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कुल्लू दशहरा में इस बार न व्यापार न पर्यटन और न ही मनोरंजन, छाया रहा तो बस सन्नाटा

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Published : Oct 31, 2020, 7:42 PM IST

प्रदेश में ग्रामीण स्तर से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाए जाने वाले उत्सवों में कुल्लू दशहरा उत्सव ने जो ख्याति अर्जित की है. वहीं, इस बार दशहरा में न तो व्यापार, न लोगों के मनोरंजन था तो तो बस चारों ओर सन्नाटा रहा.

This year Kullu Dussehra celebrated without trades and entertainment
ठाकुर निकालना रथयात्रा

कुल्लूः देवताओं की गोद में बसा कुल्लू अपनी देव संस्कृति के लिहाज से विश्व प्रसिद्ध है. प्रदेश में ग्रामीण स्तर से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाए जाने वाले उत्सवों में कुल्लू दशहरा ने जो ख्याति अर्जित की है. बह इस बार कोरोना के चलते देखने को नहीं मिली.

इस बार कुल्लू दशहरा में न तो व्यपार, न लोगों के मनोरंजन था. इस बार था तो बस चारों ओर सन्नाटा. व्यापार की दृष्टि से न तो इस बार व्यापारी आ पाए हैं. लाल चंद प्रार्थी कलाकेंद्र में लोगों का मनोरंजन करने के लिए पूरे विश्व के कलाकार पहुंचते थे, लेकिन इस बार कोरोना के चलते मनोरंजन के कोई कार्यक्रम आयोजित नहीं किए गए.

दशहरा उत्सव में गीत-संगीत यानि सांस्कृतिक कार्यक्रमों का पक्ष इतना मजबूत और आकर्षक होता था कि लोग उत्सुकता, बेसब्री व तन्मयता से सांस्कृतिक कार्यक्रमों का इंतजार करते थे. दशहरा उत्सव के मुख्यत: तीन भाग ठाकुर निकालना, मोहल्ला और लंका दहन है. दशहरे के शुरू में राजाओं के वंशजों की ओर से देवी हिडिंबा की पूजा-अर्चना की जाती है.

इसके अलावा राजमहल से रघुनाथ की सवारी रथ मैदान ढालपुर की ओर निकल पड़ती है. राजमहल से रथ मैदान तक की शोभा यात्रा का दृश्य अनुपम व मनमोहक होता है. ढालपुर रथ मैदान में रघुनाथ की प्रतिमा को सुसज्जित रथ में रखा जाता है.

प्रत्येक देवी-देवता की पालकी के साथ ग्रामवासी पारंपरिक वाद्य यंत्रों सहित उपस्थित होते हैं. इन वाद्य यंत्रों की लयबद्ध ध्वनि व जयघोष से वातावरण में रघुनाथ की प्रतिमा रखे रथ को विशाल जनसमूह की ओर से खींचकर ढालपुर मैदान के मध्य तक लाया जाता है, जहां पूर्व में स्थापित शिविर में रघुनाथ जी की प्रतिमा रखी जाती है, लेकिन इस बार सिर्फ परंपरा का ही निर्वाहन सीमित तौर पर किया गया. रघुनाथ की इस रथयात्रा को ठाकुर निकालना कहते हैं.

रथयात्रा के साथ कुल्लवी परंपराओं, मान्यताओं, देवसंस्कृति, पारंपरिक वेशभूषा, वाद्य यंत्रों की धुनों, देवी-देवताओं में आस्था, श्रद्धा व उल्लास का एक अनूठा संगम होता है. मोहल्ले के नाम से प्रख्यात दशहरे के छठे दिन सभी देवी-देवता रघुनाथ के शिविर में शीश नवाकर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं. इस दौरान देवी-देवता आपस में इस कद्र मिलते हैं कि मानों मानव को आपसी प्रेम का संदेश दे रहे हों.

दशहरा उत्सव के अंतिम दिन शिविर में से रघुनाथ की मूर्ति को निकालकर रथ में रखा जाता है. इस रथ को खींचकर मैदान के अंतिम छोर तक लाया जाता है. दशहरे में उपस्थित देवी-देवता इस यात्रा में शरीक होते हैं.

लंका दहन समाप्ति -

इसके साथ लंका दहन की समाप्ति हो जाती है. रघुनाथ की पालकी को वापस मंदिर लाया जाता है और देवी-देवता भी अपने-अपने गांव के लिए प्रस्थान करते रहे हैं. ठाकुर निकलने से लंका दहन तक की अवधि में पर्यटकों के लिए एक विशेष आकर्षण रहता था जो अब कोरोना की जकड़ में हैं.

व्यापार व पर्यटन पर रहीं रोक-

इस दौरान लोगों को यहां की भाषा, वेशभूषा, देव परंपराओं और सभ्यता से रूबरू होने का मौका मिलता है. स्थानीय उत्पाद विशेष रूप से कुल्लू की शॉल, टोपियां आदि खरीदने का अवसर भी प्राप्त होता था, लेकिन इस बार व्यापार पर पूर्ण प्रतिबंध रहा.

प्रदर्शिनयां जहां बड़ों को संतुष्ट करती हैं, वहीं छोटे मासूम बच्चों के लिए आश्चर्य से भरे कई सवाल छोड़ जाती थी. इसका मुख्य और सबसे आकर्षक गहना है, यहां आई असंख्य देवी-देवताओं की पालकियां जो मैदान में बने शिविरों में रखी जाती थी. सुबह व संध्या के समय जब देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना होती थी तो वातावरण भक्ति भाव से भर जाता था और लगता था.

लेकिन इस बार इस जनता के दर्शन दुर्लभ है. इस समय कुल्लू घाटी में देव परंपराओं के जीवित होने का प्रत्यक्ष प्रमाण देखने को मिलता रहा है. लोगों में अपने अराध्य देव के प्रतिविश्वास व श्रद्धा सागर में उठने वाली लहरों के मानिंद साफ दिखाई देता था.

कुल्लूः देवताओं की गोद में बसा कुल्लू अपनी देव संस्कृति के लिहाज से विश्व प्रसिद्ध है. प्रदेश में ग्रामीण स्तर से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाए जाने वाले उत्सवों में कुल्लू दशहरा ने जो ख्याति अर्जित की है. बह इस बार कोरोना के चलते देखने को नहीं मिली.

इस बार कुल्लू दशहरा में न तो व्यपार, न लोगों के मनोरंजन था. इस बार था तो बस चारों ओर सन्नाटा. व्यापार की दृष्टि से न तो इस बार व्यापारी आ पाए हैं. लाल चंद प्रार्थी कलाकेंद्र में लोगों का मनोरंजन करने के लिए पूरे विश्व के कलाकार पहुंचते थे, लेकिन इस बार कोरोना के चलते मनोरंजन के कोई कार्यक्रम आयोजित नहीं किए गए.

दशहरा उत्सव में गीत-संगीत यानि सांस्कृतिक कार्यक्रमों का पक्ष इतना मजबूत और आकर्षक होता था कि लोग उत्सुकता, बेसब्री व तन्मयता से सांस्कृतिक कार्यक्रमों का इंतजार करते थे. दशहरा उत्सव के मुख्यत: तीन भाग ठाकुर निकालना, मोहल्ला और लंका दहन है. दशहरे के शुरू में राजाओं के वंशजों की ओर से देवी हिडिंबा की पूजा-अर्चना की जाती है.

इसके अलावा राजमहल से रघुनाथ की सवारी रथ मैदान ढालपुर की ओर निकल पड़ती है. राजमहल से रथ मैदान तक की शोभा यात्रा का दृश्य अनुपम व मनमोहक होता है. ढालपुर रथ मैदान में रघुनाथ की प्रतिमा को सुसज्जित रथ में रखा जाता है.

प्रत्येक देवी-देवता की पालकी के साथ ग्रामवासी पारंपरिक वाद्य यंत्रों सहित उपस्थित होते हैं. इन वाद्य यंत्रों की लयबद्ध ध्वनि व जयघोष से वातावरण में रघुनाथ की प्रतिमा रखे रथ को विशाल जनसमूह की ओर से खींचकर ढालपुर मैदान के मध्य तक लाया जाता है, जहां पूर्व में स्थापित शिविर में रघुनाथ जी की प्रतिमा रखी जाती है, लेकिन इस बार सिर्फ परंपरा का ही निर्वाहन सीमित तौर पर किया गया. रघुनाथ की इस रथयात्रा को ठाकुर निकालना कहते हैं.

रथयात्रा के साथ कुल्लवी परंपराओं, मान्यताओं, देवसंस्कृति, पारंपरिक वेशभूषा, वाद्य यंत्रों की धुनों, देवी-देवताओं में आस्था, श्रद्धा व उल्लास का एक अनूठा संगम होता है. मोहल्ले के नाम से प्रख्यात दशहरे के छठे दिन सभी देवी-देवता रघुनाथ के शिविर में शीश नवाकर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं. इस दौरान देवी-देवता आपस में इस कद्र मिलते हैं कि मानों मानव को आपसी प्रेम का संदेश दे रहे हों.

दशहरा उत्सव के अंतिम दिन शिविर में से रघुनाथ की मूर्ति को निकालकर रथ में रखा जाता है. इस रथ को खींचकर मैदान के अंतिम छोर तक लाया जाता है. दशहरे में उपस्थित देवी-देवता इस यात्रा में शरीक होते हैं.

लंका दहन समाप्ति -

इसके साथ लंका दहन की समाप्ति हो जाती है. रघुनाथ की पालकी को वापस मंदिर लाया जाता है और देवी-देवता भी अपने-अपने गांव के लिए प्रस्थान करते रहे हैं. ठाकुर निकलने से लंका दहन तक की अवधि में पर्यटकों के लिए एक विशेष आकर्षण रहता था जो अब कोरोना की जकड़ में हैं.

व्यापार व पर्यटन पर रहीं रोक-

इस दौरान लोगों को यहां की भाषा, वेशभूषा, देव परंपराओं और सभ्यता से रूबरू होने का मौका मिलता है. स्थानीय उत्पाद विशेष रूप से कुल्लू की शॉल, टोपियां आदि खरीदने का अवसर भी प्राप्त होता था, लेकिन इस बार व्यापार पर पूर्ण प्रतिबंध रहा.

प्रदर्शिनयां जहां बड़ों को संतुष्ट करती हैं, वहीं छोटे मासूम बच्चों के लिए आश्चर्य से भरे कई सवाल छोड़ जाती थी. इसका मुख्य और सबसे आकर्षक गहना है, यहां आई असंख्य देवी-देवताओं की पालकियां जो मैदान में बने शिविरों में रखी जाती थी. सुबह व संध्या के समय जब देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना होती थी तो वातावरण भक्ति भाव से भर जाता था और लगता था.

लेकिन इस बार इस जनता के दर्शन दुर्लभ है. इस समय कुल्लू घाटी में देव परंपराओं के जीवित होने का प्रत्यक्ष प्रमाण देखने को मिलता रहा है. लोगों में अपने अराध्य देव के प्रतिविश्वास व श्रद्धा सागर में उठने वाली लहरों के मानिंद साफ दिखाई देता था.

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