शिमला: प्रदेश सरकार जलवायु से होने वाले खतरों को कम करने और जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न हुए खतरों को समझने के लिए दक्षता से कार्य कर रही है. प्रदेश सरकार ने जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने और अनुसंधान के लिए विज्ञान प्रौद्योगिकी एवं पर्यावरण राज्य परिषद के तहत जलवायु परिवर्तन के लिए राज्य केंद्र स्थापित किया है.
पर्यावरण विज्ञान और प्रौद्योगिकी सचिव रजनीश ने बताया कि विभाग हिमालय में बर्फ पिघलने के कारण बनी सभी ग्लेशियर झीलों की मैपिंग करने की कार्य योजना बना रहा है. इन झीलों में काफी मात्रा में पानी होने के कारण यह भविष्य में नुकसानदेह साबित हो सकती हैं. उन्होंने कहा कि 2014 में भारी बारिश के साथ चोराबरी ग्लेशियर के आगे बनी छोटी-सी झील के फटने के कारण केदारनाथ जैसी त्रासदी हुई थी.
केंद्र सरकार बाढ़ की घटनाओं को समझने के लिए ग्लेशियर झीलों की नियमित निगरानी कर रही है. हिमाचल प्रदेश में भी अज्ञात कारणों से बाढ़ की स्थितियां उत्पन्न होती रहती हैं. सतलुज घाटी में वर्ष 2000 में भारी बाढ़ आई थी जिससे 800 करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान हुआ था. यह घटना बादल फटने या ग्लेशियर झील के फटने से हुई थी. विशेषज्ञों को बाढ़ के कारण ज्ञात नहीं थे.
ऊंचाई वाले क्षेत्रों में भूस्खलन से पारछू जैसी झील बनने से निचले क्षेत्रों में जल बहाव से भारी नुकसान का खतरा पैदा हो गया था. जलवायु परिवर्तन से केंद्र ने 2019 में किए गए शोध के आधार पर वर्ष 2019 में सतलुज बेसिन में 562 झीलों की उपस्थिति दर्ज की गई है जिनमें से लगभग 81 प्रतिशत (458) झीलें 5 हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल की हैं, 9 प्रतिशत (53) झीलें 5 से 10 हेक्टेयर क्षेत्रफल और 9 प्रतिशत (51) झीलें 10 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल की हैं.
चिनाब घाटी जिसमें चंद्रा भागा और मियार सब बेसिन हैं इसमें करीब 242 झीलें हैं. चंद्रा में 52, भागा में 84 और मियार सब बेसिन में 139 झीलें हैं. ब्यास घाटी जिसमें ऊपरी ब्यास, जीवा, पार्वती घाटियां सम्मिलित हैं, इनमें 93 झीलें हैं. ऊपरी ब्यास में 12, जीवा में 41 और पार्वती सब बेसिन में 37 झीलें हैं. वर्ष 2018 की तुलना में 2019 में लगभग 43 प्रतिशत वृद्धि के संकेत है.
हिमाचल प्रदेश में हिमालय क्षेत्र और इसके साथ लगते तिब्बितयन हिमालय क्षेत्र के ऊंचे क्षेत्रों में झील बनने की प्रवृत्ति में तेजी आई है. सदस्य सचिव हिमकोस्ट व निदेशक एवं विशेष सचिव राजस्व और आपदा प्रबंधन डी.सी. राणा ने बताया कि ऊपरी हिमालय क्षेत्र में झील बनने की घटनाओं पर परंपरागत तरीकों से नजर रखना संभव नहीं है. इसलिए इन क्षेत्रों में जांच के लिए स्पेस तकनीक बहुत ही उपयोगी और सहायक सिद्ध हुई है.
डी.सी. राणा ने बताया कि 10 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र और 5 से 10 हेक्टेयर क्षेत्र की झीलों को नुकसान के दृष्टिगत संवेदनशील क्षेत्र के रूप में देखा जाता है. इनके फटने की स्थिति के मद्येनजर राज्य के हिमालय क्षेत्र में पर्याप्त निगरानी और परिवर्तन विश्लेषण आवश्यक है ताकि हिमाचल प्रदेश में भविष्य में ऐसी किसी भी घटना को रोक कर बहुमूल्य जीवन व संपदा को बचाया जा सके.