ETV Bharat / bharat

उत्तराखंडः जानिए कितने प्रकार की होती है कांवड़ और क्‍या हैं नियम, कैसे करते हैं यात्रा

देवभूमि उत्तराखंड अपनी धार्मिक यात्राओं के लिए प्रसिद्ध है. कांवड़ यात्रा में दूसरे राज्यों से लाखों की संख्या में कांवड़ियां हर की पैड़ी आते हैं और जहां से गंगाजल लेकर शिवरात्रि पर अपने-अपने क्षेत्रों के शिवालयों में जलाभिषेक करते हैं. कांवड़ यात्रा को लेकर लोगों में खासा उत्साह देखा जाता है. आज हम आपको बताते हैं कि कांवड़ यात्रा कैसे शुरू हुई, किसने शुरू की, कितने प्रकार की होती है और कांवड़ के दौरान नियम क्या होते हैं.

kanwar yatra
कांवड़ यात्रा
author img

By

Published : Jul 17, 2022, 11:45 AM IST

देहरादून: श्रावण मास चल रहा है और हरिद्वार से शिव भक्त कांवड़ लेकर गंगाजल लेने जाते हैं. फिर उस जल से भोलेनाथ का जलाभिषेक करते हैं. शास्त्रों में हरिद्वार ब्रह्मकुंड से जल ले जाकर भगवान शिव को अर्पित करने का विशेष महत्व माना गया है. दरअसल, वैश्विक महामारी के कारण दो साल के अंतराल के बाद हो रही इस कांवड़ यात्रा में हालांकि कोई कोविड प्रतिबंध नहीं लागू किया गया है और अधिकारियों को उम्मीद है कि यात्रा के दौरान कम से कम चार करोड़ शिवभक्त गंगा जल लेने के लिए उत्तराखंड के हरिद्वार तथा आसपास के क्षेत्रों में पहुंचेंगे.

ऐसे में आपके सामने जब भी कोई कांवड़ यात्रा का जिक्र करता होगा तो आपके जेहन में एक सवाल आता होगा कि कांवड़ यात्रा आखिर किसने शुरू की होगी? आज हम आपको बताते हैं कि कांवड़ यात्रा कैसे शुरू हुई, किसने शुरू की, कितने प्रकार की होती है और कांवड़ के दौरान नियम क्या होते हैं.

ये है कांवड़ का इतिहास: भगवान परशुराम भगवान शिव के परम भक्त थे, मान्यता है कि वे सबसे पहले कांवड़ लेकर बागपत जिले के पास “पुरा महादेव” गए थे. उन्होंने गढ़मुक्तेश्वर से गंगा का जल लेकर भोलेनाथ का जलाभिषेक किया था. उस समय श्रावण मास चल रहा था और तब से इस परंपरा को निभाते हुए भक्त श्रावण मास में कांवड़ यात्रा निकालने लगे.

सामान्य कांवड़: सामान्य कांवड़िए कांवड़ यात्रा के दौरान जहां चाहे रुककर आराम कर सकते हैं. आराम करने के लिए कई जगह पंडाल लगे होते हैं, जहां वह विश्राम करके फिर से यात्रा को शुरू करते हैं.

kanwar yatra
सामान्य कांवड़ यात्रा.

डाक कांवड़: डाक कांवड़िए कांवड़ यात्रा की शुरुआत से शिव के जलाभिषेक तक बिना रुके लगातार चलते रहते हैं. उनके लिए मंदिरों में विशेष तरह के इंतजाम भी किए जाते हैं. जब वो आते हैं हर कोई उनके लिए रास्ता बनाता है. ताकि शिवलिंग तक बिना रुके वह चलते रहें.

kanwar yatra
डाक कांवड़िए.

खड़ी कांवड़: कुछ भक्त खड़ी कांवड़ लेकर चलते हैं. इस दौरान उनकी मदद के लिए कोई-न-कोई सहयोगी उनके साथ चलता है. जब वे आराम करते हैं, तो सहयोगी अपने कंधे पर उनकी कांवड़ लेकर कांवड़ को चलने के अंदाज में हिलाते रहते हैं.

kanwar yatra
खड़ी कांवड़ यात्रा.

दांडी कांवड़: दांडी कांवड़ में भक्त नदी तट से शिवधाम तक की यात्रा दंड देते हुए पूरी करते हैं. कांवड़ पथ की दूरी को अपने शरीर की लंबाई से लेट कर नापते हुए यात्रा पूरी करते हैं. यह बेहद मुश्किल होती है और इसमें एक महीने तक का वक्त लग जाता है.

kanwar yatra
दांडी कांवड़ यात्रा.

यह हैं नियम: कांवड़ यात्रा ले जाने के कई नियम होते हैं, जिनको पूरा करने का हर कांवड़िया संकल्प करता है. यात्रा के दौरान किसी भी प्रकार का नशा, मदिरा, मांस और तामसिक भोजन वर्जित माना गया है. कांवड़ को बिना स्नान किए हाथ नहीं लगा सकते, चमड़ा का स्पर्श नहीं करना, वाहन का प्रयोग नहीं करना, चारपाई का उपयोग नहीं करना, वृक्ष के नीचे भी कांवड़ नहीं रखना, कांवड़ को अपने सिर के ऊपर से लेकर जाना भी वर्जित माना गया है.

अश्वमेघ यज्ञ का मिलता है फल: शास्त्रों में बताया गया है कि सावन में शिवभक्त सच्ची श्रद्धा के साथ कांधे पर कांवड़ रखकर बोल बम का नारा लगाते हुए पैदल यात्रा करता है, उसे हर कदम के साथ एक अश्वमेघ यज्ञ करने जितना फल प्राप्त होता है. उसके सभी पापों का अंत हो जाता है. वह जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है. मृत्यु के बाद उसे शिवलोक की प्राप्ति होती है.

ये भी पढ़ें: हरिद्वार में कांवड़ मेले के लिए अभूतपूर्व सुरक्षा इंतजाम, जमीं से आसमान तक सिक्योरिटी सख्त

क्या है कावड़ ले जाने की मान्यता: हरिद्वार के ज्योतिषाचार्य प्रतीक मिश्र पुरी बताते हैं कि अगर प्राचीन ग्रंथों, इतिहास की मानें तो कहा जाता है कि पहला कांवड़िया रावण था. वेद कहते हैं कि कांवड़ की परंपरा समुद्र मंथन के समय ही पड़ गई. तब जब मंथन में विष निकला तो संसार इससे त्राहि-त्राहि करने लगा. तब भगवान शिव ने इसे अपने गले में रख लिया. लेकिन इससे शिव के अंदर जो नकारात्मक उर्जा ने जगह बनाई, उसको दूर करने का काम रावण ने किया.

रावण ने तप करने के बाद गंगा के जल से पुरा महादेव मंदिर में भगवान शिव का अभिषेक किया, जिससे शिव इस उर्जा से मुक्त हो गए. वैसे अंग्रेजों ने 19वीं सदी की शुरुआत से भारत में कांवड़ यात्रा का जिक्र अपनी किताबों और लेखों में किया. कई पुराने चित्रों में भी ये दिखाया गया है. लेकिन कांवड़ यात्रा 1960 के दशक तक बहुत तामझाम से नहीं होती थी. कुछ साधु और श्रृद्धालुओं के साथ धनी मारवाड़ी सेठ नंगे पैर चलकर हरिद्वार या बिहार में सुल्तानगंज तक जाते थे और वहां से गंगाजल लेकर लौटते थे, जिससे शिव का अभिषेक किया जाता था. 80 के दशक के बाद ये बड़े धार्मिक आयोजन में बदलने लगा. अब तो ये काफी बड़ा आयोजन हो चुका है.

पौराणिक ग्रंथों में एक मान्यता कांवड़ को लेकर और भी आती है. कहा जाता है कि जब राजा सगर के पुत्रों को तारने के लिए भागीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर आने के लिए मनाया तो उनका वेग इतना तेज था कि धरती पर सब कुछ नष्ट हो जाता. ऐसे में भगवान शिव ने उनके वेग को शांत करने के लिए उन्हें अपनी जटाओं में धारण कर लिया और तभी से यह माना जाता है कि भगवान शिव को मनाने के लिए गंगा जल से अभिषेक किया जाता है.

इस यात्रा को कांवड़ यात्रा क्यों कहा जाता है: क्योंकि इसमें आने वाले श्रृद्धालु चूंकि बांस की लकड़ी पर दोनों ओर टिकी हुई टोकरियों के साथ पहुंचते हैं और इन्हीं टोकरियों में गंगाजल लेकर लौटते हैं. इस कांवड़ को लगातार यात्रा के दौरान अपने कंधे पर रखकर यात्रा करते हैं, इसलिए इस यात्रा कांवड़ यात्रा और यात्रियों को कांवड़िए कहा जाता है. पहले तो लोग नंगे पैर या पैदल ही कांवड़ यात्रा करते थे लेकिन अब नए जमाने के हिसाब से बाइक, ट्रक और दूसरे साधनों का भी इस्तेमाल करने लगे हैं.

क्या कांवड़ यात्रा का संबंध केवल उत्तराखंड से आने वाले गंगाजल से ही है: आमतौर पर परंपरा तो यही रही है लेकिन आमतौर पर बिहार, झारखंड और बंगाल या उसके करीब के लोग सुल्तानगंज जाकर गंगाजल लेते हैं और कांवड़ यात्रा करके झारखंड में देवघर के वैद्यनाथ मंदिर या फिर बंगाल के तारकनाथ मंदिर के शिवालयों में जाते हैं. एक मिनी कांवड़ यात्रा अब इलाहाबाद और बनारस के बीच भी होने लगी है.

कब-कब पड़ रहे हैं विशेष सोमवार: सावन महीने की शुरूआत 14 जुलाई से हो गई है. 14 जुलाई से लेकर 27 जुलाई तक भगवान शिव को मनाने का बेहद पवित्र समय चल रहा है. 27 जुलाई को देश के तमाम शिवालयों पर भगवान शिव का जलाभिषेक होगा. इस दौरान भगवान को मनाने जाने के लिए भक्त अपने अपने तरीके से भगवान शिव की आराधना कर रहे हैं. सावन महीने के सोमवार में की गई पूजा का विशेष महत्व माना जाता है. इस बार सावन का पहला सोमवार 18 जुलाई को पड़ रहा है. दूसरा सोमवार 25 जुलाई को होगा. जबकि तीसरा सोमवार 1 अगस्त को होगा और चौथा सोमवार 8 अगस्त को होगा. सावन महीने की अंतिम तिथि 11 अगस्त रक्षाबंधन को होती है रक्षाबंधन के दिन सावन महीना समाप्त हो जाता है.

देहरादून: श्रावण मास चल रहा है और हरिद्वार से शिव भक्त कांवड़ लेकर गंगाजल लेने जाते हैं. फिर उस जल से भोलेनाथ का जलाभिषेक करते हैं. शास्त्रों में हरिद्वार ब्रह्मकुंड से जल ले जाकर भगवान शिव को अर्पित करने का विशेष महत्व माना गया है. दरअसल, वैश्विक महामारी के कारण दो साल के अंतराल के बाद हो रही इस कांवड़ यात्रा में हालांकि कोई कोविड प्रतिबंध नहीं लागू किया गया है और अधिकारियों को उम्मीद है कि यात्रा के दौरान कम से कम चार करोड़ शिवभक्त गंगा जल लेने के लिए उत्तराखंड के हरिद्वार तथा आसपास के क्षेत्रों में पहुंचेंगे.

ऐसे में आपके सामने जब भी कोई कांवड़ यात्रा का जिक्र करता होगा तो आपके जेहन में एक सवाल आता होगा कि कांवड़ यात्रा आखिर किसने शुरू की होगी? आज हम आपको बताते हैं कि कांवड़ यात्रा कैसे शुरू हुई, किसने शुरू की, कितने प्रकार की होती है और कांवड़ के दौरान नियम क्या होते हैं.

ये है कांवड़ का इतिहास: भगवान परशुराम भगवान शिव के परम भक्त थे, मान्यता है कि वे सबसे पहले कांवड़ लेकर बागपत जिले के पास “पुरा महादेव” गए थे. उन्होंने गढ़मुक्तेश्वर से गंगा का जल लेकर भोलेनाथ का जलाभिषेक किया था. उस समय श्रावण मास चल रहा था और तब से इस परंपरा को निभाते हुए भक्त श्रावण मास में कांवड़ यात्रा निकालने लगे.

सामान्य कांवड़: सामान्य कांवड़िए कांवड़ यात्रा के दौरान जहां चाहे रुककर आराम कर सकते हैं. आराम करने के लिए कई जगह पंडाल लगे होते हैं, जहां वह विश्राम करके फिर से यात्रा को शुरू करते हैं.

kanwar yatra
सामान्य कांवड़ यात्रा.

डाक कांवड़: डाक कांवड़िए कांवड़ यात्रा की शुरुआत से शिव के जलाभिषेक तक बिना रुके लगातार चलते रहते हैं. उनके लिए मंदिरों में विशेष तरह के इंतजाम भी किए जाते हैं. जब वो आते हैं हर कोई उनके लिए रास्ता बनाता है. ताकि शिवलिंग तक बिना रुके वह चलते रहें.

kanwar yatra
डाक कांवड़िए.

खड़ी कांवड़: कुछ भक्त खड़ी कांवड़ लेकर चलते हैं. इस दौरान उनकी मदद के लिए कोई-न-कोई सहयोगी उनके साथ चलता है. जब वे आराम करते हैं, तो सहयोगी अपने कंधे पर उनकी कांवड़ लेकर कांवड़ को चलने के अंदाज में हिलाते रहते हैं.

kanwar yatra
खड़ी कांवड़ यात्रा.

दांडी कांवड़: दांडी कांवड़ में भक्त नदी तट से शिवधाम तक की यात्रा दंड देते हुए पूरी करते हैं. कांवड़ पथ की दूरी को अपने शरीर की लंबाई से लेट कर नापते हुए यात्रा पूरी करते हैं. यह बेहद मुश्किल होती है और इसमें एक महीने तक का वक्त लग जाता है.

kanwar yatra
दांडी कांवड़ यात्रा.

यह हैं नियम: कांवड़ यात्रा ले जाने के कई नियम होते हैं, जिनको पूरा करने का हर कांवड़िया संकल्प करता है. यात्रा के दौरान किसी भी प्रकार का नशा, मदिरा, मांस और तामसिक भोजन वर्जित माना गया है. कांवड़ को बिना स्नान किए हाथ नहीं लगा सकते, चमड़ा का स्पर्श नहीं करना, वाहन का प्रयोग नहीं करना, चारपाई का उपयोग नहीं करना, वृक्ष के नीचे भी कांवड़ नहीं रखना, कांवड़ को अपने सिर के ऊपर से लेकर जाना भी वर्जित माना गया है.

अश्वमेघ यज्ञ का मिलता है फल: शास्त्रों में बताया गया है कि सावन में शिवभक्त सच्ची श्रद्धा के साथ कांधे पर कांवड़ रखकर बोल बम का नारा लगाते हुए पैदल यात्रा करता है, उसे हर कदम के साथ एक अश्वमेघ यज्ञ करने जितना फल प्राप्त होता है. उसके सभी पापों का अंत हो जाता है. वह जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है. मृत्यु के बाद उसे शिवलोक की प्राप्ति होती है.

ये भी पढ़ें: हरिद्वार में कांवड़ मेले के लिए अभूतपूर्व सुरक्षा इंतजाम, जमीं से आसमान तक सिक्योरिटी सख्त

क्या है कावड़ ले जाने की मान्यता: हरिद्वार के ज्योतिषाचार्य प्रतीक मिश्र पुरी बताते हैं कि अगर प्राचीन ग्रंथों, इतिहास की मानें तो कहा जाता है कि पहला कांवड़िया रावण था. वेद कहते हैं कि कांवड़ की परंपरा समुद्र मंथन के समय ही पड़ गई. तब जब मंथन में विष निकला तो संसार इससे त्राहि-त्राहि करने लगा. तब भगवान शिव ने इसे अपने गले में रख लिया. लेकिन इससे शिव के अंदर जो नकारात्मक उर्जा ने जगह बनाई, उसको दूर करने का काम रावण ने किया.

रावण ने तप करने के बाद गंगा के जल से पुरा महादेव मंदिर में भगवान शिव का अभिषेक किया, जिससे शिव इस उर्जा से मुक्त हो गए. वैसे अंग्रेजों ने 19वीं सदी की शुरुआत से भारत में कांवड़ यात्रा का जिक्र अपनी किताबों और लेखों में किया. कई पुराने चित्रों में भी ये दिखाया गया है. लेकिन कांवड़ यात्रा 1960 के दशक तक बहुत तामझाम से नहीं होती थी. कुछ साधु और श्रृद्धालुओं के साथ धनी मारवाड़ी सेठ नंगे पैर चलकर हरिद्वार या बिहार में सुल्तानगंज तक जाते थे और वहां से गंगाजल लेकर लौटते थे, जिससे शिव का अभिषेक किया जाता था. 80 के दशक के बाद ये बड़े धार्मिक आयोजन में बदलने लगा. अब तो ये काफी बड़ा आयोजन हो चुका है.

पौराणिक ग्रंथों में एक मान्यता कांवड़ को लेकर और भी आती है. कहा जाता है कि जब राजा सगर के पुत्रों को तारने के लिए भागीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर आने के लिए मनाया तो उनका वेग इतना तेज था कि धरती पर सब कुछ नष्ट हो जाता. ऐसे में भगवान शिव ने उनके वेग को शांत करने के लिए उन्हें अपनी जटाओं में धारण कर लिया और तभी से यह माना जाता है कि भगवान शिव को मनाने के लिए गंगा जल से अभिषेक किया जाता है.

इस यात्रा को कांवड़ यात्रा क्यों कहा जाता है: क्योंकि इसमें आने वाले श्रृद्धालु चूंकि बांस की लकड़ी पर दोनों ओर टिकी हुई टोकरियों के साथ पहुंचते हैं और इन्हीं टोकरियों में गंगाजल लेकर लौटते हैं. इस कांवड़ को लगातार यात्रा के दौरान अपने कंधे पर रखकर यात्रा करते हैं, इसलिए इस यात्रा कांवड़ यात्रा और यात्रियों को कांवड़िए कहा जाता है. पहले तो लोग नंगे पैर या पैदल ही कांवड़ यात्रा करते थे लेकिन अब नए जमाने के हिसाब से बाइक, ट्रक और दूसरे साधनों का भी इस्तेमाल करने लगे हैं.

क्या कांवड़ यात्रा का संबंध केवल उत्तराखंड से आने वाले गंगाजल से ही है: आमतौर पर परंपरा तो यही रही है लेकिन आमतौर पर बिहार, झारखंड और बंगाल या उसके करीब के लोग सुल्तानगंज जाकर गंगाजल लेते हैं और कांवड़ यात्रा करके झारखंड में देवघर के वैद्यनाथ मंदिर या फिर बंगाल के तारकनाथ मंदिर के शिवालयों में जाते हैं. एक मिनी कांवड़ यात्रा अब इलाहाबाद और बनारस के बीच भी होने लगी है.

कब-कब पड़ रहे हैं विशेष सोमवार: सावन महीने की शुरूआत 14 जुलाई से हो गई है. 14 जुलाई से लेकर 27 जुलाई तक भगवान शिव को मनाने का बेहद पवित्र समय चल रहा है. 27 जुलाई को देश के तमाम शिवालयों पर भगवान शिव का जलाभिषेक होगा. इस दौरान भगवान को मनाने जाने के लिए भक्त अपने अपने तरीके से भगवान शिव की आराधना कर रहे हैं. सावन महीने के सोमवार में की गई पूजा का विशेष महत्व माना जाता है. इस बार सावन का पहला सोमवार 18 जुलाई को पड़ रहा है. दूसरा सोमवार 25 जुलाई को होगा. जबकि तीसरा सोमवार 1 अगस्त को होगा और चौथा सोमवार 8 अगस्त को होगा. सावन महीने की अंतिम तिथि 11 अगस्त रक्षाबंधन को होती है रक्षाबंधन के दिन सावन महीना समाप्त हो जाता है.

ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.