नई दिल्ली : देश में 27 सालों से लंबित महिला आरक्षण विधेयक को मोदी कैबिनेट से सोमवार की शाम को मंजूरी मिल गई और आज संसद में इस विधेयक को पेश किया जाएगा. पांच दिवसीय संसद सत्र से पहले मोदी सरकार द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में कई पॉलिटिकल पार्टियों ने इस विधेयक को पेश करने की भरपूर वकालत की थी. अब संसद के विशेष सत्र में विधेयक को पारित किया जा सकता. दरअसल, ये विधेयक का मुद्दा आज का नहीं बल्कि कई दशकों पुराना है और इस विधेयक की जितनी वकालत की गई, उतना ही विरोध भी किया गया है.
महिला आरक्षण का विरोध : भाजपा और कांग्रेस ने हमेशा विधेयक का समर्थन किया है, लेकिन अन्य दलों के विरोध और महिला कोटा के भीतर पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की कुछ मांगें ऐसी रहीं, जिसके चलते विधेयक पर सहमति नहीं बन सकी. साल 2010 में यूपीए सरकार ने आखिरी बार इस विधेयक को संसद में पास करने की कोशिश की थी, जिसमें राज्यसभा ने हंगामे के बीच विधेयक को पारित कर दिया, लेकिन लोकसभा में पारित नहीं सका और ये अटक गया था. संसद में लोकसभा और राज्य के विधानसभा में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने के कदम का कुछ सांसदों ने विरोध जताया था, जिसके बाद मार्शल ने उन्हें बाहर कर दिया था.
कुछ राजनीतिक दलों और नेताओं को महिलाओं के आरक्षण को लेकर आपत्ति है. उनका मानना है कि इस आरक्षण का लाभ केवल कुछ विशेष वर्ग को ही प्राप्त होगा. इससे राजनीति में पिछड़े वर्ग, दलित और अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं की हिस्सेदारी में कमी आ सकती है. ऐसे पार्टियों की मांग है कि महिला आरक्षण विधेयक में एसी-एसटी के अलावा ओबीसी, माइनॉरिटी कम्युनिटी के लिए सीटें रिजर्व किये जाएं. इस विधेयक का विरोध करने वाली पार्टियों में प्रमुख रूप से जदयू, राजद और सपा शामिल हैं. इन तीन पार्टियों ने हमेशा से महिला आरक्षण में ओबीसी, दलित और मॉइनॉरिटीज को शामिल करने की मांग किया है. लेकिन इस मुद्दे को आगे लाने के पीछे इन पार्टियों का मकसद 50 प्रतिशत जनसंख्या में अपनी मौजूदगी दर्ज कराना है. वहीं, अगर मोदी सरकार इस विधेयक को पारित करने में नाकाम होती है, तो ये पार्टियां सरकार को महिला विरोधी भी साबित कर पाएगी.
विधेयक में महिलाओं के लिए प्रावधान : लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करने का प्रस्ताव है. ‘पीआरएस लेजिस्लेटिव’ पर उपलब्ध एक लेख के अनुसार, इसमें अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और एंग्लो-इंडियन के लिए 33 प्रतिशत कोटा-के भीतर-कोटा यानि उप-कोटा का भी प्रस्ताव रखा गया है, जबकि आरक्षित सीटों को प्रत्येक आम चुनाव के बाद रोटेशन के आधार पर बदला जाना था. इसका मतलब था कि तीन चुनावों के रोटेशन के बाद, सभी निर्वाचन क्षेत्र एक बार आरक्षित श्रेणी में आ जाते. यह आरक्षण 15 वर्षों के लिए लागू होना था. वर्ष 2008-2010 के असफल प्रयास से पहले, इसी तरह का विधेयक 1996, 1998 और 1999 में भी पेश किया गया था.
लोकसभा और विधानसभाओं में कितना रिजर्वेशन : आंकड़ों के मुताबिक, लोकसभा में 15 प्रतिशत से भी कम महिला सांसदों की संख्या है, जबकि अन्य राज्यों की विधानसभाओं में महिला सांसदों की संख्या 10 प्रतिशत से भी कम है. आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, असम, गोवा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, मेघालय, ओडिशा, सिक्किम, तमिलनाडु, तेलंगाना, त्रिपुरा और पुडुचेरी सहित कई राज्य विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 10 प्रतिशत से कम है. वहीं, दिसंबर 2022 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार, बिहार, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में 10-12 प्रतिशत महिला विधायक थीं. छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल और झारखंड क्रमश: 14.44 प्रतिशत, 13.7 प्रतिशत और 12.35 प्रतिशत के साथ महिला विधायक संबंधी सूची में सबसे आगे हैं.
पिछले कुछ हफ्तों में, बीजू जनता दल (बीजद) और भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) सहित कई दलों ने महिला आरक्षण विधेयक को पेश करने की मांग की है, जबकि कांग्रेस ने भी रविवार को हैदराबाद में अपनी कार्य समिति की बैठक में इस संबंध में एक प्रस्ताव पारित किया. हालांकि, यह देखना दिलचस्प होगा कि नये विधेयक में कितने प्रतिशत आरक्षण का प्रस्ताव किया जा सकता है, क्योंकि 2008 का विधेयक, जो लोकसभा में पारित नहीं होने के बाद 2010 में समाप्त हो गया था, में लोकसभा और प्रत्येक राज्य विधानसभा की सभी सीटों में से महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षित करने का प्रस्ताव था.