शिमला: आज से करीब 150 साल पहले ब्रिटिश काल में भारत की समर कैपिटल शिमला को अंग्रेजों ने अधिकतम 25 हजार की आबादी के लिए बसाया था. साल 1971 में हिमाचल प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला था. 1971 की जनगणना के मुताबिक उस वक्त पूरे शिमला जिले की आबादी 2,17,129 थी और शिमला शहर की जनसंख्या महज 56 हजार के करीब थी. यानी आज से 52 साल पहले ही शिमला में उस आबादी के दोगुने से भी ज्यादा लोग रहते थे, जितनों के लिए ये शहर बसाया गया था.
शिमला पर आबादी का बढ़ता बोझ- आज शिमला आबादी के लिहाज से सबसे बड़ा शहर है. शिमला की जनसंख्या ढाई लाख से अधिक हो गई है. यानी पांच दशक में यहां की आबादी पांच गुणा के करीब बढ़ी है. 1971 की जनगणना के मुताबिक हिमाचल की आबादी करीब 34 लाख थी जो आज बढ़कर करीब 70 लाख के पार पहुंची है. यानी बीते 52 साल में हिमाचल की आबादी दोगुनी हुई जबकि शिमला शहर में बसने वालों की आबादी 5 गुना हो गई है.
अवैध और अनियोजित निर्माण बजा रहा खतरे की घंटी- आज अंधाधुंध निर्माण और जनसंख्या के बढ़ते दबाव ने क्वीन ऑफ हिल्स को तबाही के मुहाने पर खड़ा कर दिया है. शिमला शहर के 65 फीसदी भवन असुरक्षित हैं. शिमला की कैरिंग कैपेस्टी को लेकर एनजीटी के आदेश पर पूर्व में हुए प्रारंभिक सर्वे की रिपोर्ट बताती है कि यहां 3000 भवन गिरने की कगार पर हैं. साल 2017 में एनजीटी के आदेश पर तत्कालीन अतिरिक्त मुख्य सचिव आईएएस दीपक सानन की अगुवाई में 8 लोगों का पैनल गठित किया था जिसने ये प्रारंभिक रिपोर्ट दी थी. रिपोर्ट में अवैध निर्माण पर सवाल उठाने के साथ-साथ असुरक्षित भवनों को ढहाने की सिफारिश की थी लेकिन सरकारें और उनकी मशीनरी इस रिपोर्ट को धूल खाने के लिए छोड़कर आपदा का इंतजार करती रही.
एनजीटी ने शिमला में सीवरेज और पानी की निकासी का उचित प्रबंध ना होने पर भी चिंता जताई थी. साथ ही वायु और ध्वनि प्रदूषण की रोकथाम के भी आदेश दिए थे. यही नहीं, एनजीटी के समय-समय पर दिए गए आदेशों में नदियों के किनारे सौ मीटर के दायरे में स्टोन क्रशर बंद करने को भी कहा गया था. शिमला शहर के कोर और ग्रीन एरिया में निर्माण की भी अनुमति नहीं है, लेकिन शिमला शहर फिर भी अंधाधुंध निर्माण की चपेट में है.
अब बरसी आसमान से आफत- इस बार मानसून सीजन में भारी बारिश के कारण हिमाचल बुरी तरह से प्रभावित हुआ है. सबसे अधिक नुकसान शिमला जिले को ही झेलना पड़ा है. शिमला में 14 अगस्त से अब तक यानी 17 अगस्त तक 21 लोग मौत के मुंह में समा गए. अभी भी 8 लोग लापता हैं. शिमला में शहरी विकास निदेशालय की इमारत खाली करवाई गई है. विकासनगर में एक बड़े कांप्लेक्स भ्राता सदन के ऊपर वाली सड़क में बड़ी-बड़ी दरारें आ चुकी हैं. जाखू की हाउसिंग बोर्ड कालोनी सहित समरहिल के एमआई रूम के पास मकानों में दरारें आ गई हैं. सिंकिंग जोन में बसे कृष्णानगर पर खतरा मंडरा रहा है. यहां कई घर खाली करवाए जा चुके हैं. ऐसे में सवाल पैदा हो रहा है कि शिमला का भविष्य क्या है ? और सरकार आने वाले समय में आपदा से निपटने के लिए क्या करने जा रही है. सबसे पहले चर्चा करते हैं कि शिमला की ऐसी हालत क्यों कर हुई है.
ये नियोजित विनाश है- शिमला शहर के पूर्व डिप्टी मेयर टिकेंद्र सिंह पंवर हिमाचल और शिमला में आई आपदा को मैन मेड यानी इंसानों की देन बताते हैं. उनका कहना है कि ये प्लांड डिस्ट्रक्शन ऑफ हिमालयाज है. उनके मुताबिक फोरलेन बनाने के लिए पहाडिय़ों की अवैज्ञानिक और गैर जरूरी कटाई की गई है. शिमला में पानी के नालों के बीच भी मकान बने हुए हैं. कृष्णानगर सिंकिंग जोन में है, यहां हुआ निर्माण सवालों के घेरे में है. टिकेंद्र पंवर ने फोरलेन निर्माण में लापरवाही को लेकर परवाणू थाने में NHAI के खिलाफ मामला भी दर्ज करवाया है.
उधर शिमला के मेयर सुरेंद्र चौहान का कहना है कि शहर में निर्माण कार्य को लेकर नए सिरे से चिंतन की जरूरत है. वे शिमला के पानी के निकासी सिस्टम के प्रॉपर न होने को भी बर्बादी का कारण मानते हैं. मेयर का कहना है कि शिमला प्रदेश की राजधानी है और यहां सभी सरकारी दफ्तर हैं. शिमला पर आबादी के साथ-साथ इन दफ्तरों का बोझ भी बढ़ा है. शिमला के पूर्व मेयर संजय चौहान का मानना है कि शिमला का डवलपमेंट प्लान ही दोषपूर्ण है.
सरकारी दफ्तरों को शिमला से शिफ्ट करने के मशवरे गाहे-बगाहे दिए जाते रहे हैं. शहर के जागरुक नागरिक मोहिंद्र ठाकुर का मानना है कि शिमला से कुछ कार्यालय प्रदेश के दूसरे शहरों में शिफ्ट किए जाने चाहिए. उनका मानना है कि शिमला के कॉलेजों और यूनिवर्सिटी समेत अन्य शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई के लिए प्रदेश भर से युवा आते हैं. वे किराए के मकानों में रहते हैं. ऐसे में मकान मालिक नियमों को तोड़कर बहुमंजिला इमारतें बनाते हैं, ताकि अधिक से अधिक किराएदारों को रख सकें. इसके अलावा पर्यटन नगरी होने के कारण यहां होटलों की कतार की कतार हो गई है. शिमला के कच्चीघाटी इलाके में तीन साल पहले दो मंजिला इमारत ज़मीदोज हो गई थी. वहां कम से कम 50 छोटे-बड़े होटल हैं. शहर में ऐसी कई जगहें हैं जहां बेतरतीब और बेहिसाब निर्माण हुआ है. फिर स्मार्ट सिटी के नाम पर शिमला में जो भारी-भरकम कंस्ट्रक्शन हुई है, उसका खामियाजा भी शहर भुगत रहा है.
सरकारी मशीनरी जिम्मेदार- जन आंदोलनों से जुड़े और सामाजिक कार्यकर्ता जीयानंद शर्मा का कहना है कि बेशक मानसून सीजन में भारी बारिश नुकसान का बड़ा कारण है, लेकिन व्यवस्थागत खामियां भी कम जिम्मेदार नहीं हैं. शहर में अनियोजित निर्माण कार्य, प्रॉपर ड्रेनेज सिस्टम न होना भी नुकसान की बड़ी वजह है. शहर में साधनहीन वर्ग ने जरूर अवैध रूप से निर्माण किया है, लेकिन ये सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि जिनके पास घर नहीं हैं, उन्हें जमीन और मकान उपलब्ध करवाए जाएं. शहर में निर्माण कार्य नियम कायदों के दायरे में करवाना भी सरकारी मशीनरी की जिम्मेदारी है. वो कहते हैं कि कृष्णानगर जैसी जगह में रातों-रात अवैध निर्माण नहीं हुआ है. आखिरकार ऐसे लोगों की रिहायश का इंतजाम करना सरकार की जिम्मेदारी नहीं है तो किसकी है? जीयानंद शर्मा ने शहर के पानी के नालों को नष्ट करने और उनके स्थान को पाट कर निर्माण करने को भी आपदा का कारण माना है.
फटकार भी गई बेकार- छह साल पहले एनजीटी ने शिमला के सभी अवैध निर्माण ध्वस्त करने के आदेश दिए थे. नवंबर 2017 में वीरभद्र सिंह सरकार को एनजीटी ने फटकार भी लगाई थी. एनजीटी ने टिप्पणी की थी कि सरकार अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन करने में असफल रही है. आदेश दिया गया था कि कोर, ग्रीन और फॉरेस्ट एरिया में अवैध निर्माण गिराए जाएं. इसी साल अगस्त महीने में शिमला के तारादेवी इलाके में 477 पेड़ अवैध रूप से काट दिए गए थे. कुल 38.5 बीघा जमीन से पेड़ काटने का मामला सामने आने पर तत्कालीन वीरभद्र सिंह सरकार बुरी तरह से आलोचना के घेरे में आई. मामला एनजीटी तक पहुंचा तो ट्रिब्यूनल ने 1.16 करोड़ रुपए जुर्माना वसूलने के आदेश दिए और साथ ही 477 पेड़ों की जगह दो हजार से अधिक नए पौधे लगाने को कहा था.
क्या है सरकार की तैयारी- इस साल मानसून सीजन में आई आपदा ने सभी को झकझोर दिया है. सरकार भी चिंता में पड़ गई है. शिमला में हुई तबाही के बाद सीएम सुखविंदर सिंह सुक्खू निरंतर अफसरों के साथ मीटिंग कर रहे हैं. सरकार अब नगर नियोजन के नियमों में संशोधन करने पर गंभीरता से विचार कर रही है. अब भवन निर्माण की अनुमति देने से पहले उनके स्ट्रक्चर को मंजूर करवाना अनिवार्य किया जाएगा. हर इमारत में पानी की निकासी के प्रावधान का कड़ाई से पालन तय किया जाएगा. शहर के पुराने नालों को सुधारा जाएगा. पानी के रास्तों को रोकने वाले निर्माण हटाए जाएंगे. शहर में डंपिंग यार्ड की जगह तलाशी जाएगी, ताकि निर्माण कार्य का मलबा सुरक्षित स्थान पर डंप किया जा सके.
शिमला में ऊंचे-ऊंचे देवदार के पेड़ शहर की खूबसूरती में चार चांद तो लगाते हैं, लेकिन ये पेड़ कई बार लोगों की जान पर भारी पड़ते हैं. शिमला में पिछले तीन दिन में 200 से अधिक देवदार के पेड़ गिर चुके हैं. जिससे काफी नुकसान भी हुआ है. अधिकारियों ने जायजा लिया तो पाया कि शहर में 550 से अधिक देवदार के पेड़ काल का रूप धारण कर सकते हैं. ऐसे में उन्हें काटने के लिए नियमों में भी छूट दी गई है. अब जहां भी रिहायशी इलाका है, वहां अगर कोई देवदार का पेड़ खतरनाक दिख रहा है, उसे काटा जाएगा. नियमों के अनुसार नगर निगम शिमला की ट्री कमेटी पेड़ों का निरीक्षण करती थी. ट्री कमेटी खतरनाक पेड़ों को चिन्हित करती थी और फिर कैबिनेट के की मंजूरी से उन्हें काटा जाता था लेकिन अब आपातकालीन परिस्थितियों को देखते हुए नियमों में ढील दी गई है.
मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने माना है कि स्ट्रक्चर इंजीनियरिंग की गलती के कारण काफी इमारतों को नुकसान हुआ है. साथ ही उन्होंने कहा कि कई बार ड्रेनेज सिस्टम में खामी के कारण पानी पहाड़ में रिसता रहता है और उसे कमजोर कर देता है. जब गर्मी के सीजन में इस पहाड़ पर मकान या दुकान बनती है तो जान और माल का नुकसान होता है. सीएम सुक्खू ने कहा कि इस बार इंफ्रास्ट्रक्चर को बहुत नुकसान हुआ है जिसे फिर से खड़ा करने में एक साल का वक्त लगेगा. शिमला में अधिकारियों को दिशा निर्देश दिए हैं कि ड्रेनेज व्यवस्था को दुरुस्त किया जाए.
नीति के साथ नीयत भी चाहिए- 40 साल में शिमला को बढ़ता हुआ देखने वाले मोहिंद्र ठाकुर जैसे जागरुक नागरिक कहते हैं कि शहर को तबाही की दहलीज तक लाने में सियासत और समाज यानी आम लोग दोनों ही जिम्मेदार है. एनजीटी से लेकर कोर्ट कचहरियों ने जब भी शहर में अवैध निर्माण या पर्यावरण की अनदेखी पर सवाल उठाया है तो सियासत ने कोई ऐसा रास्ता खोजा जिससे वोट बैंक खतरे में ना पड़े. जब-जब अवैध और अनियोजित निर्माण गिराने जैसी कोई तीखी सिफारिश हुई तब-तब सरकारों ने अवैध निर्माण करने वालों पर या तो जुर्माने की रकम बढ़ा दी या फिर रिटेंशन पॉलिसी के दायरे में लाकर उनका साथ दे दिया.
वैसे भी ये कड़वा सच किसी से छिपा नहीं है कि देशभर में अवैध कालोनियां चुनाव के दौरान ही नियमित की जाती हैं. मोहिंद्र सवाल पूछते हैं कि अगर कोई निर्माण अवैध है तो उन्हें बिजली, पानी का मीटर, राशन कार्ड जैसी चीजें भी वही सरकारी मशीनरी देती है जो मौका आने पर इनपर बुलडोजर चलाती है. इसलिये सरकारी मशीनरी अवैध निर्माण में ज्यादा जिम्मेदार है. हालांकि मोहिंद्र ठाकुर कहते हैं कि इसमें लोग भी बराबर के भागीदार हैं. क्योंकि नियमों को ताक पर रखकर पहले तो नदी नाले के किनारे या बिना किसी एक्सपर्ट की राय के इमारत खड़ी कर दी जाती है. फिर अवैध तरीके से फ्लोर पर फ्लोर बनाकर खतरे को बुलावा लोग ही देते हैं. मोहिंद्र ठाकुर बताते हैं कि कोरोना काल के दौरान जब पूरी दुनिया लॉकडाउन में थी तो कुछ लोगों ने इस मौके को अवैध और अनियोजित निर्माण के लिए भी चुना और अपने छोटे से आशियाने को बड़ा कर लिया.
साफ है कि शिमला में दरकते पहाड़ और गिरती इमारतों के लिए कुदरत से ज्यादा इंसान जिम्मेदार है. वो सरकार जिम्मेदार है, जिसके कंधों पर इस ऐतिहासिक शहर को संजोने की जिम्मेदारी है. वो शहर जो अंग्रेजों की राजधानी से लेकर शिमला समझौते का गवाह और हर साल कई पर्यटकों की सैरगाह बनता है. इस शिमला शहर को संजोने के लिए नीति ही नहीं नीयत की भी जरूरत है.
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