्तक्षेप से निर्यात पर प्रतिबंध लगा था. हालांकि, राज्य सरकार का दावा है कि प्रदेश में केवल पौने तीन लाख बंदर हैं, लेकिन किसान सभा का मानना है कि इनकी संख्या 6 लाख से अधिक है. हिमाचल सरकार ने पांच साल पहले यह प्रयास भी किया था कि प्रदेश से बंदरों को नागालैंड, मणिपुर व मिजोरम भेजा जाए. इस पर सहमति भी बन गई थी, लेकिन यह अभियान भी सिरे नहीं चढ़ा.

हिमाचल में वर्ष 2007 में बंदरों की नसबंदी शुरू हुई थी, लेकिन इनकी संख्या नियंत्रित नहीं हुई. सिरमौर जिला के राजगढ़ में किसानों के आंदोलन की अगुवाई करने वाले रमेश कुमार का कहना है कि किसान बंदरों से निपटने के लिए जो भी उपाय करते हैं, बंदर उसकी काट निकाल लेते हैं. और तो और करंट वाली तारों को भी बंदर लकड़ी से छूकर देख लेते हैं, और फिर खेत के नजदीक नहीं आते. यदि, खेत के कुछ हिस्से में फसल पर हल्का जहरीला पदार्थ छिड़क दिया जाए तो बंदर उस फसल को तोड़कर पानी से धो-धो कर खा जाते हैं.


वर्ष 2016 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार के दौरान हजारों किसानों और बागवानों ने विधानसभा का घेराव किया था और सरकार से इनके आतंक से निजात दिलाने की मांग की थी. इसके अलावा पंचायत चुनावों और विधानसभा चुनावों में किसानों का यह मुद्दा उभरता रहा है. राज्य में 80 फीसदी लोग खेती बागवानी से जुड़े हैं. यहां 10 लाख परिवार खेती और 4 लाख परिवार बागवानी से जुड़े हैं. प्रदेश में बेशक किसान 3 कृषि कानूनों को लेकर अधिक मुखर ना हों, लेकिन बंदरों और जंगली जानवरों के आतंक से जरूर परेशान हैं. यह जानना भी रोचक है कि विधानसभा चुनाव में किसानों की यह समस्या भाजपा और कांग्रेस के घोषणापत्र का हिस्सा रह चुकी है.

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शिमला: लंबे समय से देश में किसान तीन कृषि कानूनों और अपनी अन्य मांगों को लेकर आंदोलन की राह पर हैं. इधर, छोटे पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश की किसान और बागवान एक अलग ही समस्या से जूझ रहे हैं. देश के अन्य हिस्सों के किसान बेशक इस समस्या पर अधिक मुखर न हों, लेकिन हिमाचल के किसान फलों और फसलों को हो रहे नुकसान पर कई बार विधानसभा का भी घेराव कर चुके हैं. यह समस्या बंदरों और जंगली जानवरों को लेकर है. हिमाचल में हर साल बंदर और जंगली जानवर फलों तथा फसलों को 500 करोड़ रुपए का नुकसान पहुंचाते हैं.

सरकार ने बंदरों की बढ़ती समस्या को नियंत्रित करने के लिए अनेक उपाय किए, लेकिन कोई भी प्रयास किसानों के जख्मों पर मरहम नहीं रख पाया. हिमाचल सरकार ने बंदरों को पकड़ कर अलग स्थानों पर बसाने के लिए लाखों रुपए खर्च किए. बंदरों की नसबंदी पर भी करोड़ों रुपए खर्च किए गए. यही नहीं, सारी औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद हिमाचल सरकार ने केंद्र से प्रदेश की कई तहसीलों में फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले बंदरों व कुछ अन्य जानवरों को वर्मिन घोषित करवाया, लेकिन बात नहीं बनी. वर्मिन घोषित किए गए बंदरों व अन्य जानवरों को मारने के लिए सरकार ने हाथ खड़े कर दिए और उन्हें मारने का जिम्मा भी किसानों के सिर डाल दिया. धार्मिक आस्था से किसान भी बंदरों को मारने से हिचकते रहे और पिछले तीन सालों में केवल पांच ही बंदर मारे गए.

पूर्व आईएफएस ऑफिसर और हिमाचल सरकार के वन विभाग में उच्च अधिकारी रहे डॉक्टर केएस तंवर किसानों की लड़ाई लड़ते आ रहे हैं. सरकारी सेवा से वॉलेंटरी रिटायरमेंट लेकर हिमाचल किसान सभा को सक्रिय करने वाले डॉ. तंवर का मानना है कि केंद्र सरकार को बंदरों के निर्यात पर लगाए गए प्रतिबंध को हटाना चाहिए. इससे बंदरों की संख्या नियंत्रित रहेगी. वे किसान सभा के माध्यम से कई बार सरकार को सुझाव दे चुके हैं कि वनों में फलदार पौधे लगाए जाएं.

हालांकि, हिमाचल सरकार ने बंदरों को पकड़ने, उनकी नसबंदी करने के अलावा वानर वाटिका का कांसेप्ट भी लागू किया, लेकिन कोई भी प्रयास किसानों की समस्या को हल नहीं कर पाया. आलम यह है कि सिरमौर, सोलन, शिमला व कांगड़ा सहित मैदानी जिलों में कई किसानों ने खेती करना ही छोड़ दिया है. राज्य सरकार के वन मंत्री राकेश पठानिया के अनुसार सरकार बंदरों और जंगली जानवरों द्वारा फसलों को पहुंचाए जाने वाले नुकसान को लेकर चिंतित हैं और समय-समय पर क्षेत्र विशेष की परिस्थितियों के अनुसार फैसले भी लिए जा रहे हैं.

हिमाचल किसान सभा के अध्यक्ष डॉ. केएस तंवर के अनुसार लगातार कई वर्षों के आकलन से यह सामने आया है कि राज्य में बंदर और जंगली जानवर फलों तथा फसलों को 500 करोड़ रुपए का सालाना नुकसान पहुंचाते हैं. वर्ष 2015 के आंकड़े देखें तो बंदरों ने फसलों को 334.83 करोड़ का नुकसान पहुंचाया था. 2006 से 2014 तक बंदरों ने 2050 लोगों को घायल किया था. वन विभाग बंदरों के काटने पर मुआवजा देता है. एक दशक में विभाग ने जख्मी लोगों को 96.13 लाख रुपए मुआवजा दिया. सरकारी आंकड़ों के अनुसार बंदर व जंगली जानवर फलों और फसलों को 350 करोड़ का नुकसान पहुंचाते हैं, लेकिन किसान सभा का कहना है कि इनके आतंक के कारण किसानों की खेती पर लागत को भी जोड़ा जाना चाहिए. इस तरह यह नुकसान सालाना 500 करोड़ रुपए ठहरता है.

किसानों के दबाव में राज्य सरकार ने प्रयास करके प्रस्ताव भेजा और बड़ी मुश्किल से केंद्र सरकार ने बंदरों को वर्मिन (इन्सान व खेती के लिए नुकसानदायक) घोषित किया. किसानों के मन में उम्मीद जगी थी कि राज्य का वन्य प्राणी विंग वर्मिन बंदरों को वैज्ञानिक तरीके से मारकर ठिकाने लगाएगा, लेकिन वन्य प्राणी विभाग ने अपने हाथ पीछे खींच लिए. प्रभावित किसानों को ही फसलों के लिए खतरनाक साबित हो रहे बंदरों को मारने के लिए कहा गया. यही नहीं तब सरकार ने किसानों को ट्रेंड शूटर मुहैया करवाने से मना कर दिया था. दो साल पहले इस सिलसिले में वन विभाग ने प्रोटोकॉल जारी किया था. केंद्र की अधिसूचना के अनुसार हिमाचल की बंदरों व जंगली जानवरों से बुरी तरह से प्रभावित 38 तहसीलों में बंदरों को वर्मिन घोषित कर केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने यहां खतरनाक साबित हो रहे बंदरों को मारने की इजाजत दे दी थी. साथ ही सुप्रीम कोर्ट का फैसला किसानों के पक्ष में था. बाकी जिम्मेदारी राज्य सरकार की थी, लेकिन सरकार इससे पीछे हट गई थी. राज्य सरकार बंदरों को मारने का प्रोटोकॉल ही तय नहीं कर पाई. बाद में प्रोटोकॉल तो जारी हो गया, लेकिन वन विभाग ने अपनी जिम्मेवारी से मुंह मोड़ लिया. तय किया गया कि प्रभावित घोषित की गई तहसीलों में किसान खुद ही बंदरों को मारेंगे और वन्य प्राणी विंग केवल किसानों को रेस्क्यू टीम मुहैया करवाएगा, शूटर नहीं. और तो और वन्य प्राणी विंग ने किसानों को बंदर मारने के लिए जरूरी हथियार भी नहीं दिए.

हिमाचल प्रदेश में लगभग सभी जिलों के किसान बंदरों के आतंक से त्रस्त हैं. ताजा सर्वे के अनुसार प्रदेश में पौने चार लाख के करीब बंदर हैं. दो दशक से बंदर फसलों का नुकसान कर रहे हैं. हालत यह है कि शिमला, सोलन व सिरमौर की कई पंचायतों में तो जमीन बंजर तक हो गई है. किसानों ने मकई व अन्य फसलें बीजना छोड़ दी है. हिमाचल के किसान केंद्र व राज्य सरकारों से इससे पहले बंदरों की साइंटिफिक कलिंग (सीयूएलएलआईएनजी) करने का आग्रह किया था. परिणामस्वरूप हिमाचल में वर्ष 2006-07 में नौहराधार और सोलन में बंदर मारने के लिए ऑपरेशन साइंटिफिक कलिंग हो चुके हैं. इनके नतीजे बेहतर आए थे. इन इलाकों में बंदरों के हाथों फसलों की तबाही पर अंकुश लगा था. तभी पशु प्रेमी संगठनों ने इस मसले को उठाया. मामला अदालत में पहुंचा और बाद में हाईकोर्ट ने बंदरों के मारने पर रोक लगाई थी. फिलहाल बाद में यह रोक भी हट गई थी, लेकिन वन्य प्राणी विभाग ने वर्मिन घोषित तहसीलों में बंदरों को मारने से हाथ खींच लिए थे.


हिमाचल में बंदरों की बढ़ती संख्या और उनके उत्पात से निपटने के लिए वन विभाग ने बंदरों को पकड़ने का सिलसिला शुरू किया था. एक बंदर पकड़ने पर वन विभाग पांच सौ रुपए देता आया है. बंदरों की संख्या नियंत्रित रहे, इसके लिए पकड़े गए बंदरों की नसबंदी की जाती थी. सरकार का यह प्रयास भी खास कारगर साबित नहीं हुआ. हालत यह हुई कि बंदरों का उत्पात तो घटा नहीं, उल्टा बंदर पकड़ने वाले लखपति हो गए. हिमाचल के बंदर पकड़ कर हरियाणा के बदरुद्दीन नामक शख्स ने सात साल में 36 लाख रुपए कमा लिए. यही नहीं, सात साल में वन विभाग ने 3.22 करोड़ रुपए बंदर पकड़ने वालों को दिए. पिछले आंकड़ों के अनुसार हरियाणा के बदरुद्दीन नामक शख्स ने हिमाचल के तीन फारेस्ट सर्किल में बंदर पकड़े. हिमाचल में पिछले समय में कुल मिलाकर 94334 बंदरों को पकड़ कर उनकी नसबंदी की गई, लेकिन स्थिति में खास सुधार नहीं आया. पूर्व में प्रेम कुमार धूमल के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने 2011 के अक्टूबर माह में फैसला किया था कि बंदर पकड़ने पर पांच सौ रुपए मिलेंगे. उसके बाद सात साल की अवधि में हिमाचल में कुल 336 लोगों ने बंदर पकड़ने का काम किया.

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हिमाचल को दो तिहाई पंचायतों में स्थिति बदहाल हिमाचल में कुल 3374 पंचायतें हैं. इनमें से दो तिहाई पंचायतों में बंदर फसलों को नुकसान पहुंचा रहे हैं. किसान संगठन इस मसले पर दो दशक से भी अधिक समय से आंदोलन कर रहे हैं. हिमाचल किसान सभा के राज्य अध्यक्ष डॉ. कुलदीप सिंह तंवर के अनुसार कई भी सरकार किसानों का दर्द नहीं समझ रही. इसके पीछे राज्य की वन नीति भी जिम्मेदार है. जंगलों में फलदार पौधे लगाने से भी इसका सार्थक हल निकल सकता है. हालांकि, राज्य सरकार का वन वाटिका प्रोजेक्ट भी खास सफल नहीं हुआ. सरकार चाहे कांग्रेस की रही हो या भाजपा की किसानों और बागवानों की समस्या का समाधान किसी से भी नहीं निकला. वर्ष 2019 में मौजूदा सरकार के तत्कालीन वन मंत्री गोविंद सिंह ठाकुर ने बताया था कि हिमाचल में 1 लाख 57 हजार बंदरों की नसबंदी की गई. प्रदेश में 548 पंचायतें ऐसी थी जहां बंदरों की समस्या अधिक थी. राज्य सरकार के वन विभाग ने बंदरों के लिहाज से हॉट-स्पॉट की पहचान करने का अभियान चलाया था तब प्रदेश में 1100 मंकी हॉट-स्पॉट चिन्हित किए गए थे.


हिमाचल के किसान यह मांग करते आए हैं कि बंदरों के निर्यात पर लगा प्रतिबंध हटाया जाए. देश में 1978 में बंदरों के निर्यात पर प्रतिबंध लगाया गया था. उससे पहले भारत हर साल विदेशों को 60 हजार बंदर निर्यात करता था. पशु प्रेमी संगठनों के हस्तक्षेप से निर्यात पर प्रतिबंध लगा था. हालांकि, राज्य सरकार का दावा है कि प्रदेश में केवल पौने तीन लाख बंदर हैं, लेकिन किसान सभा का मानना है कि इनकी संख्या 6 लाख से अधिक है. हिमाचल सरकार ने पांच साल पहले यह प्रयास भी किया था कि प्रदेश से बंदरों को नागालैंड, मणिपुर व मिजोरम भेजा जाए. इस पर सहमति भी बन गई थी, लेकिन यह अभियान भी सिरे नहीं चढ़ा.

हिमाचल में वर्ष 2007 में बंदरों की नसबंदी शुरू हुई थी, लेकिन इनकी संख्या नियंत्रित नहीं हुई. सिरमौर जिला के राजगढ़ में किसानों के आंदोलन की अगुवाई करने वाले रमेश कुमार का कहना है कि किसान बंदरों से निपटने के लिए जो भी उपाय करते हैं, बंदर उसकी काट निकाल लेते हैं. और तो और करंट वाली तारों को भी बंदर लकड़ी से छूकर देख लेते हैं, और फिर खेत के नजदीक नहीं आते. यदि, खेत के कुछ हिस्से में फसल पर हल्का जहरीला पदार्थ छिड़क दिया जाए तो बंदर उस फसल को तोड़कर पानी से धो-धो कर खा जाते हैं.


वर्ष 2016 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार के दौरान हजारों किसानों और बागवानों ने विधानसभा का घेराव किया था और सरकार से इनके आतंक से निजात दिलाने की मांग की थी. इसके अलावा पंचायत चुनावों और विधानसभा चुनावों में किसानों का यह मुद्दा उभरता रहा है. राज्य में 80 फीसदी लोग खेती बागवानी से जुड़े हैं. यहां 10 लाख परिवार खेती और 4 लाख परिवार बागवानी से जुड़े हैं. प्रदेश में बेशक किसान 3 कृषि कानूनों को लेकर अधिक मुखर ना हों, लेकिन बंदरों और जंगली जानवरों के आतंक से जरूर परेशान हैं. यह जानना भी रोचक है कि विधानसभा चुनाव में किसानों की यह समस्या भाजपा और कांग्रेस के घोषणापत्र का हिस्सा रह चुकी है.

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Last Updated : Jan 4, 2022, 7:46 PM IST
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